न्याय एक ऐसा शब्द है जिसे अपने विचारों का सहचर बना लेने वालों के साथ इतिहास कभी अन्याय नहीं करता। इतिहास के चौराहे पर हर किसी के पास मौका होता है ऐतिहासिक होने का। यह आपकी राजनीतिक दृष्टि पर निर्भर है कि आप चौराहे पर ही सटीक फैसला ले पाते हैं या कोई सुविधाजनक सड़क देख कर निकल जाते हैं। कर्पूरी ठाकुर ने आज से दशकों पहले जब भारतीय समाज व राजनीति की नब्ज पकड़ते हुए सामाजिक न्याय का रास्ता चुना तभी इतिहास ने उन्हें अपने पन्नों पर दर्ज कर लिया। प्रतीकों की राजनीति में दूसरे के प्रतीकों को सीने से लगा लेना भी साहसी फैसला होता है। पहचान की राजनीति में भुलाए जा रहे कर्पूरी ठाकुर को देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न देने का एलान कर मौजूदा सरकार ने कर्पूरी-कथा को देश के कोने-कोने तक पहुंचा कर उन्हें अमर कर दिया। राजनीतिक शब्दार्थ में ‘अमर रहें’ को देखें तो आज उसका भावार्थ कर्पूरी ठाकुर में सटीक निकलता है। सामाजिक न्याय के बीज-पुरुष की भारत रत्न के रूप में नई राष्ट्रीय पहचान पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
‘हक चाहो तो लड़ना सीखो, कदम-कदम पर अड़ना सीखो जीना है तो मरना सीखो’
जनीति के पुराने स्कूल के विद्यार्थियों का अभी चौंकना जारी है। पिछले हफ्ते जब विभिन्न मीडिया मंचों पर 22 जनवरी को ऐतिहासिक तारीख बताते हुए फिलहाल के राजनीतिक सत्र का समापन समझा जा रहा था, तभी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन ‘पराक्रम दिवस’ 23 जनवरी बीतते-बीतते 24 जनवरी की पूर्व संध्या पर केंद्र सरकार ने बिहार के जननायक कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने की घोषणा कर दी।
24 जनवरी को कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती थी। इस अवसर पर बिहार में कई बड़े कार्यक्रम आयोजित किए गए थे। बिहार में हर साल कर्पूरी जयंती पर कार्यक्रमों की बाढ़ आती है और उनके राजनीतिक दावेदार उन्हें अपना बनाने का दावा करते रहते हैं। लेकिन, 24 जनवरी 2024 को कर्पूरी ठाकुर की सौवीं जयंती पर पूरा देश उनके बारे में जानने की कोशिश करने लगा।
गूगल के खोज इंजन पर राजनीति और समाजशास्त्र के उस इंजीनियर की खोज होने लगी जिसने आज से पांच दशक पहले भारतीय राजनीति और समाज की नब्ज पकड़ ली थी। जिसने सबसे पहले पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग को राजनीतिक शब्दावली में लाकर आने वाले वक्त को अपने नाम कर लिया था। अब बिहार से जुड़े राजनीतिक दल ही नहीं पूरा देश उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत मान रहा है। ठाकुर विरासत हैं सामाजिक न्याय के प्रतीक के।
कर्पूरी ठाकुर उन दूरदृष्टि वाले नेताओं में थे जिन्होंने भारत की राजनीति में ‘सांस्कृतिक पूंजी’ के भेद को समझा और सत्ता मिलते ही सबसे पहले उसे खत्म करने की कोशिश की। किसी व्यक्ति के सशक्तीकरण में सिर्फ आर्थिक आयाम नहीं होते, बल्कि वे सांस्कृतिक आयाम भी होते हैं जो उन्हें अपने पुरखों से विरासत में मिले होते हैं।
