लोकसभा चुनाव 2024 का हासिल है ‘एक देश, दो चुनाव’ यानी भारतीय लोकतंत्र के लिए जनता ने मजबूत विपक्ष को भी चुन लिया। चुनाव प्रचार में भाजपा की ‘मजबूत सरकार’ ने गठबंधन सरकार का खूब भय दिखाया, लेकिन उसके अतिवाद से भयभीत जनता ने राजग को बहुमत दिया। मन की बात करने वालों को मन की बात सुनने की मजबूरी के बंधन में डाल दिया। भाजपा सरकार ने अपने अति आत्मविश्वास में आकर जब अबकी बार चार सौ पार का शोर मचाया, तभी जनता ने तय कर लिया कि इसे नारा-ए-नाकाम बनाना है। भाजपा सरकार अति का पर्याय बन गई और वह जनता को यह समझाने में नाकाम रही कि उसने चार सौ पार की बात आरक्षण और संविधान को खत्म करने के लिए नहीं बोली थी। लोकतंत्र के तकाजे में विपक्ष का सम्मान होता है, लेकिन पिछले दस सालों में सरकार से लेकर उससे जुड़े जनसंचार ने जिस तरह विपक्ष को खारिज करने की अति की उससे नाराज जनता ने 2024 में विपक्षोदय ला दिया। अति का नकार और मजबूत विपक्ष के साथ राजग सरकार पर बेबाक बोल।

प्रकृति के बारे में कहा जाता है कि वह संतुलन बनाना जानती है। कृत्रिमता अपनी कितनी भी शक्ति थोप दे, प्रकृति की एक करवट उसे संतुलित कर जाती है। यही बात लोकतंत्र के साथ भी है। लोकतंत्र शासन के प्राकृतिक सिद्धांत को ही मानता है-संतुलन, सबकी भागीदारी। लोकतंत्र भी प्रकृति की तरह सहनशील होता है। थोड़ा ठहर कर, सब्र कर देखता है कि आप क्या लेकर आए थे, आप क्या देकर जा रहे हैं। 2024 के लोकसभा चुनाव में लोकतंत्र ने संतुलन बिठाने की अपनी प्राकृतिक भूमिका के तहत उस अति का अंत कर दिया जो राजनीति के पर्यावरण पर संकट सी दिख रही थी।

अति आत्मविश्वास

राजनीति में सत्ता परिवर्तन के वक्त किसी एक नायक के चेहरे का उभरना स्वाभाविक होता है। लेकिन, सत्ता हासिल करने के बाद भी एकमात्र चेहरे को ही केंद्र में रखा गया। उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक की राजनीति एक चेहरे पर सिमट गई। जब चेहरे का जादू ऊपर की ओर चढ़ रहा था तब इस बात की फिक्र नहीं की जा रही थी कि जादू जिस सीढ़ी से ऊपर की ओर चढ़ता है, उसी सीढ़ी से नीचे भी उतरता है। और, जादू उतरते वक्त तो दर्शक मैदान खाली कर जा चुके होते हैं।

इस अति आत्मविश्वास का पहला नजारा 2016 में हुआ जब देश के प्रधानमंत्री ने शाम आठ बजे टीवी चैनल पर आकर देश की 86 फीसद मुद्रा को चलन से बाहर कर दिया। आर्थिक और बैंकिंग विशेषज्ञों के किसी तर्क-वितर्क की जगह एक ही वजह बताई गई, काले-धन के खिलाफ जंग। देश में मचे आर्थिक त्राहिमाम के बीच 99 फीसद मुद्रा बैंकों में वापस भी आ गई। सरकार ने इतने बड़े आर्थिक फैसले को ऐसे भुला दिया जैसे यह किसी कांग्रेस या नेहरू की सरकार ने किया हो।

इतना बड़ा फैसला लेकर उसे इस आत्मविश्वास में भुला दिया कि जनता की याददाश्त छोटी होती है। इस आत्मविश्वास में यह भुला बैठे कि कोई झटका लगने के बाद भूली-बिसरी बात याद भी आ जाती है। 2024 तक आपके ऐेसे अति आत्मविश्वासी फैसलों की बाढ़ आ चुकी थी, जिसका मर्म यही था कि हम कुछ भी कर दें, जनता हमारे जादू के साथ चलेगी।

‘अग्निवीर’ कुछ ऐसा ही फैसला था। आज जब कोई घर इस चिंता में डूबा है कि उसका जवान बेटा चार साल में सेवानिवृत्त हो जाएगा तो उसे नोटबंदी से लेकर तालाबंदी तक का गुस्सा याद आ जाता है। आपको अति आत्मविश्वास था कि महज राष्ट्रवाद के नाम पर वह हिस्सा ‘अग्निवीर’ को कबूल लेगा जिसके लिए सेना की नौकरी एक गौरवमयी जिंदगी जीने का एकमात्र अवसर होता था। हमारे देश में किसान और जवान के बीच के ‘राष्ट्रवादी’ संबंध को नहीं समझने का खमियाजा है उत्तर प्रदेश का जनादेश।

अति का भला न बोलना

अपने पूर्ववर्ती को ‘मौन’ के नाम पर खारिज कर आप इतने मुखर हुए कि शब्द अपनी उपयोगिता खोने लगे। सरकार जब सामूहिक रूप से बोलती है तो उसमें विविधता आती है। लेकिन, पिछले सालों में प्रधानमंत्री व कैबिनेट के दो-तीन शीर्ष चेहरों को छोड़ कर किसी अन्य मंत्री का नाम याद करने के लिए देश की जनता को ‘गूगल’ का सहारा लेना पड़ता था। इसके बावजूद उनसे जुड़ी खबरें नहीं मिल पाती थीं क्योंकि उन्हें बोलने का अवसर नहीं मिलता था। आपने जनसंचार माध्यम की उपयोगिता समझते हुए ‘मन की बात’ जैसा शानदार कार्यक्रम शुरू किया। लेकिन, बाकी हर कोई अपनी बात मन में ही रखने लगा, क्योंकि अन्य के लिए कोई मंच नहीं रहने दिया गया।

