तुलसी ममता राम सों, समता सब संसारराग न रोष न दोष दुख, दास भए भव पार॥

राम भक्त होने के लिए जरूरी है ममता और समता की आंतरिक चेतना। राम भक्त होना खुद ही राम हो जाना है। तुलसीदास कहते हैं कि जिनकी श्रीराम में ममता और सब संसार में समता है, जिनका किसी के प्रति राग, द्वेष, दोष और दु:ख का भाव नहीं है, ऐसे भक्त भव सागर से पार हो चुके हैं। श्रीराम की व्यापकता ऐसी है कि उन्हें किसी एक खांचे में खींचा ही नहीं जा सकता है। राम सिर्फ शक्तिस्वरूप में युद्धरत नहीं वैदेही विरह की वेदना में अश्रुरत भी हैं। राम पोथी के ज्ञान में, जोगी के बैराग में, खेतिहर के खलिहान में हैं तो गृहस्थन के शादी-ब्याह के गीत से लेकर अंतिम यात्रा में अपनी सत्यता की गूंज में हैं। राम जब भी आए, सबके लिए आए, राम जब भी आएंगे सबके लिए आएंगे। उन लोगों को संदेश देता बेबाक बोल जो मान रहे हैं कि राम सिर्फ उनके लिए आएंगे। राम आएंगे तो ममता और समता के साथ, सबके लिए आएंगे।

‘परिछन चलू सखि अइलै रघुराय हो परिछन चलू सासु सुंदर जमाय हो’

इस देश में राम क्या हैं इसकी व्याख्या करने से मुश्किल और आसान कुछ भी नहीं है। मुश्किल काम तो विषय के विद्वानों के लिए छोड़ देते हैं, हम आसान रास्ता चुनते हैं लोक का। राम किसी ग्रंथ का हिस्सा, राजनीतिक दल के घोषणापत्र से पहले लोक की स्मृति में हैं। स्मृतियों के हस्तांतरित स्वर उत्तर से लेकर दक्षिण तक अपने जंगल, अपने पहाड़, अपनी नदियों और अपने खान-पान के हिसाब से रामगाथा रचते हैं। तुलसीदास जब मानस रच रहे थे तब उनके पास भी राम-स्मृति और परंपरा का विपुल संसाधन था।

अवध में जनमे ठुमक-ठुमक चलते राम की चंचल, मीठी स्मृति उनकी ससुराल तक पहुंचती है। राम की ससुराल यानी आज की मिथिला जो राम को जमाता मान कर उनका आदर तो करती है पर अपनी जनकदुलारी मैथिली को लेकर ठसक बरकरार रखती है। राम की जन्मभूमि का रिश्ता दशरथ के समधियाने से जो जुड़ता है। एक ही घर में अलग-अलग जगहों से ब्याह कर आईं महिलाओं की स्मृति रामजी को लेकर अलग-अलग है। स्मृति राम के जन्म से है तो अलग भाव है। स्मृति राम के ननिहाल (छत्तीसगढ़) से है तो अलग भाव है, जहां मामा भांजे के रूप में रघुवर को याद करते हैं।

अपने घर, ननिहाल से लेकर जब राम की स्मृति ससुराल पहुंचती है तो एक दुख भी उपजता है। जनककुमारी के वनवास भोगने का दुख। लोक आस्था में रामजी को समझने के लिए बिहार, पूर्वांचल से लेकर छत्तीसगढ़ के इलाकों के बस विवाह से जुड़े लोक-गीत ही सुन लें। कितना मान है अपनी सीता पर, कितनी शिकायतें हैं दशरथ से, कितनी शिकायतें हैं श्रीराम से।

बेटी के ब्याह का शगुन निकलते ही महिलाओं के कंठ से विदाई के दर्द भरे गीत निकलने लगते हैं। ससुराल का क्या भरोसा? कोई नुक्स न निकले तो बेटी के साथ भेजे चने में दोष बता दिया जाएगा कि उसकी नाक टेढ़ी है। एक तरफ तो रामजी जैसा दामाद मिलने का गर्व, दूसरी तरफ अपनी फूलकुमारी को विदा करने का दर्द। इन गीतों में बेटी किसी तरह का बोझ नहीं, मां की कोख का गर्व है जिसे ब्याहने रामजी आते हैं। राम वो हैं जो सिया के बिना अधूरे हैं।

राम वो हैं जो बेटी विदा करने वालों को ऊंचा दर्जा देते हैं। राम वो हैं जिनकी सास आरती करने के बाद नाक पकड़ कर उन्हें मंडप तक ले जाती है ताकि जांच सके कि जिससे बेटी ब्याही जा रही है वो हर तरह से दुरुस्त तो है। राम वो हैं जो समधनों के द्वारा अपने पिता को दी जा रही गाली को हंसते-हंसते सुनते हैं, जो बेटी के ससुरालियों की सहिष्णुता का प्रतीक हैं।

रामजी को लेकर सांस्कृतिक स्मृति ऐसी है कि मिथिला के लोग आज भी अयोध्या में खाने-पीने से परहेज की कहानी सुनाते हैं। जहां बेटी ब्याही है वहां का पानी भी नहीं पीना। पालने में रामजी की लोरी से शुरू हुआ सफर अर्थी पर राम नाम सत्य है के साथ खत्म होता है। सौर गृह में, पालने में, घर के आंगन में, खेतों में, शादी-ब्याह में रामजी को लाने वाला देश अंतिम यात्रा पर राम नाम सत्य है का उद्घोष कर जीवन का रामपथ पूरा करता है। किसी भी परिवेश के सत्य का निर्माण वहां की स्मृतियों से ही होता है। यहां की स्मृतियों में राम जन्म से लेकर मृत्यु तक सतत सत्य माने जाते हैं।

