कलयुग केवल नाम अधारा
सुमिर सुमिर नर उतरहिं पारा
तुलसीदास की इन पंक्तियों के मुताबिक कलयुग में कोई भगवान का नाम लेकर ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। कथाओं की मानें तो कलयुग ने राजा परीक्षित से आग्रह किया कि हमें प्रवेश करने दीजिए, हम किसी को तंग नहीं करेंगे। हमारे साथ राग, द्वेष, ईर्ष्या कामना साथ होंगे। राजा परीक्षित ने कलयुग को स्वर्ण में भी रहने की अनुमति दी। अपने लिए प्रवेशद्वार खुलते ही कलयुग ने सबसे पहले राजा परीक्षित के स्वर्ण मुकुट में प्रवेश किया और उन्हें मृत्यु की ओर धकेल दिया। इसके बहुत समय बाद राजनीति में आरोप का आदर्श जपते हुए ‘आप-युग’ आया। इसने जनता से प्रवेश के लिए अनुनय किया। बजरिए जनता ‘आप-युग’ ने प्रवेश के साथ सबसे पहले आदर्श पर ही हमला किया और उसे मृत्यु की तरफ धकेल दिया। इस ‘आप-युग’ में किस तरह आदर्श के कवच से अवसरवाद को राजनीति का मोक्षद्वार बनाया गया, इसकी व्याख्या करता बेबाक बोल

इसी पृथ्वी पर कहीं, कभी, किसी समय युद्ध चल रहा था। प्राचीन काल के युद्ध में वही योद्धा महान माना जाता था जो दुश्मन पक्ष के लोगों के सबसे ज्यादा सिर काट सके। ऊपर उद्धृत युद्ध में सूर्यास्त के बाद सेनापति ने अपने राजा से सगर्व कहा कि महाराज मैंने दुश्मन पक्ष के हजार लोगों के हाथ काट दिए। राजा ने थोड़ा हैरान होते हुए पूछा कि सेनापति तुमने दुश्मनों के सिर क्यों नहीं काटे? सेनापति ने गर्व के भाव में बिना कोई कमी किए कहा, क्योंकि महाराज उनके सिर पहले से कटे हुए थे।

अण्णा आंदोलन ने ऐसा माहौल बनाया था कि आरोप ही सत्य बन गया था

ऊंगली कटा कर शहीद होना… इस मुहावरे का कोई चेहरा बन सकता तो दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जैसा होता। हिंदी के शब्दकोश में राजनीतिक आदर्श की परिभाषा में इस व्याख्या को अद्यतन कर देना चाहिए कि जिस बिंदु पर जाकर हर तरह के फायदे की जीवनरेखा खत्म हो जाए, वहां अंतिम अस्त्र के तौर पर ‘आदर्श’ का इस्तेमाल किया जा सकता है। अण्णा आंदोलन ने ऐसा माहौल बनाया था, जहां आरोप को ही अंतिम सत्य सरीखा प्रस्तुत कर दिया गया। भ्रष्टाचार के सभी आरोपियों को जेल भेजने की बात कहते हुए यही आदर्श स्थापित किया गया कि किसी नेता पर भ्रष्टाचार का आरोप लगते ही उसे भारतीय राजनीति से विलोपित कर देना चाहिए।

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के कई नेताओं पर यह आदर्श-बाण ब्रह्मास्त्र की तरह लगा। तब भ्रष्टाचार के आरोप से लक्षित व्यक्ति की राजनीतिक हत्या निश्चित थी। शीला दीक्षित जैसी कई वरिष्ठ नेता महज भ्रष्टाचार के आरोप के कारण राजनीतिक प्रतिष्ठा के आसमान से जनता की नफरत के पाताल में पहुंचा दी गई थीं। भ्रष्टाचार के मामलों की अदालतों में सुनवाई के पहले ही केजरीवाल के लगाए आरोपों के मद्देनजर जनता ने फैसला सुनाने का हथौड़ा चला दिया।

हमेशा की तरह राजनीति के मैदान में ‘आहत आदर्श’ के साथ होता

फिर, वही हुआ जो हमेशा की तरह राजनीति के मैदान में ‘आहत आदर्श’ के साथ होता है। अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के लगाए आरोपों पर ‘माफी मांगो’ आंदोलन चलाया और बाकी मामलों पर अदालत उन दस्तावेजी सबूतों का इंतजार करती रही जो ट्रकों में भर कर, देशभक्ति गीत गाते हुए आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता और नेता लाने वाले थे। अचानक, भ्रष्टाचार के आरोप के सबूतों से लदे ट्रक के चालक ने गाना गाया-मैं निकला गड्डी लेकर, एक मोड़ आया मैं उत्थे सारे सबूत छोड़ आया। इसके बाद टू-जी आरोपों के मामले में एजी, ओजी, सुनोजी करने के लिए कोई नहीं बचा।

