उसका असली नाम मजनू नहीं था। कायस-इब्न-अल-मुलाव्वाह यानी कैस को यह नाम दिया उस वक्त के समाज और राजनीति ने। आखिर कोई किसी से कैसे ऐसा सच्चा प्रेम कर सकता है, जैसा कैस ने लैला से किया। नाम में बहुत कुछ रखा होता है। हर नाम का अपना एक सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक संदेश होता है। एक समय ऐसा था जब हिंदी पट्टी के हर चौथे-पांचवें घर में किसी का प्यार की पुकार वाला नाम पप्पू होता था। पर आज की हिंदी पट्टी ‘पप्पू’ को लेकर इतनी क्रूर है कि शायद ही अब किसी बच्चे को प्यार से यह नाम दिया जाए। राजनीति ने सोचा कि जब जनता शहर, गांव, सड़कों के ही नाम बदल कर खुश है, तो क्यों न आज के वक्त में हर तरह की सत्ता व राजनेताओं के लिए सबसे बड़ी चुनौती बेरोजगार का ही नाम बदल दिया जाए। सत्ता ने जनता का इतना भला तो किया कि बेरोजगार को ‘आकांक्षी’ का नाम दे दिया। लैला के लिए बेसुध कैस को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि लोग उसे मजनू बुला रहे हैं। आज राजनीति में कैस जैसी कुर्बानी देने वाले हैं? इसी सवाल का जवाब खोजता बेबाक बोल।
आप इस मुद्दे पर राजनीति कर रहे हैं…
किसी भी सत्ता पक्ष के द्वारा यह सबसे ज्यादा बोला जानेवाला वाक्य बन जाता है। राजनीति से सत्ता में पहुंचे लोगों को राजनीति ही सबसे खराब लगने लगती है। यह तो सत्ता का स्वाभाविक पक्ष है। इन दिनों पूरी दुनिया में लोकतंत्र को लेकर एक नैराश्य का भाव उपजता दिख रहा है। नागरिकों को लग रहा है कि किसी भी तरह की राजनीति के पास उनकी रोजी-रोटी जैसी मुश्किलों का हल नहीं है। सवाल है कि आज राजनीति को लेकर ऐसी निराशा क्यों? हर जगह बनती मजबूत सत्ताओं के बीच ऐसा क्या है जो राजनीति में पूरी तरह खो गया है? यह सिर्फ सत्ता बदलने की मशीनी प्रक्रिया सी क्यों हो गई है? जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा वाले लोकतंत्र की जीवंतता किस वजह से खो गई है?
लोकतंत्र का हाल सच्चे प्रेम जैसा हो गया है। लैला-मजनू हो या रोमियो-जूलियट, दुनिया भर की मशहूर प्रेम कथाओं का अंत दुखांत ही है। कहा जाता है कि सच्चे प्रेमियों की शादी नहीं होती। इसी तर्ज पर कह सकते हैं, सच्चे लोकतंत्र का सपना मुकम्मल नहीं होता। सच्चे लोकतंत्र को समझने के लिए पहले एक सच्चे प्रेम की कहानी कही जाए।
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पंजाब में लैला मजनू की कहानी और इस अमर प्रेमी जोड़ी से जुड़े मुहावरे घर-घर में सुनाए जाते हैं। बहुत सी कहानियों में पंजाब की खुशमिजाजी का तड़का भी हावी हो जाता है। एक दुखांत वाली कहानी पंजाब की ऐसी ही खुशमिजाजी के तड़के के साथ कुछ यूं-
शाह की बेटी लैला को कायस-इब्न-अल-मुलाव्वाह (कैस) ने मदरसे में देखा। पहली ही नजर में कैस लैला का ऐसा दीवाना हुआ कि उसके बाद उसे कुछ होश नहीं रहा। लैला ने भी उसका प्यार कबूल किया। मदरसे के उस्ताद को यह बात नागवार गुजरी। कहा जाता है कि उस्ताद जब कैस की हथेलियों पर बेंत से मारते तो घाव के निशान लैला की हथेलियों पर उभर जाते। कैस की दीवानगी के कारण लोग उसे मजनू (विक्षिप्त) कहने लगे। मजनू के लिए लैला के अलावा कोई भी दुनियावी चीज मायने नहीं रखती थी। शाह को जब दोनों के प्यार की खबर मिली तो उसने अपनी बेटी लैला को घर में नजरबंद करवा दिया।
कैस को सभी ने समझाया कि लैला उसकी पहुंच से दूर है और वह उसे भूल जाए। अगर कैस इस तरह की दुनियावी बात समझ ही जाता तो भला मजनू क्यों बनता? वह बस शाह के महल के बाहर बैठ कर उस खिड़की की तरफ देखता रहता जो लैला का कमरा था। किसी राहगीर ने उसकी हालत देख कर उसे एक चादर ओढ़ा दी। राहगीर जिस तरह से मजनू के चेहरे को चादर से ढक कर चला गया, मजनू उसी अवस्था में बुत की तरह बैठा रहा।
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लैला को जब मजनू की इस हालत की खबर हुई तो उसने अपनी सेविका को उसके पास भेजा। सेविका खाने का थाल और दूध का गिलास लेकर मजनू के पास पहुंची। उसने मजनू के सामने थाल रख दिया लेकिन मजनू ने पकवानों की तरफ नजर भर कर देखा भी नहीं।
सेविका ने जाकर लैला को बताया कि मजनू ने कुछ भी नहीं खाया-पीया। वह बस लैला-लैला की रट लगाए रहता है। इसके बावजूद लैला अपनी सेविका को दूध का एक गिलास लेकर मजनू के पास रोज भेजती। सेविका लैला को बताती कि मजनू ने एक दिन भी दूध नहीं पिया।
