22 जनवरी, 2024 वह तारीख होगी जब राम मंदिर आंदोलन अपने लक्ष्य की प्राप्ति करेगा। भारत के इतिहास में यह एक ऐसे जनआंदोलन के रूप में दर्ज होगा जिसने इस देश की राजनीति की दशा और दिशा बदल दी। इतिहास गवाह है कि कोई भी आंदोलन जनता ही शुरू करती है, जिसे एक दूरदृष्टि वाली राजनीतिक पार्टी की अगुआई मिलती है। जनआंदोलनों की अगुआई करने वाला ही तत्कालीन सत्ता की प्राप्ति करता है। राम मंदिर इस देश की आस्था से जुड़ा मसला था और जनता के एक बड़े तबके का खुद से वादा था कि मंदिर वहीं बनाएंगे। इस लंबी लड़ाई का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने उस जनता के हक में दिया जो संविधान के साथ अपने घर में लाल कपड़े में लिपटी रामचरितमानस के राम में भी आस्था रखती है। मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह का बहिष्कार करने वाले शंकराचार्य हों या कांग्रेस, या अन्य दल, उनके तर्क जो भी हों यह मंदिर किसी एक राजनीतिक दल या संगठन का नहीं, देश की जनता का है। जिस तारीख का वादा था, उसके वफा होने की तारीखी तस्वीर पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मो धारयत प्रजा:।यस्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चय:॥
जिसे धारण किया जा सके वही धर्म है। धर्म शब्द की उत्पत्ति धारण करने से हुई है। किसी वस्तु में धारण करने की क्षमता है तो निश्चित ही वह धर्म है।इस स्तंभ ने राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह को लेकर भारतीय राजनीति व समाज में चल रहे द्वंद्व को समझने की कोशिश की। भारतीय समाज में राम, रामायण और उसके आंदोलन के हासिल अयोध्या में मंदिर को समझने की इस कड़ी में महाभारत में शांति पर्व के श्लोक से बात करते हैं। जिसे धारण किया जा सके वह धर्म है। सांस्कृतिक रूप से धर्म एक जीवन पद्धति है। यह एक सामाजिक व सांस्कृतिक विचारधारा है जो राजनीतिक विचारधारा का रूप ले सकती है। लेकिन, इस विचारधारा की राजनीति का झंडा उठाने के लिए सबसे आवश्यक है धर्म को धारण करने की निरंतरता।धर्म कोई मौसमी कपड़ा नहीं है कि इस मौसम में यह पहना तो उस मौसम में इसे पहनने की कोई इच्छा नहीं।
धर्म कोई ‘मेकअप’ भी नहीं कि किसी खास मंच पर जाने से पहले रूप-सज्जा कर ली। कहीं पर अपना जनेऊ दिखा दिया तो कहीं पर सनातन को कैंसर बना दिया। कहीं किसी धर्म को अपनाने की बात हुई तो कहीं किसी धर्म को भगाने की। कहीं पर चुनाव में गंगाजल की शपथ ली तो कहीं पर उस पूरे क्षेत्र को गोमूत्र करार दिया। अगर आप धर्म का इस्तेमाल चुनावी मौसम के हिसाब से करते हैं, तब भी भारतीय संदर्भ में आपके लिए बचने के लिए पतली गली है। भारतीय समाज में कहते हैं-एक चुप, सौ सुख।
राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के मसले पर हिंदुत्व को लेकर कभी हां, कभी ना वाली कांग्रेस गरिमामयी चुप्पी भी नहीं बरत सकी। मंदिर, धर्म व हिंदुत्व को लेकर दूसरे के तैयार मैदान पर खेल कर हारने वाली पार्टी ने शोर मचा कर कह दिया कि उसके नेता अयोध्या नहीं जाएंगे। प्राण प्रतिष्ठा समारोह को लेकर कांग्रेस की वैचारिक टीम के लिए फैसला लेना आसान नहीं था।
ऐसा होता तो आमंत्रण-पत्र मिलते ही न्योता नकारने का एलान किया जा सकता था। चुनावी मौसम की नजाकत को देखते हुए वोटों के तराजू पर आमंत्रण पत्र को तौला गया। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ यानी ‘रामपथ’ से बेदखल कांग्रेस की टीम का निष्कर्ष निकला कि अब जनेऊ किसी काम का नहीं तो मंदिर-मंदिर भटकने वाली छवि को भी भुनाया नहीं जा सकता है। अब जो बचे-खुचे वोट हैं उसकी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूरी बनानी जरूरी है। कांग्रेस ने इसे संघ व भाजपा का आयोजन बता कर इसमें जाने से इनकार किया।
राम के प्रति आस्थावान जनता का राजनीतिक पट्टा कांग्रेस ने खुद संघ व भाजपा के नाम कर एक और राजनीतिक भूल की है। राम मंदिर आंदोलन वह सामाजिक व सांस्कृति मुहिम थी जिसे वक्ती राजनीति ने अपनाया। आजाद आधुनिक भारत के इतिहास के पहले ही रामजन्मभूमि आंदोलन का इतिहास शुरू हो चुका था।
इस देश की बहुसंख्यक जनसंख्या जिसने औपनिवेशिक शासन में भी धर्म की संहिता को नहीं छोड़ा वह कह रही थी कि यह हमारी आस्था है कि श्रीराम अयोध्या में पैदा हुए। हमारे राम का मंदिर वहीं बनना चाहिए। यह वह पीढ़ी थी जिसे औपनिवेशिक ताकत के खिलाफ अहिंसक तरीके से जोड़ने के लिए महात्मा गांधी ने राजा राम और रामराज्य का सहारा लिया।
धर्म को धारण कर अपने जीवन के जन्म-मरण के रीति-रिवाज तय करने वाली इस कौम को अपनी मिट्टी व संस्कृति से बनी विचार मूर्ति ही जोड़ सकती थी। गांधी उसी राजा राम को लेकर आए थे जिनके लिए दो जोड़ी सूती साड़ी में साल बिता देने वाली आम महिलाएं अपना स्त्री धन गहने तक नहीं देने से हिचकी। अपने राजा राम वाले शासन के लिए गांधी की एक आवाज में इस देश की जनता जेल भरने के लिए तैयार हो गई।
‘नियति से साक्षात्कार’ (जवाहरलाल नेहरू का प्रसिद्ध भाषण) की आधी रात के बाद निकला सूरज कुछ के लिए आजाद था, कुछ के लिए ‘लाल’ था, कुछ के लिए ‘नीला’ तो एक बड़े तबके के लिए वह वैसा ही आराध्य था जैसे राजा राम। जिसकी विचारधारा का जैसा रंग, उसने उस सूरज को वैसे ही देखा। एक पीढ़ी को लगा कि हम अंग्रेजों के छक्के छुड़ा सकते हैं तो फिर अब अपने राजा राम को उनका मंदिर भी दिला सकते हैं। यह वही तबका था जो कल तक सुराज की बात कर रहा था। लेकिन, उसे यह समझ नहीं आ रहा था कि ‘नियति से साक्षात्कार’ के बाद मिले संविधान और उसकी आस्था में विरोधाभास कहां था?