आम आदमी पार्टी की राजनीतिक गाड़ी सरपट दौड़ी, और उसके चालक अरविंद केजरीवाल ने उस सूचना की तरफ ध्यान देना उचित नहीं समझा, जहां लिखा था, सावधान आगे भ्रष्टाचार के आरोपों का तीव्र मोड़ है। राजनीति के समय-चक्र ने आम आदमी पार्टी के नेताओं को आरोपों की जद में लाया। इतना ही नहीं, दुर्लभतम उदाहरणों में अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए जेल गए। लेकिन, अब उनके लिए भ्रष्टाचार का आरोप राजनीतिक पीड़ित का तमगा था। जो नेता कल को भ्रष्टाचार के आरोपियों को जेल भेजने की कवायद में जुटा था उसने जेल के अंदर से ही शासन चलाने का प्रतिगामी उदाहरण पेश कर दिया। उन्हें भगवान कृष्ण के अवतार से भी जोड़ा जाने लगा। जब उनके समकक्ष हेमंत सोरेन नैतिकता के तकाजे के तहत गिरफ्तारी से पहले इस्तीफा देने की प्रक्रिया कर चुके थे, उसके बावजूद अरविंद केजरीवाल ने मुख्यमंत्री पद के साथ जेल में प्रवेश किया।

केजरीवाल के पास बतौर मुख्यमंत्री खोने के लिए कुछ नहीं था

जब अरविंद केजरीवाल के पास बतौर मुख्यमंत्री खोने के लिए कुछ नहीं था तो जमानत पर जेल से बाहर आने के बाद आदर्शों का हवाला देते हुए इस्तीफा दे दिया। कुछ महीनों में दिल्ली विधानसभा का कार्यकाल खत्म ही होने वाला है तो उनके पास माकूल समय था जनता के सामने स्वादानुसार, सुविधानुसार आदर्श प्रस्तुत करने का। विधानसभा चुनाव में चंद महीने ही रह जाने के कारण न तो उनके पास बिहार के उदाहरण जैसा खतरा था कि केजरीवाल के उत्तराधिकारी कल को जीतन मांझी जैसे बागी बन जाएं, न तो झारखंड जैसा कि पद से हटाते ही चंपई सोरेन विपक्षी दल के पास पहुंच जाएं कि मुझसे मुख्यमंत्री का पद वापस क्यों लिया।

कुछ ही महीनों में आपका वह सरकारी घर भी जनता की अदालत में चला ही जाता जिसे आज आपने आदर्श के नाम पर कुर्बान किया। मुख्यमंत्री आवास या इस तरह के किसी राजनीतिक पद वाले आवास का सही नाम तो जनता आवास होना चाहिए। कायदे से जनता ही तय करती है कि राज्य प्रमुख के लिए आवास का आबंटन किसके नाम होना चाहिए। जनता ने आपके नाम यह आबंटन इसलिए किया था, क्योंकि आप भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का चेहरा बने थे।

अण्णा आंदोलन के अगुआ चेहरे के तौर पर अरविंद केजरीवाल ने आरोप को ही अंतिम सत्य साबित करना चाहा था। लेकिन, खुद के खिलाफ आरोप-पत्र तैयार होते ही उन्होंने सत्य को आरोपी के लिए ही आंदोलन करने के लिए भेज दिया। सत्य भी सोचता होगा यह कैसा आदर्श है जहां मैं परेशान भी होता हूं और पराजित भी।

अस्मितावादी राजनीति के हिसाब से यह गर्व की बात है कि आतिशी सिंह जैसी सुशिक्षित महिला के साथ दिल्ली को तीसरी महिला मुख्यमंत्री मिली है। आतिशी की योग्यता के हिसाब से दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर उनका आगमन स्वागत योग्य है। लेकिन, अभी राजनीति की वह सुयोग्य महिला भी याद आती हैं जिनका नाम शीला दीक्षित है। देश की सुयोग्य मुख्यमंत्रियों में से एक शीला दीक्षित को दिल्ली की जनता ने इसलिए नकार दिया क्योंकि अण्णा आंदोलन ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। वैसे आरोप जिनके लिए अदालत में सबूत पहुंचाने के लिए आम आदमी पार्टी का एक भी कार्यकर्ता आगे नहीं आया।

अरविंद केजरीवाल ने आतिशी जैसी योग्य नेता को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला अगर जेल जाने के पहले कर लिया होता तो आज आदर्श का चेहरा ऐसा अवसरवादी नहीं दिखता। जेल में प्रवेश के पहले वे मुख्यमंत्री आवास को छोड़ देते तो शायद आदर्श को आम आदमी पार्टी के रूप में एक स्थायी निवास मिल गया होता।

अदालत ने जमानत दिल्ली के मुख्यमंत्री को नहीं बल्कि देश के एक नागरिक अरविंद केजरीवाल को दी है, जिनके लिए कानून समान है कि जेल अपवाद और जमानत नियम होना चाहिए। दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री तो आरोपों की जद में थे और उनके सचिवालय जाने पर भी प्रतिबंध था। कुछ ही महीनों में उन्हें आम आदमी पार्टी के नेता के रूप में जनता के बीच जाना ही था। यही वक्त था कि आदर्श भी निभ जाए और राजनीतिक स्वार्थ भी सध जाए। अब चुनाव के मैदान में इस आदर्श की खूब आतिशबाजी होगी। कभी कोई इस आदर्श-कथा में पूछेगा कि शहीद होने के लिए नाखून क्यों कटवाया, सिर क्यों नहीं तो शायद यही जवाब होगा कि राजनीति के शरीर से आदर्श का सिर तो कब का काट दिया गया है।