जब मशीन मुकाबिल हो तो कागज निकालो…कुछ ऐसा ही विरोध दर्ज कराया महाराष्ट्र के गांव मारकडवाडी की जनता ने। ईवीएम पर सवाल उठते ही मतपत्रों के दौर के बूथ की लूट का डर दिखाया जाता है। मगर उस कागजी मतदान के दौर के एक खास हिस्से को भुला दिया जाता है। वह हिस्सा टीएन शेषन के नाम रहा। चुनावों में धन और बाहुबल का दुरुपयोग भारतीय लोकतंत्र का शुरुआती दर्द रहा है। नियामक संस्था निष्पक्ष नहीं होगी तो कागज हो या मशीन किसी के भी दुरुपयोग की आशंका हो सकती है।
कागज के दौर में लोकतंत्र की चुनौतियां
कागज के दौर में लोकतंत्र पर उठे सवालों को खारिज नहीं किया गया था और टीएन शेषन ने विश्वसनीयता बहाली की शुरुआत की थी। चुनाव आयोग अगर राजनीतिक दलों से निष्पक्ष और सिर्फ संविधान व जनता के प्रति जिम्मेदार हो तो कागज या मशीन किसी भी माध्यम से कोई दिक्कत नहीं होगी। मारकडवाडी में कागज से पुनर्मतदान रुकवा दिया गया लेकिन लोग हाथ उठा कर ही पुनर्मतदान कर लें तो? मारकडवाडी से निकली जनता के विरोध की चिनगारी की आंच महसूस करता बेबाक बोल।
मारकडवाडी में पुनर्मतदान का विरोध
नता को जिस दिन लगेगा कि उसने जिसे वोट दिया उस तक नहीं पहुंचा उसी दिन एक नया आंदोलन शुरू हो जाएगा…
पिछले हफ्ते ‘बेबाक बोल’ में यह लिखते वक्त अंदाजा नहीं था कि ऐसे किसी आंदोलन की बुनियाद महाराष्ट्र के मालशिरस विधानसभा क्षेत्र के मारकडवाडी गांव के ग्रामीणों का एक समूह रख देगा। ग्रामीणों ने आशंका जताई कि वहां जीते हुए प्रतिनिधि को इस सीट से इतने कम वोट नहीं मिल सकते हैं। ग्रामीणों ने तय किया कि वहां कागज मतपत्र से पुनर्मतदान कराया जाए।
जनता के असंतोष की चिनगारी
पुनर्मतदान की प्रक्रिया को पुलिस प्रशासन ने कानूनी कार्रवाई करने की चेतावनी देकर रुकवा दी। प्रशासन ने ग्रामीणों को चेतावनी दे दी कि अगर एक भी वोट डाला गया तो मुकदमा दर्ज कर लिया जाएगा। ग्रामीणों की यह मुहिम तो रुक गई लेकिन क्या उनके असंतोष की इस चिनगारी की आंच हमारी संस्थाओं तक पहुंच पाई? यह चिनगारी दिल्ली से दूर एक गांव से उठी। ग्रामीणों ने पूरा आंकड़ा निकाल लिया कि मतदान के दिन कौन गांव में था, किसने मतदान किया। पुनर्मतदान रुकने के बाद भी ग्रामीणों का कहना है कि वे इस मुद्दे पर अपना विरोध दर्ज कराते रहेंगे।
लोकतंत्र में विश्वास की अहमियत
लोकतंत्र में सबसे अहम है विश्वास। इस विश्वास के शीर्ष पर है न्यायपालिका। भारत में सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालत तक। इसके बाहर कुछ समय बिताइए। पहली नजर में आपको एक कमजोर, निरीह सा आदमी दिखेगा जो सालों से फाइल का गट्ठा लेकर आ रहा है। कुछ ही देर में आपको वही आदमी बाहुबलि दिखेगा जो अदालत के भरोसे अपने खेत बेच कर किसी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना सब कुछ दांव पर लगा चुका है। उसके बाहु में उसी न्याय का बल है जिस पर उसे भरोसा है।
राम मंदिर-मस्जिद विवाद का न्यायिक निपटारा