कोई व्यक्ति अगर पीढ़ियों से सशक्त है तो जाहिर सी बात है कि उसके परिवार ने अंग्रेजी को तभी अपना लिया होगा जब भारत में अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत हुई। लेकिन, हाशिए पर पड़े जिन घरों के बच्चों ने अपनी पहली पीढ़ी के रूप में किताब पकड़ी ही हो वे तुरंत-फुरंत उस भाषा में पांरगत कैसे हो सकते थे जो उनके मां-बाप, पुरखों ने नहीं बोली हो। इसी उच्चवर्गीय भाषा की अनिवार्यता को उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा में खत्म किया।
अंग्रेजी की अनिवार्यता की वजह से कमजोर कही जाने वाली जाति के बच्चे शैक्षणिक स्तर पर मजबूत नहीं हो पा रहे थे। अंग्रेजी में फेल होने की वजह से वे उच्च कक्षाओं में प्रवेश नहीं पा सकते थे। हालांकि, तत्कालीन प्रभुत्वशाली समाज ने इस फैसले की कड़ी आलोचना की और इसे बिहार के लिए प्रतिगामी कदम बताया।
लेकिन, यह एक उस बड़े तबके के लिए वरदान साबित हुआ जो महज अंग्रेजी के कारण पीछे छूट जा रहा था। उनके इसी क्रांतिकारी फैसलों का असर था कि बिहार ने वह ऐतिहासिक समय भी देखा जब वहां के किसी मुख्यमंत्री ने एक बार में लगभग 9000 से ज्यादा लोगों को इंजीनियरिंग व डाक्टरी की डिग्री दी थी।
भारत जैसे देश में जहां आज भी साक्षरता की स्थिति ठीक नहीं है, वहां चालीस-पचास साल पहले भी विभिन्न कार्यालयों में अंग्रेजी में काम होते थे। जाहिर सी बात है कि इन दफ्तरों पर प्रभावशाली वर्ग का ही कब्जा था। उस माहौल में कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी विभागों में हिंदी में काम-काज को अनिवार्य बना दिया।
जब देश के सभी लोगों तक अंग्रेजी शिक्षा नहीं पहुंची थी तो फिर उस जनता के हक को उसकी भाषा में नहीं देना उसके साथ अन्याय ही था। कर्पूरी ठाकुर ने उस वक्त की बड़ी राजनीतिक और सांस्कृतिक जरूरत को समझते हुए भाषा का वर्चस्व तोड़ा। अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व तोड़ कर ही पीछे छूट गए वर्ग को शिक्षा, रोजगार और उनके अन्य अधिकार दिए जा सकते थे।
कमजोर कही जाने वाली जातियां और महिला, भारत के सांस्कृतिक परिवेश में इनके पीछे छूटने की वजहों पर अतीत में जाकर हाहाकार करने के बजाय कर्पूरी ठाकुर ने अपने वर्तमान में इसका समाधान खोजा। कर्पूरी ठाकुर ने राजनीति और समाज की नब्ज पकड़ते हुए 1977 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल आयोग की सिफारिशों को लागू कर दिया।
यह भारतीय राजनीति में ऐसा मील का पत्थर साबित हुआ कि उसके बाद राजनीतिक दल इसी पत्थर के इर्द-गिर्द फेरे लगाते रहे। कर्पूरी ठाकुर का 1977 और 1978 में जो राजनीतिक समीकरण था नीतीश कुमार की सरकार ने आगे जाकर उसे 75 फीसद कर दिया, जिसमें दस फीसद आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए है। कर्पूरी ठाकुर ने असमानता के खेत में आरक्षण के रूप में सामाजिक न्याय का बीज बो दिया था।
