तुलसीदास की रामकथा उनके काल-समय का वह साहित्यिक उत्पाद है जो उस समय की राजनीति के आगे मशाल लेकर चल रही थी। जिस मशाल की रोशनी में जनता अपनी स्मृति के शब्दों को पढ़ सके। रहस्य और शृंगार से इतर सहज, सरल, भाषा में एक दैवीय रूप को मानवीय मूल्यों में लाया गया जो परिवार से लेकर सरकार तक का आदर्श बने। तुलसीदास ने लोक के लिए एक ऐसे राजा का आह्वान किया जो राजसत्ता की छत को लोकतंत्र के खंभों पर रखते हैं। रामचरितमानस का खल-पात्र रावण नाम का कोई व्यक्ति नहीं बल्कि युगीन कुव्यवस्था है जिसके खिलाफ आचार संहिता तैयार होती है। राजा राम के साथ धर्म व कर्त्तव्य शब्द सहचर हो जाते हैं। राम के सिर पर राजमुकुट से पहले उनके कंधों पर लोकमंगल की जिम्मेदारी आती है। तत्कालीन मूल्यबोध के संदर्भों में देखें तो रामचरितमानस कई रूढ़ियों के खिलाफ जाकर राजसत्ता को लोकसत्ता के करीब लाती है। चतुर्भुज भगवान मानवीय द्विभुज में होकर जो सत्ता-संहिता दे जाते हैं, उसके जरिए राजा के गुणों पर बात प्रस्तुत करता बेबाक बोल।
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी। जीविका बिहिन लोग सीद्यमान सोच बस,कहैं एक एकन सों, कहां जाई, का करी? बेदहूं पुरान कही, लोकहूं बिलोकिअत, सांकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी। दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु! दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी।। (कवितावली, तुलसीदास)
दिन रामनवमी, 1575 इतिहास के कई संदर्भों का दावा है कि तुलसीदास ने इसी दिन से रामचरितमानस लिखने की शुरुआत की थी। वाल्मीकि रामायण का जन्म करुणा से हुआ था। ‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वगंम: शाश्वती: समा:। यतक्रौंचमिथुनादेकं वधी: काममोहितम्।।’ करुणा के साथ काव्य का उत्प्रेक तत्त्व है विद्रोह। तुलसी का रामचरितमानस एक कवि का वर्तमान व्यवस्था से विद्रोह था।
उद्धृत ‘कवितावली’ के दोहे में तुलसीदास राम के प्रति बलिहारी होते हुए कहते हैं कि वर्तमान में न तो किसानों की खेती हो रही है और न वणिकों का व्यापार चल रहा है। नौकरी करने वालों को कोई रोजगार नहीं मिल रहा है। जीविकोपार्जन से रहित लोग दुखी होकर एक-दूसरे से पूछते हैं कि कहां जाएं और क्या करें। वेद-पुराण भी कहते हैं तथा लोक में भी देखा जाता है कि संकट में आपने ही (राम) कल्याण किया है। हे दीनबंधु दारिद्रय रूप में रावण ने दुनिया को दबा लिया है। पाप की ज्वाला को देख कर तुलसी हा हा करता है अर्थात अत्यंत कातर होकर आपसे सहायता के लिए विनती करता है।
तुलसी के समय की आम जनता रोजी-रोटी के सवालों से तो जूझ ही रही थी, साथ ही अपनी धार्मिक अस्मिता पर भी खतरे देख रही थी। रेशमी वस्त्रों, किला-मकबरा बनाने वालों की पूछ, राजा की आरती उतारने वाले दरबारी कवियों की पूछ, शाह के मुसाहिब की पूछ लेकिन, खेती-व्यापार करने वाले कहां जाएं? आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि साहित्य अपने परिवेश की पूरी जटिलता के साथ आता है।
संत कवि के साथ अपने परिवेश की जटिलता की चुनौती थी। उन्होंने अपने साहित्य के जरिए उसका समाधान रचा। तुलसी रचित रामचरितमानस तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ साहित्यिक दखल थी। वो ऐसा साहित्य रच रहे थे जो राजनीति के आगे चलने वाली मशाल थी। इसी मशाल की रोशनी में वे आम जन को सत्ता के अंधेरे के खिलाफ एकजुट करते हैं।
‘कोउ नृप होय हम हिं का हानी। चेरी छांड़ि अब होब कि रानी।। ’ तुलसी की कई चौपाई लोक बरक्स सत्ता का मंथन है। खल पात्र मंथरा के जरिए तुलसीदास उन पर तंज कसते हैं जो यथास्थितिवादी हैं। प्रजा को यह परवाह नहीं है कि उसका राजा कैसा हो तो प्रजा का चरित्र कभी उच्च नहीं हो सकता। उसे इस बात की फिक्र होनी ही चाहिए कि उसका राजा कौन हो। कोउ नृप होऊ हमें का हानि बोलने वाला खल ही हो सकता है नायक नहीं।
‘सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई।।’
तुलसीदास राजा के रूप में लोकरक्षक की कामना करते हैं। वाल्मीकि भगवान राम का भावांतरण जब तुलसी करते हैं तो राम अवधि भाषा में अपने लोक के साथ सहज और सरल थे। संस्कृत के शब्द वाले राम जब अवधि की गेयता में आते हैं तो रामचरितामनस का वाचक काकभुशुंडि भी हो जाते हैं। कौवा वाचक और गरुड़ श्रोता, तुलसी रामकथा में दो अलग स्तरों के पक्षियों का मेल राम-काज में कर समता का संदेश दे देते हैं। अवधपति का पहला धर्म सबका होना है।
