जब देश संकट में होता है तो फिजा में गूंजते हैं कर्त्तव्य, जिम्मेदारी, राजधर्म जैसे शब्द। प्रायोगिक तौर पर तो राजनीति और नैतिकता विरोधाभासी शब्द बन चुके हैं फिर भी सत्ता की दीवार पर नैतिकता की एक-दो तस्वीर लगा कर लाज रख ली जाती थी। अब सरकार बनते ही सत्ता कहती है कि धर्म तो विपक्ष और जनता संभाले, राज हम कर लेंगे। आम लोग अपनी उस ‘फेसबुक पोस्ट’ पर एक-एक शब्द सत्ता के द्वारा परिभाषित जिम्मेदारी से लिखें जिसे वह कभी भी मिटा सकता है। लेकिन सत्ता पक्ष के मंत्री कोई भी गैरजिम्मेदाराना बयान दे सकते हैं, यह जानते हुए कि उनका कहा नजीर बन जाती है। फिर विभाजनकारी बयान देने का कीर्तिमान स्थापित होने लगता है। राज कर रहे लोगों का अहंकार से ऐसा सह-संबंध हो चुका है कि बिना राजनीतिक नुकसान के भय के वे किसी भी तरह पीछे हटने को तैयार नहीं होते हैं। मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह पर पार्टी की कार्रवाई को लेकर पूरे देश की नजर है तो सत्ता अदालत की तरफ देखने का इशारा कर देती है। राज हासिल करने के बाद धर्म से परहेज करने की प्रवृत्ति पर बेबाक बोल

सुप्रीम कोर्ट ने हालिया फैसले में कहा कि जज यशवंत वर्मा से जुड़े जले नोटों के मामले में पहले प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के पास जाएं। पिछले दिनों देश के मुख्य न्यायाधीश ने एक मामले में कहा कि हम पर संसद और कार्यपालिका के कार्यक्षेत्रों में अतिक्रमण करने का आरोप लगाया जा रहा है। भाजपा सांसद व पार्टी पक्ष के प्रखर प्रवक्ता निशिकांत दुबे न्यायापालिका पर सवाल उठा रहे थे। यहां तक कि उसे देश के गृह युद्धों के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे थे। सरकार के मंत्रीकिरेण रिजीजू तो विधायिका व न्यायपालिका के अधिकारों पर पूरी मुहिम छेड़ चुके थे।

सरकार के कानून मंत्री नहीं बता रहे हैं कि मंत्री को बर्खास्त करने में बाध्यता क्या है

न्यायपालिका पर विधायिका के तीखे तेवर तब पार्श्व में गए जब पहलगाम में 26 भारतीय नागरिकों की आतंकवादियों ने हत्या कर दी। जब सेना जवाब देने लगी तो पूरा देश उसके पक्ष में खामोश हो गया। हर कोई ‘हम एक हैं’ के सिवा कुछ नहीं बोलना चाह रहा था। तभी मध्य प्रदेश के मंत्री महिला सैन्य अधिकारी पर शर्मनाक बयान दे देते हैं। जब ‘आपरेशन सिंदूर’ के संदर्भ में ‘फेसबुक पोस्ट’ पर राजनीति शास्त्र के शिक्षक से लेकर फैज की नज्म गाने तक पर मामले दर्ज हो रहे हैं तो देश की नजर उठती है उस पार्टी के आलाकमान पर जिसके पास रिजीजू और निशिकांत दुबे जैसे वाक्-योद्धा हैं। जो न्यायपालिका को उसकी सीमा दिखा रहे थे आज अपनी पार्टी को उसकी जिम्मेदारी की सीमा पर कर्त्तव्य की कार्रवाई के लिए प्रेरित नहीं कर पाए। सरकार के कानून मंत्री यह नहीं बता रहे हैं कि मंत्री को बर्खास्त करने में किसी तरह की कानूनी बाध्यता नहीं है आलाकमान, आप कर सकते हैं, आप कीजिए।