कर्पूरी ठाकुर की सामाजिक न्याय की लड़ाई के स्वर पर भी आज ध्यान देने की जरूरत है। अंग्रेजी से लेकर आरक्षण तक, अपना हर वर्चस्व टूटने पर प्रभुत्वशाली तबके ने उनका जितना अपमान किया उन सब को अनसुना करते हुए वे सामाजिक न्याय के एजंडे पर आगे बढ़ते रहे। उन्हें लेकर जातिगत गालियां घर से लेकर सड़क तक राजनीतिक नारों की तरह गूंजने लगी थी। कर्पूरी ठाकुर जानते थे कि राजनीतिक और सामाजिक बदलाव इतनी जल्दी ग्राह्य नहीं होते हैं।
राजनीतिक व सामाजिक बदलाव की अपनी भाषा को कर्पूरी ठाकुर ने जिस तरह अहिंसक व समावेशी रखा वह आज की राजनीति में दुर्लभ है। उन्होंने किसी खास जाति, वर्ग के खिलाफ विभाजनकारी हालात बनाने की कोशिश नहीं की। उनकी लड़ाई इसलिए थी कि गरीबों को उनका हक क्यों नहीं मिल रहा है, इसलिए नहीं कि अन्य वर्ग को यह सब क्यों मिल रहा है। लड़ाई के नजरिए के इस बड़े फर्क को आज की राजनीति समझ कर भी समझना नहीं चाहेगी।
राजनीतिक लड़ाई में प्रतीकात्मक महत्त्व को मौजूदा केंद्र सरकार ने जितना समझा है, उसे हम सब तब समझते हैं जब वह अपने पाले में एक और प्रतीक खड़ा कर लेती है। इसके बाद बाकियों के पास उसे ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहने के सिवा और कोई चारा नहीं होता है। अगर आप अपनी विचारधारा की परिधि से परे जाकर प्रतीकों की प्रशस्ति करते हैं तो आपकी बढ़ी राजनीतिक परिधि दूसरे की राजनीति का दायरा संकुचित कर देगी।
सरदार पटेल से लेकर, सुभाष चंद्र बोस और अब कर्पूरी ठाकुर। दूसरों के प्रतीकों को सीने से लगा कर अपना बना लेना एक राजनीतिक साहस का काम है और मौजूदा सत्ता इस मामले में साहसी का तमगा पा चुकी है। बिहार की राजनीतिक स्मृति तक सकुंचित कर दिए गए कर्पूरी ठाकुर को राष्ट्रीय परिधि में लाकर उन्हें सामाजिक न्याय के पुरोधा और जननायक के रूप में अमर करने का श्रेय तो यह सरकार ले गई।
भारत रत्न की घोषणा के बाद कर्पूरी-कथा देश के कोने-कोने तक पहुंचने के बाद नीतीश कुमार को यूं ही नहीं कहना पड़ा कि हमने तो अपने परिवार को आगे नहीं बढ़ाया और बाकी सब लोग अपना परिवार देखते रहे। प्रधानमंत्री जी ने हमें तो फोन नहीं किया लेकिन रामनाथ जी (कर्पूरी ठाकुर के पुत्र) को किया।
कर्पूरी ठाकुर के सामाजिक न्याय में क्षेत्रीय क्षत्रपों व जाति की राजनीति के अग्रजों के लिए जो संदेश है वो आज सभी सुन रहे हैं। बिहार के घर-घर में कर्पूरी ठाकुर की सादगी को लेकर कथा प्रचलित है। अब पूरा देश उसे सुन रहा है। इन्हीं अविश्वसनीय कहानियों से एक ऐसा विश्वसनीय नेता बना जो आज अपने सौवें साल पर भारत रत्न है।
भारतीय राजनीतिक नारों में ‘अमर रहें’ के शब्दार्थ को राजनीतिक भावार्थ में देखेंगे तो वो कर्पूरी ठाकुर हैं। इसके साथ ही मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई पर भी तुरुप का पत्ता गिरने वाला है। भारतीय राजनीति का नया समीकरण मंडल और कमंडल साथ-साथ। राजनीतिक विश्लेषकों के लिए नया अध्याय शुरू हो चुका है, कृपया तैयार रहें।