‘राम राज कर सुख संपदा। बरनि न सकइ फनीस सारदा।।’ राजा का काम प्रजा को सभ्यता की सुखद विरासत देना है। वही राजा प्रजा के मन में अपनी मूर्ति बना सकेगा जो अगली पीढ़ी के लिए राज्य की सुखद और संपन्न विरासत छोड़ेगा। तुलसी के काल में राजा का पद विरासती है। लेकिन, यह विरासत अधिकार नहीं धर्म के रूप में मिलती है।
बड़े पुत्र का राजगद्दी पर पहला अधिकार है, लेकिन पिता के आदेश को मानना पुत्र का धर्म है। राम अधिकार को छोड़ धर्म को चुनते हैं। धर्म को चुनना, वनवास जाना ही उनके लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया है। राम उस प्रजा से मिलते हैं जो हाशिए पर है। गद्दी से दूर राम अपनी जनसेना बनाते हैं। दशरथ ने राम को ‘दंडकारण्य’ दिया तो उन्होंने जंगल के जीवों को वरदान से भरना शुरू कर दिया।
विंध्याचल पर्वत से यह नर्मदा से गोदावरी और कृष्णा नदी के विस्तार वाला क्षेत्र है। तुलसी के राम वनवास में आकर वनवासियों को जानते हैं, उनके कष्ट समझते हैं। छूटी हुई, संसाधनों से दूर प्रजा के पास खुद राम पहुंचते हैं। राजा बनने से वंचित होकर प्रजा के पालक होने की पाठशाला में प्रवेश करते हैं। तुलसी तो यहां तक कहते हैं कि जिसके राज्य में प्रजा सुखी नहीं है वह राजा ‘नरक’ जाएगा।
‘बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिंखेल सकल नृपलीला।।’ राजा के बारे में तुलसी कहते हैं कि जो सत्य को गले लगा सके। जो विवेकपूर्ण तरीके से अपने सहयोगियों का समूह तैयार कर सके वही राजा बनने योग्य हो सकता है। जंगल में ‘भरत-मिलन’ सिर्फ दो भाइयों का मिलन नहीं है। राम को इस बात की चिंता है कि भरत अपना शासन किस तरह चला रहे हैं? वाल्मीकि रामायण में भी राम भरत से पूछते हैं कि तुम राज-काज के सारे फैसले अकेले तो नहीं लेते? वे भरत से पूछते हैं कि तुम हजार मूर्खों की अपेक्षा एक बुद्धिमान परामर्शदाता को रखना अच्छा समझते हो न? राजा को विद्वान, सभी प्राणियों का रक्षक और सदाचारी होना चाहिए।
तुलसीदास राम को एक सहज मानवीय रूप देते हैं। राम की मर्यादा उनके मानवीय जीवन के मंथन में है। राम का संघर्ष ही उन्हें पुरुषोत्तम बनाता है। वनवास में प्रवेश करते ही उनके प्रजापालक चरित्र का निर्माण होता है। इसके पहले तुलसी राजाराम को एक पारिवारिक आदर्श के रूप में दिखाते हैं। चाहे पुत्र, भ्राता, सखा, पति के रूप में राम उत्तम होने के लिए संघर्षरत हैं। इसे आज के आधुनिक संदर्भ में कह सकते हैं कि परिवार, सरकार की सबसे छोटी इकाई है।
अयोध्या कांड से उत्तर कांड की यात्रा राम के संघर्ष की यात्रा है। पारिवारिक व्यवस्था की परिक्रमा पूरी कर वे उत्तर कांड में व्यवस्थापालक के रूप में सामने आते हैं। व्यवस्थापालक के रूप में तुलसी राम का जो रूप रखते हैं वह कुछ संदर्भों में आधुनिक आदर्श नहीं हो सकता, लेकिन राम उसी समय में पूर्वग्रहों को झटकते रहे हैं। राम का वह रूप उस समय से लेकर आज का आदर्श है।
मध्यकाल में जब भक्तिकाल में आते हैं तो मुगलकाल में बहुत सारे सामाजिक परिवर्तनों ने एक बड़े वर्ग के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया। इसलिए तुलसी वाल्मीकि के रामायण के जरिए उन मूल्यों को फिर से आदर्श बनाने का प्रयास करते हैं, उस राम राज की याद दिलाते हैं जो धरती पर स्वर्ग है।
वहीं पूरा निर्गुण पंथ अपने-अपने राम रच रहा है जो किसी भी तरह के अस्तित्व से आजाद है, जो एक समता का, प्रेम का, भक्ति का भाव है।
आज जब राम को लेकर पुनर्जागरण का दावा हो रहा है तो तुलसी के राजा वाले राम और मुखर होकर सामने आने चाहिए। तुलसी राजा राम की सिर्फ स्तुति नहीं करते हैं कैसा राजा स्तुत्य है इसका संधान करते हैं। तुलसी वाल्मीकि के राम के साथ जो राजा रचते हैं, उसकी धुन तो पूरी फिजा में है। अनसुना तो नहीं कर सकते?
‘मुखिया मुखु सो चाहिए खान पान कहुं एक। पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।।’ राजा को मुख जैसा होना चाहिए जो खाने में अकेला हो। पर हर अंग को उससे समान पोषण मिले। सत्ता यह भूल न करे कि राजा राम की धुन में वह उनके गुण भूल जाएगी। राजा राम रोजी-रोजगार के सवालों से बचा लेंगे। तुलसी ने तो रोजी और रोजगार के सवालों से जागने के बाद ही लोक को राजा राम के प्रति जगाया था।