सर्वोच्च न्यायालय एक सर्वोच्च प्राधिकार है। हां, सच है कि लोकतांत्रिक तकाजे के तहत सर्वोच्च न्यायालय की सीमा वहीं खत्म होती है जहां से आपकी राजनीतिक पार्टी का ढांचा शुरू होता है। एक राजनीतिक संगठन व सत्ताधारी के तौर पर आपकी जिम्मेदारी है कि जिसे राजधर्म कहते हैं, उसे निभा कर दिखाया जाए। यह देखना तकलीफदेह है कि राज आप करें और धर्म निभाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की तरफ देखने लगें। आप किसी भी तरह की कार्रवाई से किनारा कर लें कि अभी तो मामला अदालत में है।

अधिकारों को लेकर सजग आपके प्रवक्ताओं ने क्या आपको राजनीतिक पार्टी के आलाकमान के रूप में अधिकार याद नहीं दिलाए हैं? क्या आपको यह नहीं बताया है कि सुप्रीम कोर्ट विजय शाह के खिलाफ मामला दर्ज करने का आदेश दे सकता है, विशेष जांच समिति का गठन कर सकता है। मामला दर्ज होकर आगे बढ़ेगा तो हो सकता है कि दोषी साबित होने पर अदालत उन्हें सजा भी दे सकती है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट भाजपा आलाकमान को यह आदेश नहीं दे सकता है कि वह उन्हें पार्टी से निलंबित या निष्कासित कर दे। सुप्रीम कोर्ट मुख्यमंत्री को यह आदेश नहीं दे सकता है कि वह विजय शाह को मंत्रिमंडल से निकाल दे। यह पूरी तरह आपका धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र है।

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यह तो साफ दिख रहा है कि राजधर्म निभाने के लिए न तो मोहन यादव तैयार हैं और न कर्मक्षेत्र में आदर्श स्थापित करने के लिए पार्टी के आलाकमान ही इच्छुक दिख रहे हैं। कार्रवाई तो दूर अभी तक आपकी ओर से विजय शाह की भर्त्सना तक नहीं की गई है। शाह के प्रति कोई कठोर शब्द बोलने के बजाय आप नरम-मुलायम शब्दों में अदालत की ओर देखने के लिए कह रहे हैं। आपकी कार्रवाई और अदालत के फैसले का कोई ताल्लुक नहीं है।

जब पूरा देश सेना के साथ खड़ा था तब विजय शाह ने जिस तरह की विभाजनकारी और विद्वेषी भाषा का इस्तेमाल किया उससे, आपके अपने भी खिलाफ हो गए। जद (एकी) से लेकर चिराग पासवान तक ने कहा कि विजय शाह पर कार्रवाई होनी चाहिए। अब तो ऐसा लगता है कि आपके राजनीतिक शब्दकोष व आचार संहिता में गलत शब्द को ही विलोपित कर दिया गया है। आज के संदर्भ में आपके लिए कुछ भी गलत नहीं है। अगर कुछ है तो उपयोगी व अनुपयोगी का मापदंड। जिसे सब गलत कह रहे होते हैं उसे गलत मानने में आपका अहंकार आड़े आ जाता है।

लाल बहादुर शास्त्री से लेकर आज तक, देश की राजनीति में नैतिकता निर्वहन के हजारों उदाहरण हैं। मुंबई पर आतंकवादी हमले के बाद जब पूरा देश शोक में था तो तीन बार कपड़े बदलने के आरोप में केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटील ने इस्तीफा दिया था। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से लेकर गृह मंत्री तक, यानी शीर्ष स्तर पर तीन इस्तीफे हुए थे। सत्ता की दीवार पर प्रदर्शनी के लिए ही सही, पर नैतिकता के चित्रों की जरूरत महसूस होती थी। अब माना जा रहा है कि आपको सत्ता मिली है तो नैतिकता और जिम्मेदारी विपक्ष के कंधों पर डाल दिए जाएंगे।

