डरो मत…भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी के ये दो शब्द लोकप्रिय हुए। सोशल मीडिया पर यह एक प्रेरक संवाद के रूप में छाया रहा। तब जोखिम लेते राहुल गांधी से जनता को प्यार भी हुआ। लगा, राहुल गांधी डरो मत वाली भावना पर टिके रहेंगे और चुनावी मैदान में इस रणनीति को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन, अफसोस हिंदी पट्टी के हृदय प्रदेश में कांग्रेस जोखिम लेने से डर गई। न तो कमलनाथ, भूपेश बघेल और न अशोक गहलोत, कांग्रेस आलाकमान तीनों चेहरों को हटाने का जोखिम नहीं ले पाया। किसी तरह तेलंगाना में पुराने नेतृत्व को दरकिनार कर पूर्व ‘स्वयंसेवक’ रेवंत रेड्डी को कमान दी। मध्य प्रदेश में भाजपा ने यह जोखिम लिया और उसे इसका बंपर फायदा मिला। इसके साथ ही कांग्रेस ने ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ भी दूरी बना ली थी। कर्नाटक की जीत के बाद क्षेत्रीय दल उसे अपनी राष्ट्रीय छवि की राह का कांटा लगने लगे थे। वह गठबंधन के जोखिम से भी डर गई। अगर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ को हिंदी हृदयस्थल कहा जा रहा तो कांग्रेस के लिए इस हृदयाघात पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं..
राजस्थान के संदर्भ में यह उक्ति सचिन पायलट की थी। लेकिन, सच का सामना कांग्रेस आलाकमान से हो तो सत्य परेशान भी होगा और पराजित भी।कुछ समय पहले एक और चुनाव हुआ था। राजस्थान के संदर्भ में उस समय कांग्रेस की आहत भावना उभरी थी-कोई (राहुल गांधी) अकेला चुनाव लड़रहा था, और उन्हें सिर्फ अपने बेटे की जीत की फिक्र थी। उस चेहरे से वाकई सहानुभूति हुई थी कि वो अकेले लड़ रहे हैं। लगा था कि अब कांग्रेसको पूरी तरह बदल दिया जाएगा। कांग्रेस की चुनावी सीटों को पैतृक संपत्ति नहीं समझा जाएगा।
राहुल गांधी ने अपनी छवि निर्माण की जितनी कोशिश शुरू की जनता ने उससे ज्यादा उनका साथ दिया। कांग्रेस से ज्यादा देश का एक बड़ा तबका उनके लिए फिक्रमंद दिखा क्योंकि उन्हें लोकतंत्र की फिक्र थी। लगा, लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष भी उतना ही जरूरी होता है। लेकिन, हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में चुनाव के पहले राहुल गांधी चुनाव में सिर्फ बेटे और अपने लिए खड़े रहे पिता की बात भूल गए।
वे भूल गए कि जनता ने उनकी मोहब्बत की दुकान को प्यार इसलिए दिया क्योंकि उन्होंने खुद को स्थापित करने के लिए जोखिम लिया। दावा किया कि नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोली है। धारा के विपरीत काम करने वालों, जोखिम लेने वालों की हमेशा कद्र होती है, तो राहुल गांधी पर भी लोगों का भरोसा बढ़ा।