आस्था के मंदिर के निर्माण में क्या संविधान बाधक था? यही बात पूछने के लिए आस्था ने संविधान की शरण ली। यह लड़ाई प्रसिद्ध उक्ति संसद से सड़क तक नहीं सड़क से संविधान तक की थी। आधुनिक संविधान के विधान ने भी रामलला को पक्षकार होने का अधिकार दिया। संविधान की मूल प्रति में तो खुद लोक के नायक राम का चित्र है।
देश के नागरिकों के मौलिक अधिकार को बताते पन्नों पर राम, सीता और लक्ष्मण के चित्र हैं। इस चित्र का संदेश यही है कि राम का दयालु एवं निष्पक्ष व्यक्तित्व ही सुराज ला सकता है। मंदिर बनाने के अधिकार को मौलिक अधिकार मानते हुए देश में एक सांस्कृतिक और वैचारिक लड़ाई शुरू हुई। अदालतों में रामलला से जुड़े साक्ष्य और दस्तावेज आने शुरू हुए।
संसद में बैठी दो सांसदों वाली पार्टी की नजर सड़क पर चल रहे इस आंदोलन पर गई। उस पार्टी को सड़क के इस संघर्ष में संसद का अपना भविष्य दिखा। जनता की इस लड़ाई का झंडा उसने थाम लिया। देखते ही देखते दो सांसदों वाली कथित ब्राह्मणों व बनियों की पार्टी से इस देश के हिंदुओं की राजनीतिक पार्टी बन गई।
इतिहास गवाह है कि आंदोलन हमेशा जनता का रहा है और उस पर आस्था जता कर उसकी अगुआई करने वाला राजा बना है। आप उस बुजुर्ग महिला को देखिए जो फोन, इंटरनेट और किसी तरह के सरकारी प्रचार से दूर है, लेकिन बिना आमंत्रण के अपनी सहेलियों के साथ पैदल ही प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने के लिए निकल पड़ी है। वह मंदिर से सैकड़ों मील दूर रह कर भी खुद को आयोजन में शामिल मानेगी। उसके लिए मंदिर किसी पार्टी का नहीं राजा राम का है। वह तो मंदिर की दिशा को पूज्य मान कर उस तरफ पैर रख कर सोएगी भी नहीं।
ऐसी ही बुजुर्ग महिलाओं व नागरिकों की आस्था की ऊर्जा को अपनी तरफ कर कोई पार्टी किसी को आमंत्रण देने की हैसियत रख पा रही है। सड़क पर आस्था की यह ऊर्जा देख कर उसे अहसास है कि मंदिर तो इन बुजुर्गों ने बनाया है। इन्हीं बुजुर्गों की लाठी पकड़ वह अबकी बार चार सौ पार का नारा लगा रही है तो सोच लीजिए राम मंदिर पर मिल्कियत किसकी है?
जब मंदिर तोड़ा गया तब आधुनिक संविधान वाला लोकतंत्र नहीं था। लेकिन, उस पीढ़ी की संततियों का अपने पुरखों से गर्भनाल के साथ धर्म का भी संबंध था। संविधान की रखवाली शीर्ष संस्था सुप्रीम कोर्ट के भवन का 1952 में जब उद्घाटन हुआ तो उसकी इमारत पर महाभारत का श्लोक लिखा था-यतो धर्मस्ततो जय:-जीत धर्म के पक्ष में खड़े लोगों की है। दुर्योधन ने जब अपनी माता गांधारी से जीत का आशीर्वाद मांगा था तो हस्तिनापुर की साम्राज्ञी ने पूरी सावधानी बरती। गांधारी ने संतति की जीत की नहीं, धर्म की जीत का आशीर्वाद दिया था। उसी धर्म की लड़ाई के लिए मंदिर के आंदोलनकारी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे।
इस देश की जनता मंदिर बनाने का आदेश अपने अथक आंदोलन के बाद संविधान से लेकर आई है। यह मंदिर संघ व भाजपा का नहीं जनता का है। 22 जनवरी राजा राम को मानने वाली जनता का नियति से साक्षात्कार है। आस्था के आंदोलनकारियों का खुद से किया वादा, मंदिर वहीं बनाएंगे के वफा होने का दिन है।