हर देश के आधुनिकीकरण की अपनी खास प्रक्रिया और इतिहास है। किसी भी देश के आधुनिकीकरण में वहां की विरासत, अतीत, संस्कृति और स्मृति की अहम भूमिका होती है। उदाहरण के लिए यूरोप में देखें तो चर्च और राज्यसत्ता के गठजोड़ का अलगाव यानी धर्मसुधार आंदोलन सतत प्रक्रिया का हिस्सा था। चर्च को राज्य से अलग कर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का आधुनिक ढांचा खड़ा किया जाता है।

ध्यान रहे कि यूरोप में यह आधुनिकता नास्तिकता को थोपने के लिए नहीं थी बल्कि वर्तमान व्यवस्था को ज्यादा तार्किक और मानवीय बनाने के लिए थी। आधुनिक यूरोप में भी ‘होली डे’ की अवधारणा रहती है। धर्म सुधार आंदोलन ने नास्तिकता को नहीं थोपा, बल्कि आस्था को मानवीय मूल्यों के साथ खड़ा किया। यूरोप के धर्म सुधार आंदोलन में वहां के पर्व-त्योहार और अतीत खारिज नहीं हुए। पश्चिमी देशों में चौबीस दिसंबर की रात से एक जनवरी यानी सात दिनों तक चलने वाला त्योहार वहां की संस्कृति और विरासत से ही जुड़ा हुआ है जो औपनिवेशिक शासन के कारण आज हम भी साझा करते हैं।

भारत के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया औपनिवेशिक शासन में शुरू हुई। अंग्रेजों द्वारा शुरू किए गए आधुनिकीकरण में हमारे देश का अतीत, विरासत निरंतर संवादरत नहीं रह सके। संस्कृति की सतत स्मृतियों पर आधुनिकता का गति-अवरोधक सा लगा दिया गया। भारतीय संस्कृति और स्मृति के पथ पर पंथनिरपेक्षता का मील का पत्थर लगा दिया गया। धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक खांचे में 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय त्योहार तो बने। लेकिन, हमारे तीज-त्योहार, सामूहिक स्मृति की तारम्यता उस रूप में नहीं बन पाई।

भारतीय संस्कृति में इतनी विविधता है कि उसे एकरंगा बनाया भी नहीं जा सकता था। औपनिवेशिक चादर के साथ नेहरुवादी ढांचे में पंथ निरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव ही रहा। पश्चिमी धर्मनिरपेक्ष अवधारणा राज्य को धर्म से अलग रखती है। सदियों से बनी स्मृतियों के देश में एक खास तारीख के बाद की स्थिति को ही सत्य बताया गया। लेकिन, लोक जीवन का उससे कटाव रहा। दूर-दराज के गांव के इलाकों में हमें आज भी यह दृश्य मिल जाएगा जब तिरंगा फहराते वक्त लोग जूते उतार देते हैं, उसके पहले कुछ खाने से परहेज करते हैं और आंग्ल नव वर्ष यानी एक जनवरी के दिन मंदिरों में अभूतपूर्व भीड़ हो जाती है। यानी आधुनिक बिंबों के साथ भी हम अपनी संस्कृति और स्मृति से जुड़े रहना चाहते हैं।

अतीत व स्मृति के इस गठजोड़ की अहमियत को समझते हुए ही राजनीति में राम मंदिर आंदोलन का प्रवेश कराया गया। राम की विरासत की व्यापकता उतनी ही बड़ी और विविध है जितना बड़ा और विविध यह देश है। कहीं दशरथ पुत्र के रूप में सगुण राम हैं तो कहीं निर्गुण राम हैं। राम को नकारने के काम में भी राम हैं तो स्वीकारने में भी राम हैं। वामपंथी विचारधारा का एक तबका मानता है कि राम के मसले को धर्म अफीम है, या नास्तिकता के फलसफे से नहीं देखा जा सकता है। कोई भी तार्किक वैचारिक सिद्धांत सामूहिक स्मृति को खारिज नहीं कर सकता।

उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक कई रामायण लिखी गई हैं। देश की सामूहिक विरासत में राम अलग-अलग रूप में मौजूद हैं। राम की व्यापकता में अन्य आस्थाओं, स्मृतियों को नकार नहीं सकते। राम किसी खास राजनीति का एकवचन नहीं बल्कि इस देश की सामूहिकता का बहुवचन हैं। देश में अभी एक राजनीतिक नारा लगाया जा रहा है-राम आएंगे। जो लोग इस भ्रम में हैं कि राम मेरे लिए या मेरी पार्टी के लिए आएंगे, वक्त रहते संभल जाएं तो अच्छा होगा। क्योंकि राम आए तो सबके लिए आएंगे। यहां राजनीति नहीं राम नीति ही चलेगी जो सबको अपना मानती है। सगुण हो या निर्गुण सहिष्णु रामधुन इस देश की संस्कृति का संगीत है। राम पर राजनीति नहीं रामनीति ही चलेगी।