राहुल गांधी ने निज के स्तर पर जितने भी जोखिम लिए, तकलीफ सही हो, लेकिन उसके हासिल को राजस्थान और मध्य प्रदेश में जाया कर दिया। दक्षिण से उत्तर आते ही उन चेहरों के सामने समर्पण कर दिया जो सिर्फ खुद के भविष्य के लिए ही चुनाव का चेहरा बनाए जाने की जिद कर रहे थे। स्वार्थ के परोसे गए समीकरण के सामने कांग्रेस आलाकमान ने सच और साहस से आंखें फेर लीं। इसके पहले भी सत्ता के आरामपसंद नेताओं ने जी23 का हव्वा क्या खड़ा किया उसी में पार्टी के नवनिर्माण के हौसले को उड़ा दिया।
तीन में शून्य के नतीजे का सबक कांग्रेस भाजपा से सीखे। भाजपा नेतृत्व को जोखिम लेना आता है। आलाकमान को लगा कि तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना जाना है तो इस जोखिम भरे फैसले के बाद एक बार भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। किसी तरह के दबाव में नहीं आया। जाहिर सी बात है पार्टी ने यह फैसला जमीनी रिपोर्ट के बाद ही किया था और पता था कि यहां नरेंद्र मोदी के चेहरे के ब्रह्मास्त्र के अलावा कुछ और नहीं चल सकता है। पार्टी कमल के निशान के जोखिम के साथ गई और अपने लिए विपरीत हालात के कीचड़ में सत्ता का कमल खिलाया।
अशोक गहलोत की तुलना में सचिन पायलट की काबिलियत जगजाहिर थी, लेकिन गहलोत के थके हुए चेहरे के सामने सचिन पायलट जैसा ऊर्जावान चेहरा रखने जैसा आसान जोखिम उठाने को तैयार नहीं हुई। यह जानने के बाद भी कि कमलनाथ जनता के बीच खारिज चेहरा हैं, कांग्रेस आलाकमान उन्हें हटाने का जोखिम नहीं ले सका।
सिंधिया पहले ही उसे इस कमजोरी की सजा दे चुके हैं। जनता की याद में अगर था भी कि भाजपा ने सत्ता कांग्रेस से कैसे हड़पी थी तो कमलनाथ के चेहरे के साथ ही सारी सहानुभूति खत्म हो गई। राजस्थान की तुलना में मध्यप्रदेश में भाजपा की अविश्वसनीय जीत के पीछे जनता के बीच कमलनाथ के चेहरे की अविश्वसनीयता है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस से ज्यादा कमलनाथ के अहंकार की हार है।
जोखिम के बाद जो दूसरा सबक है, वह है अनुशासन का। भाजपा में खींचतान टिकट बंटवारे तक होती है। यह स्वाभाविक है कि सभी अपनी दावेदारी पेश करेंगे। लेकिन, एक बार टिकट बंट जाने के बाद सब अपनी तय जिम्मेदारी को पूरा करने में जुट जाते हैं। चार बार के मुख्यमंत्री को बाद की सूची में टिकट मिला, उन्हें चुनाव का चेहरा नहीं बनाया गया, पर वे अपनी जिम्मेदारी को निभाते चले गए।
केंद्रीय मंत्रियों को विधानसभा क्षेत्रों में तैनात कर दिया गया और वे दिल्ली दरबार को भूल कर स्थानीय कार्यकर्ताओं की तरह काम करने लगे। जो केंद्रीय मंत्रिपद पर थे वे तो आम कार्यकर्ता की तरह काम कर रहे थे लेकिन जिन्हें सिर्फ ‘सत्ता विरोधी माहौल’ के जरिए सत्ता मिलने की खुशफहमी थी वे जनता के बीच जाने के बजाए किस-किस को भावी मंत्रिपद के रेस से बाहर कर दिया जाए के हसीन सपने में व्यस्त थे।