एक व्यक्ति रोज मजनू और सेविका के बीच की यह गतिविधि देख रहा था। उसे चालाकी सूझी। उसने सुध-बुध खोए मजनू को वहां से उठाकर दूर बिठा दिया और खुद मजनू की जगह पर चादर ओढ़ कर बैठ गया। सेविका दूध का गिलास लेकर आई तो उस व्यक्ति ने चादर से मुंह ढके ही दूध का गिलास पी लिया। सेविका को यह देख कर थोड़ा आश्चर्य हुआ पर उसने सोचा कि आखिर कोई इश्क में कब तक भूखा-पैसा रह सकता है। अब सेविका रोजाना दूध लाती और वह व्यक्ति पी लेता।
एक दिन लैला ने सेविका से मजनू का हाल पूछा। सेविका ने बताया कि मजनू रोज आराम से दूध पी लेता है। यह सुनते ही लैला चौंकी। कुछ सोच कर उसने सेविका को कहा कि कल तुम खाली गिलास लेकर जाना और मजनू से कहना कि लैला ने तुम्हारा एक गिलास खून मांगा है। सेविका ने आश्चर्य से पूछा कि अपने आशिक के साथ ऐसा कौन करता है। लैला ने सख्ती से सेविका से कहा कि जैसा कहा है वैसा करे। दूसरे दिन सेविका खाली गिलास लेकर गई। उस व्यक्ति ने दूध वाले गिलास के लिए हाथ बढ़ाया तो दासी ने कहा कि आज दूध नहीं है। लैला ने कहा है कि तुम उसके लिए एक गिलास खून दे दो। यह सुनते ही वह व्यक्ति बुरी तरह घबरा गया और तपाक से दूसरी दिशा की तरफ इशारा किया जिधर मजनू बैठा था। उसने दासी से कहा, ‘खूनवाला तो उधर बैठा है।’
राजनीति की त्रासदी भी लैला-मजनू की कहानी की तरह
आज की राजनीति की त्रासदी भी लैला-मजनू की कहानी की तरह है। आज की राजनीति में कोई खून देने वाला नहीं बचा है। राजनीति में वैसे लोग बचे हैं जो मजनू की तरह इश्क करने का दावा कर चादर ओढ़ कर लैला के यहां से आया दूध पी रहे हैं। जब कुर्बानीकी बात आती है तो सभी दूर कहीं इशारा कर देते हैं…खूनवाला तो वहां बैठा है।
देश में लंबे समय से एक परिपाटी चली आ रही है। हर तरह की महंगाई को न्यायोचित ठहराया जा रहा है। हर जगह उपदेश दिए जा रहे हैं, अगर आपको पैसा कमाना है तो फलां क्षेत्र में न आएं…। जनता से सेवा और समर्पण मांगते नेताओं को अपने लिए सिर्फ सुविधाओं का मेवा चाहिए। जनता की तनख्वाह और सामाजिक सुरक्षाओं पर बात नहीं करने वाली राजनीति में सांसदों की तनख्वाह और भत्ते बढ़ा दिए जाते हैं। इसे लेकर पक्ष और विपक्ष में अघोषित एका सी है।
खून देनेवाला तो उसी वक्त राजनीति में दुर्लभ सा दिखा था जब जनता के लिए रोजगार की मांग पर पकौड़े तलने को रोजगार कहा गया। रोजगार के सवाल पर एक से एक विद्रूप बयानों के बीच पिछले दिनों आई एक रपट ने आगाह कर दिया कि भारत में सबसे ज्यादा आत्महत्या करने वाले किसान नहीं रह गए हैंं। भारत में छात्रों की आत्महत्या के आंकड़े किसानों से ज्यादा है। इसका मतलब यह नहीं कि किसानों की खुदकुशी खत्म हो गई है। वहीं छात्रों की खुदकुशी की बढ़ती दर की बात सुन कर जब जनता अपनी संतानों की तरफ देख कर उनके भविष्य का सोच कर सिहर रही थी तभी एक बेदर्द सत्ता बेरोजगारों का नाम बदलकर ‘आकांक्षी’ कर देती है।
अब तक जो जनता शहर और सड़क का नाम बदल कर कथित बदलाव के सामूहिक नृत्य में शामिल थी उसने सोचा नहीं था कि बहुत जल्द बेरोजगार का नाम भी बदल दिया जाएगा।
राजनीति दावा कर रही है कि दोहरे, तिहरे इंजन की सरकार बनाओ, सत्ता समर्थक आह्वान कर रहे, एक हिंदू राष्ट्र बनाओ। दिल्ली की मुख्यमंत्री कहती हैं कि सिर्फ दिल्ली की आधिकारिक निवासी महिलाओं को ही दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बसों में मुफ्त यात्रा का अधिकार मिलेगा। इसके पहले डीटीसी की बसों में मुफ्त यात्रा करने के लिए किसी का सिर्फ स्त्री होना काफी था।
दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा तीनों जगह ही भाजपा की सरकारें हैं। इन तीनों राज्यों में एनसीआर का वृत्त बनता है। जनता तो एक हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए बेरोजगार को ‘आकांक्षी’ के रूप में स्वीकार कर लेगी लेकिन दिल्ली की सत्ता भाजपा शासित उत्तर प्रदेश और हरियाणा की महिलाओं को आराम से अलग-थलग कर देती है। सबसे अहम, केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार है। इसके बावजूद अगर जनता को किसी तरह का फायदा मिल सकने की सूरत बनती है तो सत्ता उसे किसी भी तरह से ‘एक’ नहीं होने दे सकती है। अब तो एक ही डर, किसी दिन जनता का ही नाम बदल कर मजनू न कर दिया जाए।