जब सत्ता लोककल्याणकारी होने में नाकाम साबित होती है तो वह अपनी नाकामी के प्रवेश द्वार पर कथित बाबाओं का भव्य आश्रम लगा देती है। ज्यादातर मामलों में कथित बाबाओं का एक चौंकाने वाला ‘इतिहास’ पहले से मौजूद होता है, जिसे सत्ता उपेक्षित करती है। अपने ‘इतिहास’ की उपेक्षा से प्रसन्न कथित बाबा राजनीतिक दलों को बेहतर भविष्य बनाने का आश्वासन देते हैं। बाबाओं के आश्रम की निवेशक वह राजनीति होती है जिनके लिए जनता सिर्फ एक चुनावी वोट बैंक भर है। हाथरस के हादसे के बाद एक बार फिर वह मंजर आया जब 120 से ज्यादा लोगों के मरने के बाद एक सामूहिक राजनीतिक चुप्पी है। बिहार से लेकर पंजाब, हरियाणा से लेकर उत्तर प्रदेश तक कल भी कथित बाबाओं का बाजार सजा था और आगे भी इनको राजनीतिक संरक्षण मिलने की आशंका भरपूर दिख रही है। हरियाणा में हत्या और बलात्कार के दोषी बाबा को इतनी बार ‘पैरोल’ मिल चुकी है कि उन्हें महसूस ही नहीं होता होगा कि वे किस अपराध के अपराधी हैं। राजनीति के संरक्षण में बाबाओं के बाजार पर बेबाक बोल

भीड़, भगदड़…। ये वो शब्द हैं जो किसी हादसे के बाद सत्ता के लिए अपनी व्यवस्था बनाए रखने के हथियार बनते हैं। इन शब्दों का सबसे बड़ा फायदा होता है कि यहां दोषी मरने वाला ही दिखता है। जब समूह में जुटे नागरिक की पहचान एक भीड़ के रूप में कर ली जाए तो वहीं पर नागरिक के प्रशासन से सुरक्षा पाने के अधिकार खत्म हो जाते हैं। इस देश में कई बड़े हादसे हुए हैं। हर हादसे के बाद अदालती दलीलों का लब्लोलुआब यही है कि जहां भी भीड़ जुटती है वहां की सुरक्षा की जिम्मेदारी प्रशासन की है। जब बहुत से नागरिक एक जगह इकट्ठे हो जाएं तो आप उन्हें भीड़ कह कर सुरक्षा पाने के उनके बुनियादी अधिकार से वंचित नहीं कर देंगे। ‘भीड़’ और ‘भगदड़’ दो ऐसे शब्द हैं जिनके जरिए प्रशासन की जिम्मेदारी कम करके पीड़ित नागरिक को ही दोषी करार देना आसान है।

भीड़ और भगदड़ को ही बताया गया मुख्य खलनायक

हाथरस में 120 से ज्यादा मौतों के बाद भीड़ और भगदड़ ही मुख्य खलनायक के रूप में दिखाए गए। हादसे की कानूनी जांच वक्त के साथ क्या नतीजे लाएगी यह तो देखा जाएगा। किसी हादसे के बाद अहम यह भी होता है कि उससे सामाजिक और राजनीतिक विमर्श किस तरह का निकला? सार्वजनिक मंच पर इसे लेकर कैसी बहस चली और इसका अपराधी किसे बताया गया?

सबसे पहले बात सत्ता की। हाथरस के हादसे के बाद खास तरह की सामूहिक राजनीतिक चुप्पी की गूंज को आसानी से समझा जा सकता है। राजनीतिक मैदान में हर बात पर एक-दूसरे पर अंगुली उठाने वाले राजनीतिक दल अंधविश्वास के आश्रम में अपनी-अपनी अंगुलियों को मोड़ एकता की मुट्ठी बना लेते हैं। हरियाणा से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार से लेकर पंजाब तक बाबाओं के बाजार के असली निवेशक यही राजनीतिक दल हैं। नेताओं की कृपा से बाबाओं के कथित आश्रम में जितनी जमीन होती है उसमें बड़े स्टेडियम, स्कूल, अस्पताल कुछ भी बन सकते हैं।