भारत में सबसे लंबे चले मुकदमों से एक है राम मंदिर जन्मभूमि बाबरी मस्जिद का मामला। इस मसले ने हिंदुस्तान में सियासत का रुख बदल दिया। जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद पर अपना फैसला सुना दिया जनता के हर तबके ने इस फैसले को कबूल कर लिया। हर तबका एक खास राजनीतिक दल भर भरोसा नहीं कर सकता लेकिन हर तबका उस सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा करता है जो सबके लिए एक होने का भरोसा दिलाता है।
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लोकतंत्र में जनता के भरोसे को आधार देने वाली ऐसी ही संस्था है चुनाव आयोग। एक समय था जब कागज से मतदान होते थे। उस वक्त भी बूथ लूट से विश्वसनीयता का संकट आया था। जनता को लगने लगा था कि उसका वोट लूट लिया जाता था। यह आरोप सच साबित होता भी रहा था। कहीं ‘बैलट बाक्स’ पानी में फेंक दिए जाते थे तो कहीं पूरे मतदान केंद्र पर कब्जा कर लिया जाता था। बूथ लूट पूरी राजनीतिक व्यवस्था की विश्वसनीयता पर संकट था। उस वक्त इस संकट के सवाल को खारिज नहीं किया गया। उसके लिए एक समाधान निकला। वह समाधान थे संस्था के अगुआ टीएन शेषन। भारत की चुनावी व्यवस्था में टीएन शेषन एक मिथक बन चुके हैं। राजनीतिक दल उन्हें दुश्मन की तरह तो जनता अपने भरोसे की तरह देखने लगी। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन का झुकाव किसी ओर था तो वह जनता और संविधान की तरफ। संस्थान निष्पक्ष दिखा तो लोगों का कागज पर भी भरोसा लौटने लगा।
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पिछले सालों में चुनाव आयोग में चयन प्रक्रिया को ही विवादास्पद बना दिया गया जो मामला अभी तक अदालत में विचाराधीन है। मुख्य चुनाव आयुक्त पर पीसा की मीनार की तरह सत्ता की तरफ झुके रहने का आरोप लगा और धीरे-धीरे यह आरोप बढ़ता ही गया। श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ की तर्ज पर व्यंग्य से कहें तो शायद वे फिलाडेल्फिया में पैदा हुए थे इसलिए भारत की गर्मी का अहसास नहीं था। भयंकर गर्मी में मतदान का लंबा चरण देख कर आरोप लगाया गया कि सत्ता पक्ष को लाभ पहुंचाने के लिए है। ऐसे आरोपों पर मुख्य चुनाव आयुक्त मिर्जा गालिब की तरह विपक्ष को ‘बाजीचा-ए-अतफाल’ समझते रहे।
भीषण गर्मी में जनता से लेकर नेताओं तक की जान पर बन आई तो गालिबाना अंदाज में कबूल किया कि हिंदुस्तान की गर्मी का अंदाजा नहीं था और सीख मिल गई। हाल में संपन्न हुए उपचुनावों में भी पहले से व्रत-त्योहारों की तारीख के बारे में मालूमात करना शायद नगर निगम का काम था तो इस मुद्दे को भी उन्होंने विपक्ष और जनता के पास सत्ता पक्ष के लिए फायदा पहुंचाने की आशंका मजबूत करने के लिए छोड़ दिया। लोकतंत्र की साख पर हर सवाल के बाद विपक्ष को गैरजरूरी साबित करने की कोशिश सी ही दिखी।