बात आती है परिवारवाद की। यह सच है कि भाजपा में भी नेताओं की संतानें राजनीति में आती हैं। लेकिन उन्हें उनकी क्षमता के हिसाब से ही जगह और महत्त्व दिया जाता है। किसी विरासती चेहरे के लिए पार्टी की रणनीति और भविष्य से समझौता नहीं किया जाता है। राजनेता की चुनावी सीट संतान का कुदरती अधिकार नहीं है। चुनावी सीट को जन्मसिद्ध अधिकार समझने के कारण ही हरियाणा कांग्रेस का बुरा हाल हुआ, जहां पिता अपनी संतान के फायदे के लिए पार्टी को बड़े से बड़ा नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार रहता था।
कांग्रेस को देश की सबसे पुरानी पार्टी ‘वयोवृद्ध’ के संदर्भ में नहीं कहा जाता है। उम्मीद की जाती है कि आजाद देश की उम्र से भी पहले की इस पार्टी को देश को, हालात को समझने का तजुर्बा ज्यादा होगा। अफसोस कांग्रेस ने इतने अहम चुनाव में नातजुर्बेकार पार्टी की तरह व्यवहार किया। उसकी जो जमीनी हालत थी उसे भूल कर कर्नाटक के नतीजों के बाद सत्ता के आसमान को देखने लगी और ‘इंडिया’ गठबंधन को दरकिनार किया।
कर्नाटक के बाद कांग्रेस का अहंकार ऐसा चरम पर पहुंचा कि जुबान पर ‘अखिलेश-वखिलेश’ वाली भाषा आ गई। चुनावी रिपोर्ट बताती हैं कि हिंदी हृदयप्रदेश में उसने अन्य दलों के साथ व्यावहारिक गठबंधन की तरह चुनाव लड़ा होता तो हालात कुछ और होते। चुनावों के बाद चाहे उमर अबदुल्ला हो, या संजय राउत सबके बयान बताते हैं कि कांग्रेस के इस अहंकार से कितने आहत हैं। हार का समाचार मिलते ही खड़गे ने ‘इंडिया’ की बैठक का न्योता भेजा। जाहिर सी बात है कि कांग्रेस को लेकर पहले से ही सतर्क क्षेत्रीय दल उसके साथ और असहज होंगे। कांग्रेस की इस गलती का खमियाजा पूरे ‘इंडिया’ गठबंधन को उठाना पड़ेगा।
कांग्रेस अभी विकल्प का ऐसा चेहरा नहीं बनी है कि उसे भाजपा के खिलाफ गया एकमुश्त वोट मिले। पहली बात तो यह है कि भाजपा के खिलाफ जितना भी माहौल बिगड़ता है वह उसे लेकर सतर्क हो जाती है। दूसरी बात यह कि भाजपा के खिलाफ वोट पूरी तरह बिखरा हुआ है। खास कर हिंदी पट्टी में इसे सबके साथ ही साधा जा सकता था।
लेकिन, कांग्रेस ने जोश में आकर होश खो दिया। भाजपा से यह भी सीख ले कि वह किस तरह उन दलों से गठबंधन करने के लिए भी राजी हो जाती है जिससे उसका राजनीतिक मिजाज बिलकुल नहीं मिलता। अगर किसी के साथ गठबंधन से उसे एक सीट का भी फायदा मिलता है तो वह उसे कमतर नहीं समझती।
तमिलनाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस दूसरी शक्ति बनने की काबिलियत खोने के बाद दुबारा सशक्त नहीं हो पाई। परेशानी यह है कि जिन चुनिंदा राज्यों में वह सत्ता में है उसे दुबारा नहीं जीत पाने की परिपाटी भी बना रही है।आज हाल यह है कि ‘इंडिया’ गठबंधन कांग्रेस की हार से राहत की सांस ले रहा है, और कह रहा-आइए आपकी हार का इंतजार था।
बिना मजबूत राजनीतिक हृदय के हिंदी हृदयप्रदेश में उतरने के बुरे नतीजे के बाद कांग्रेस के पास आजादी के पहले वाला ही संदेश बचा है-करो या मरो। देखते हैं अब पार्टी की पसंद क्या होगी? जोखिम लेकर जिंदा रहने के लिए करना या आराम पसंद लोगों के लिए मरना। वोट फीसद बता रहे हैं कि कांग्रेस की सांस लेने के लिए पर्याप्त आक्सीजन है बशर्ते वह जीने के लिए जद्दोजहद करे।