चुनावी मौसम में हर दल के नेता पहुंचते हैं शीश नवाने

आम दिनों में बेशक आपको बाबाओं के आश्रम में महिलाओं की भीड़ नजर आती है, लेकिन चुनावी मौसम में हर राजनीतिक दल के नेता यहां शीश नवाने पहुंचते हैं। जाहिर सी बात है कि आश्रम में दिए राजनीतिक ‘गुप्त दान’ के बारे में बाहरी दुनिया का अज्ञान बरकरार ही रहता है।

जब बाबाओं के आश्रम में ऐसा हादसा होता है तो उस भीड़ को निशाना बना दिया जाता है जो अपने दुख-दर्द के निवारण के लिए वहां पहुंची थी। कुछ दिनों पहले गुजरात के शहर राजकोट में ‘गेमिंग जोन’ के हादसे की जिम्मेदारी नागरिकों पर नहीं थोपी जा सकी थी क्योंकि वहां पर बाबाओं का अंधविश्वास नहीं था। वहां सभी तरह के लोगों का जाना होता है। वहां लोग किसी अंधविश्वास में नहीं पहुंचे थे और भागने-दौड़ने लायक कपड़े भी पहने थे। लेकिन, हादसे से बचने के प्रशासनिक सुरक्षात्मक इंतजाम नहीं होंगे तो आप अपने निजी कपड़ों और जूतों की बदौलत जान नहीं बचा सकते हैं। इसलिए वहां व्यवस्था को दोषी मानने की प्रक्रिया अपनाई गई।

नब्बे के दशक में बाबाओं का घर की बैठकी में सीधे पहुंच बनी

नब्बे के दशक के विख्यात/कुख्यात बाजारकाल ने अपनी चौहद्दी में धर्म को भी रखा। यही वह दौर था जब उपग्रह चैनल आने के बाद टीवी पर चौबीसों घंटे बाबाओं का कथित बाजार अध्यात्म के रूप में घर की बैठकी में मौजूद रहने लगा। हर चैनल का अपना एक कथित बाबा हो गया। बाबाओं के चौबीस गुणे सात के सीधे प्रसारण में ‘आराम’ के तौर पर थोड़ी राजनीतिक व अन्य खबरें भी दिखा दी जाती हैं।

बाजार-काल में धर्म आंतरिक, स्वानुभूति की प्रक्रिया नहीं एक ब्रांड है। बाजार वाला धर्म यानी ब्रांड जब ‘स्व’ का नहीं रहा तो उसकी स्थिति भी नाजुक हो गई। ब्रांड की छवि की हमेशा रक्षा करनी होती है। ब्रांड-छवि की रक्षा में दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे सभी पर दोष मढ़ दिया जाता है लेकिन, केंद्रबिंदु को सवालों से परे रखा जाता है। हाथरस के मामले में भी कथित बाबाओं पर जिस तरह राजनेताओं की ‘कृपा’ बरसी उसे देखते हुए हम समझ सकते हैं कि जनता के कथित अंधविश्वास का मुख्य स्रोत कौन हैं। इसलिए, ऐसे हादसों के बाद सबसे पहले केंद्रबिंदु यानी बाबाओं को सवालों से परे रखने की पूरी कोशिश होती है।

सवालों से परे रखने की कोशिश के बावजूद किसी आम नागरिक की लंबी लड़ाई के बाद कोई बाबा हत्या और बलात्कार जैसे अपराध की सजा काटने भेज भी दिया जाता है तो भी उसकी निवेशक राजनीति उसका पूरा साथ देती हुई दिखती है। हरियाणा में हत्या के अपराधी बाबा को इतनी बार ‘पैरोल’ दी गई है, कि शायद विश्व कीर्तिमान कायम हो गया होगा। धर्म के बाजार में राजनीतिक निवेशक ही हैं जो हत्या और बलात्कार जैसे अपराध में दोषसिद्धी के बाद भी बाबाओं के बाजार का जलवा कम नहीं होने देते।