राजनीति में जुमलों की अपनी एक जगह होती है, लेकिन जब सिर्फ जुमलों की ही राजनीति होने लगे तो लोग उस ‘गारंटी’ शब्द से भी चिढ़ने लग जाते हैं जिससे कभी प्रेशर कुकर, पंखा खरीदते वक्त देख कर खुश होते थे। चुनावों के वक्त आपके साक्षात्कारों की संख्या का कीर्तिमान कायम हुआ। लेकिन जब हर जगह सिर्फ आप ही से ‘साक्षात्कार’ हो रहा था और लेने वाले भी कह रहे थे कि हमारे साथ तीन बार, हमारे साथ चार बार तो हमारे साथ तो हर बार, इससे जनता को लगा यहां भी अति हो रही है। जनसंचार माध्यमों ने खास रणनीति के तहत विपक्ष को खारिज किया तो जनता ने संतुलन बिठाते हुए विपक्ष को कहा, आइए अब आप भी बोलिए।

अति की भली न चुप

पिछले दस सालों में ऐसे कई मौके आए जब उन मुद्दों पर लंबी चुप्पी बरती गई जिस पर देश के लोग सवालों से युद्धरत थे। फिर चाहे वह किसान आंदोलन का मामला हो, महिला पहलवान का मामला हो या मणिपुर का लंबे समय तक जलना। त्राहिमाम मणिपुर पर इतनी देर से बोला गया कि मजबूत सरकार के उन कमजोर शब्दों का कोई मतलब नहीं रह गया। ऐसे कई मौके आए थे जहां अगर आप चुप रहने के बजाए शगुन के लिए भी थोड़ा बोल देते तो शुचिता की राजनीति को संतोष होता। आपकी चुनिंदा चुप्पी को ध्यान में रख जनता ने सोचा, अपने वोट से ही बोला जाए।

अति विभाजनकारी

2024 के लोकसभा चुनाव की मतदान प्रक्रिया 44 दिन लंबी चली और चुनाव आयोग के सामान्य ज्ञान में इजाफा हुआ कि मई-जून में इतनी गर्मी पड़ती है। चुनाव आयोग पर फिर कभी बात, लेकिन मतदान की प्रक्रिया इतनी लंबी नहीं चलती तो आपकी भाषा इतनी विभाजनकारी नहीं होती। हर चरण के बाद आपकी आक्रामकता बढ़ती गई। मंगलसूत्र से लेकर एक भैंस खोल कर ले जाएंगे तक…एक बार कहना कि अगर मैंने यह किया है तो सार्वजनिक जीवन छोड़ दूंगा और फिर दूसरे ही दिन भाषण में एक खास कौम को लेकर भय पैदा करवाना। रोजी और रोजगार की बात सुनने को तरस रही जनता को भला उस कौम से क्या भय होता जिसके पास उनकी तरह ही खोने के लिए कुछ नहीं है। विभाजनकारी भाषण में आप उन बेहतरीन गारंटियों को भूल गए जो आपने पिछले दस साल में दी थीं तो जनता कैसे याद रखती?

अति की भली न अवहेलना

2014 में आपके ऐतिहासिक कदम ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के नारे से शुरू हुए थे। धीरे-धीरे कांग्रेस पूरे विपक्ष का पर्याय बन गई। सरकार और उसके समर्थक जनसंचार विपक्ष की पूरी तरह अवहेलना करने लगे। संसद में एक साथ बड़ी संख्या में सांसदों को निष्कासित करने का इतिहास बना। विपक्ष के हर सवाल को किसी मजाक की तरह खारिज किया जाने लगा। जनसंचार प्रस्तोता विपक्ष के नेताओं का चेहरा देखते ही चीखने चिल्लाने की हद तक पहुंच जाते। अवहेलना जब आपकी नीति बन गई तो विपक्ष के बाद यह अपनों पर आ गई। राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में पितृ पुरुष को सेहत की दुहाई देकर घर में रहने की सलाह से लेकर आमंत्रण पत्र पर की गई राजनीति, शंकराचार्यों की अवहेलना को लेकर उपजे विवाद ने आपके अपनों को ही निराश कर दिया।

जब आपको जमीन पर से अपनों की नाराजगी और मायूसी की खबर मिली तो उनकी शिकायत दूर करने के बजाय कह दिया कि भाजपा अब आत्मनिर्भर हो गई है, उसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जरूरत नहीं है। अहंकार के आसमान पर बैठ कर आपने उस संगठन की अवहेलना की जिसने आपकी जमीन बनाई थी, तो उसी प्रदेश से आपके पैरों के नीचे की जमीन खींच ली गई गई जहां से आप सत्ता के आसमान पर पहुंचे थे।
इस चुनाव में आपने जनता को सबसे ज्यादा डर गठबंधन सरकार का दिखाया था। हुआ इसका उल्टा, जनता आपको अति जनमत देने से ही डर गई। लोकतंत्र और संविधान पर खतरे की बहस के बीच जनता विपक्ष लेकर आई है और आपके लिए प्रत्यक्ष सहयोगी, यानी अब आप अपनी बातें मनवाने के साथ दूसरों की बातों को सुनने और मानने के लिए भी मजबूर होंगे। लोकसभा चुनाव 2024 का हासिल उस अति का अंत है जिसे आपने अपनी पहचान बना ली थी।