लोकतंत्र पर विश्वसनीयता का यह सवाल चुनाव आयोग की दीवार से टकराया। अफसोस इस बार वहां से कोई टीएन शेषन नहीं निकला। वहां से ऐसी आशंकाएं निकलीं कि आयोग जनता नहीं सत्ता पक्ष के प्रति विश्वसनीय बना रहना चाहता है। आयोग की विश्वसनीयता खंडित होने पर तकनीक पर सवाल उठना लाजिम था। आज जो बहुत से लोग ईवीएम पर कई आशंका जता रहे हैं कि उसे नियंत्रित किया जा सकता है वे भी मानते हैं कि टीएन शेषन के आने के बाद चुनावों में निष्पक्षता दिखी थी। कागज हो या मशीन उसकी निष्पक्षता उस संस्था से है जिसे चुनाव आयोग कहा जाता है।
ईवीएम पर पहला तर्क यही है कि जो दल सत्ता में नहीं होता वह इस पर सवाल उठाता है। ईवीएम पर शक की जननी भाजपा है। इसके खिलाफ उसके वरिष्ठ नेताओं के बयान दर्ज हैं। भाजपा के जीवीएल नरसिम्हा राव ने इसके खिलाफ जो किताब लिखी उसकी प्रतियां आज भी मौजूद हैं। अब ईवीएम के खिलाफ कांग्रेस की आवाज बुलंद है जो भारत में इसकी पितृपक्ष है। ईवीएम पर इस विरोधाभास का कोई तो हल निकालना ही होगा।
इन आशंकाओं का मारकडवाडी ने जो हल निकालने की कोशिश की उसे महज एक घटना मान कर नजरअंदाज करना सत्ता, आयोग और विपक्ष तीनों के लिए खतरनाक होगा। सत्ता व संस्था को ईमानदार तो दिखना ही होगा। सरकार के पास यह मौका था भी ईमानदार दिखने का। होने दिया जाता जनता का यह ‘पुनर्मतदान’। चुनावी बूथों के बाहर उन निजी एजंसी के कारिंदे भी तो खड़े रह ‘निकासी मतदान’ करवाते हैं जो टीवी चैनलों पर महंगी फीस लेकर मतगणना के पहले सरकार बनवाते हैं।
जब निजी एजंसियों द्वारा निकासी मतदान, टीवी पर उसके विश्लेषण से कोई परेशानी नहीं है तो फिर जनता को भी कर लेने देते। शायद इस एक प्रक्रिया से मशीन पर लगा शक का धब्बा ही धुल जाता। मारकडवाडी मुहर होती ईवीएम की निष्पक्षता पर और उसके बाद जनता से खारिज होने वालों के लिए ईवीएम ठीकरा फोड़ो मशीन नहीं रह जाती।
मारकडवाडी में जनता का मतदान प्रशासन ने रुकवा दिया तो इसका यह मतलब नहीं कि आगे ईवीएम को लेकर उठे सभी सवाल रोक दिए जाएंगे। आशंकाओं के सवाल फिर उठेंगे क्योंकि अभी तक निष्पक्षता का माहौल बना नहीं है। इसे लेकर एक तरीका और आजमाया जा सकता है। अगले तीन महीने में दिल्ली विधानसभा के चुनाव होने हैं। पहले तीन नंबर के राजनीतिक दल अपनी-अपनी विधानसभा से दस-दस ऐसे बूथ चुन लें जहां समांतर रूप से कागज-मतपत्र से चुनाव हो। इस प्रक्रिया में अगर कागज और मशीन बराबर आंकड़े देंगे तो विपक्षी दलों के पास जनता के बीच जाकर राजनीतिक श्रम करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचेगा। चुनाव प्रक्रिया पर बार-बार उठ रहे सवाल रुकेंगे और लोकतंत्र की शुचिता बनी रहेगी।
पिछले दिनों कानून की देवी की आंखों की पट्टी खोल दी गई। माना गया कि कानून की देवी को आंखें बंद कर नहीं आंखें खोल कर सबको बराबरी से देखना होगा। इस पट्टी को प्रतीक के रूप में खोला गया कि न्याय प्रक्रिया पर जनता का भरोसा बना रहे। ईवीएम पर इतने सवाल उठ गए हैं कि अब आयोग को चुप्पी की पट्टी खोल देनी चाहिए। टीएन शेषन जैसा निष्पक्ष सा दिखता अगुआ दुबारा नहीं मिल सकता तो फिर मारकडवाडी माडल की मांग जोर पकड़ती जाएगी।