चाहे राम हो या रहीम, भगवान के नाम पर आज देश के हर कोने में बाबाओं का अपना बाजार है। इसी में हादसों का संदर्भ भी आता है। जब बाजार बड़ा होगा तो दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से हादसा भी बड़ा होगा। जब बड़े आयोजन होंगे तो उसमें लाखों लोगों का आना स्वाभाविक है। हादसे पहले भी हुए हैं और आने वाले समय में भी हो सकते हैं।

यहां सवाल यह है कि हादसों का दोष आप किस पर स्थानांतरित करते हैं? यह दोष व्यवस्था पर जाता है या भीड़ में तब्दील हुए नागरिकों पर। अब यही सवाल है कि व्यवस्था में इन नागरिकों की भागीदारी कितनी है? क्या आपने गांव-गांव में इन नागरिकों को बेहतर स्कूल दिए हैं? हाल ही में उत्तर प्रदेश के स्कूलों में ‘बायोमीट्रिक हाजिरी’ अनिवार्य करने पर वहां के स्कूलों की हालत सामने आई। शिक्षकों का आरोप है कि स्कूल जाने के रास्ते इतने दुर्गम हैं कि जरा सी बारिश के बाद वहां निर्धारित समय पर पहुंचना असंभव सा है। कई स्कूल परिसर और उनकी कक्षाएं बारिश में पूरी तरह डूब जाते हैं। जिन जगहों पर स्कूलों की हालत ऐसी है, वहां आप स्कूल के रास्ते ठीक करने का कठिन काम करने के बजाय नागरिकों को बाबा का आश्रम दिखाने का आसान रास्ता अख्तियार कर लेते हैं।

बाबाओं के आश्रम में मिल रही मुफ्त कथित आयुर्वेदिक दवाओं और आशीर्वाद से अगर कोई ‘भक्त’ यह समझने लगता है कि उसका कैंसर भी ठीक हो गया तो फिर सत्ताधारी बेहतर अस्पताल बनाने की फिक्र क्यों करें?

बाबाओं के आश्रम से लेकर अन्य धार्मिक स्थलों पर जिन भी वजहों से भक्तों की संख्या अधिक होती है, मुख्य मुद्दा यह नहीं है। मुख्य मुद्दा है कि हमारी राजनीति इतनी नागरिक-द्वेषी कैसे हो जाती है कि ऐसे हादसों के बाद वह उस ‘आस्था’ को मजबूत करने में जुट जाती है कि आंसू सूखने के बाद लोग फिर वहीं लौटने के लिए मजबूर होंगे। नागरिकों की मौत का पहला जिम्मेदार उनके ‘अंधविश्वास’ को बता दिया जाता है। जहां प्रथम दृष्टया व्यवस्था और प्रशासन दोषी है, वहां दृष्टि को दशम कोण पर स्थिर कर मासूमियत से पूछा जाता है कि नागरिक इतने अंधविश्वासी कैसे हो गए? प्रगतिशलीता में पीछे कैसे छूट गए?

सत्ता को भरोसा है कि नागरिकों का इस गढ़ी गई व्यवस्था पर इतना दीप्त विश्वास है कि इसकी चकाचौंध में पहला सवाल यह नहीं पूछेगा कि जिस गांव में एक ढंग का सरकारी अस्पताल नहीं वहां इतना भव्य आश्रम किसकी पूंजी और किसके आयकर से बन गया? सामूहिक जुटान के पहले सुरक्षा के इंतजाम क्यों नहीं थे? जहां के अस्पताल में घायलों को लिटाने के लिए बिस्तर न हों, वहां भव्य भंडारा कैसे चल जाता है? अस्पताल परिसर में जमीन पर पड़े निष्प्राण शरीर की चुप्पी को जल्द ही भूल नागरिक किसी और कथित बाबा के भव्य बाजार के शोर में शामिल हो जाएंगे। एक का मद्धिम हुआ तो किसी दूसरे का बाबा-बाजार रोशन होगा। निकट भविष्य में कथित बाबाओं के बाजार की भीड़ में कोई कमी नहीं आएगी यह तो इनके बाजार को बचाने में सत्ता की मिलीजुली भगदड़ को देख कर तय लग रहा है।