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एक आम आदमी की ‘फेसबुक पोस्ट’ में नैतिकता, जिम्मेदारी खोजी जाएगी लेकिन सत्ता पक्ष के कुर्सीधारियों को इससे मुक्त माना जाएगा।
नैतिकता की मांग होते ही आप कभी राष्ट्रवाद तो कभी अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों की आड़ ले लेते हैं। कृषि कानूनों के विरोध में किसान मरते रहे, सड़कों पर बैठे रहे, दिल्ली की सीमा पर लंबे समय तक हाहाकार की स्थिति रही, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सवाल उठे लेकिन आपने कानून वापस नहीं लिया। लेकिन जैसे ही लगा कि वोटों के रूप में आपका राजनीतिक नुकसान होगा तो तेज घुमावदार मोड़ ले लिया।

अजय मिश्रा टेनी, विजय शाह से लेकर जगदीश देवड़ा तक, आप किसी को लेकर भी नैतिक बोझ तब तक नहीं लेना चाहते जब तक ये लोग राजनीतिक रूप से उपयोगी रहते हैं। पहलगाम पर आतंकवादी हमले के बाद आपने जाति जनगणना की घोषणा कर दी तो आपके अति प्रिय हर तरह की नैतिकता से मुक्त बृजभूषण शरण सिंह सवर्णों के लिए अलग देश बन जाने की चेतावनी देने लगे। महिला उत्पीड़न, दलित उत्पीड़न से बचाने वाले कानूनों को खत्म करने की उनकी सलाह तो आप उनकी उपयोगिता देख कर सुन ही रहे हैं। आप इनके खिलाफ चुप रहने का रेकार्ड बनाते हैं और ये बड़बोलेपन में रेकार्ड बनाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट आपको सिर्फ कानून के निर्वहन के लिए ही कह सकता है। देश में अभी भी ऐसे सैकड़ों टिप्पणीकार हैं जो आपसे नैतिकता के निर्वहन की अपील करते हुए कलम की स्याही खत्म कर रहे हैं। जाहिर सी बात है कि इस वर्ग को आप सबसे अनुपयोगी मान चुके हैं इसलिए किसी तरह की तवज्जो नहीं देते हैं।

इस मुद्दे पर पक्ष और विपक्ष का तुलनात्मक अध्ययन भी कर लें। जब मणिशंकर अय्यर ने अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया था तो कांग्रेस को उन्हें पार्टी में किनारे करना पड़ा। उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस को नहीं कहा था कि अय्यर पर कार्रवाई करो। यह अधिकार कांग्रेस आलाकमान के पास था और इस अधिकार का उपयोग किया गया क्योंकि कांग्रेस विपक्ष में थी।

सत्ता के साथ अहंकार का सह-संबंध बन चुका है। जब तक सत्ता को किसी तरह के नुकसान का डर नहीं होता तब तक वह किसी भी तरह की नैतिक कार्रवाई से कोसों दूर रहती है। जब ‘सिंदूर’ जैसा संवेदनशील नाम चुना तो आपको इससे जुड़े हर मामले में संवेदनशीलता दिखानी होगी। इसके पहले आपने अच्छा नारा दिया था, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का। मुश्किल यही कि आपने इसमें भी मेरी बेटी, तेरी बेटी का बंटवारा कर दिया। मैथिली ठाकुर मेरी बेटी तो नेहा सिंह राठौड़ तुम्हारी बेटी। इसी बंटवारे वाली सोच के कारण विजय शाह के मुंह से वह अभद्र बात निकली जो स्त्री और सेना दोनों के सम्मान के खिलाफ जाती है।

राजनीति नवाचार करती रहती है। वह हर जगह अपने लिए दोराहा बना लेती है। एक राह किसी मुद्दे को शामिल करने की और दूसरी राह किसी मुद्दे से भागने की। जब जिस राह पर फायदा दिखता है, उसकी तरफ कदमताल करते हुए आगे बढ़ जाती है। फिलहाल, राजधर्म के इतिहास वाली राजनीति का नया नारा है-राज हमारा धर्म तुम्हारा।