कुछ समय पहले चौथी फेल राजा की कहानी सुनाने वाले आज खुद ऐसी कहानी सुना रहे कि अब लगता है, विकल्प के रूप में भी जनता ने ज्ञान-विज्ञान विहीन नेताओं को ही चुन लिया था। दूसरों की पढ़ाई पर सवाल उठाने वालों के भी पढ़े-लिखे होने पर शक हो रहा है। भारत सांस्कृतिक रूप से धार्मिक देश है इसलिए नेताओं ने धर्म के नाम पर की गई राजनीति को सत्ता का मोक्षद्वार समझ लिया। खास कर उत्तर भारत में लोक के राम को सत्ता में प्रवेश का रामबाण समझ लिया। लेकिन, भारत के लोक के लिए धर्म अफीम नहीं एक सांस्कृतिक तंत्र है जो उसे राजनीतिक रूप से भी सजग रखता है। लोक को जब अहसास हुआ कि उसके राम-भाव का ‘राजनीतिक भाव’ लगाया जा रहा है तो उसने सबसे पहले जो ‘राम को लाए हैं हम उनको लाएंगे’ गीत को सुरविहीन कर दिया। अभी-अभी जनता के दिए इस सबक को भूल कर दिल्ली की मुख्यमंत्री कैमरे के सामने लोकतंत्र का उपहास उड़ाते हुए खुद को खड़ाऊं मुख्यमंत्री और भरत कह रही हैं। राजनीतिक रामायण के इस आप कांड पर बेबाक बोल।
अभी कुछ दिनों पहले एक गीत प्रसिद्ध हुआ था। ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएंगे।’ इस गीत ने भावुकता के ऐसे रिकार्ड तोड़े कि राजनीति ने इसे झट से लपक लिया। इस देश की राजनीति को पता है कि उत्तर भारत की जनता के लिए लिए राम एक भाव हैं। लेकिन, जनता को भी पता है कि राजनीति जब उसके राम के भाव का ‘राजनीतिक भाव’ लगाने लगे तो क्या करना है।
तुलसीदास का ‘राम-काज’ और राजनीतिक लाभ की तुकबंदी का फर्क
बीते लोकसभा चुनाव में जनता ने राजनीति को बता दिया कि ‘जनार्दन’ क्या होता है। ऐसा बताया कि ‘जो राम को लाए हैं’ लिखने वाले गीतकार को खुद ही समझ नहीं आ रहा था कि कौन, किसको लाया और अब वो खुद किधर जाएं? इंटरनेट पर रिकार्ड तोड़ प्रतिक्रिया पाने वाले गीतकार महोदय को लगा था कि तुलसीदास से बड़ा काम उन्होंने कर दिया और राम के नाम पर तो इसका तुरंत ही राजनीतिक हासिल मिलना चाहिए। इस रामधुन के फल के रूप में चुनाव के टिकट की इच्छा थी। खैर, उन्हें पता चल गया कि जनता तुलसीदास के ‘राम-काज’ और राजनीतिक लाभ के लिए की गई तुकबंदी का फर्क जानती है, इसलिए अब शांति से जहां थे वहीं बैठ गए हैं।
लोकसभा चुनाव के बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आता देख अरविंद केजरीवाल को पुराना नारा याद आया, ‘केंद्र में मोदी दिल्ली में केजरीवाल’। फिर उन्हें लगा कि दिल्ली में राम नाम की राजनीति करने के उत्तराधिकारी भी वही हुए। इस स्तंभ के लेखक को पिछले दस सालों में जितने राजनीतिक झटके मिलते हुए नई सीख मिल रही है, उसी में एक नया झटका था, पिछले हफ्ते दिल्ली की नई महिला मुख्यमंत्री के लिए ‘सुशिक्षित’ शब्द का इस्तेमाल करना। शिक्षित में ‘सु’ उपसर्ग लगाते हुए स्प्रिंगडेल्स स्कूल, सेंट स्टीफंस कालेज, आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, रोड्स छात्रवृत्ति की गफलत थी। यह समय संस्थाओं के खारिज होने का है, ऐसा हम सभी सुन, देख और समझ रहे हैं। आतिशी के शपथग्रहण की तस्वीरों के साथ प्रतिष्ठित अंग्रेजी स्कूल से लेकर अंग्रेजों के अपने देश में बना विश्वविद्यालय एक साथ खारिज होते दिखे।
अगले चार महीने के लिए भरत की भूमिका में आतिशी
पिछले लोकसभा चुनाव में ‘इंडिया’ गठबंधन संविधान बचाने निकला था। लोकसभा चुनाव में साथ रहे आम आदमी पार्टी ने दिल्ली के लिए ‘राम’ को चुना। आतिशी ने शपथ तो संविधान के नियमों की रक्षा की ली। लेकिन, आंबेडकर और भगत सिंह की तस्वीरों (आम आदमी पार्टी की सरकार ने गांधी की तस्वीर को विलोपित कर दिया है) के सामने मुख्यमंत्री की कुर्सी को अरविंद केजरीवाल के खड़ाऊं के लिए सुरक्षित रख खुद उससे छोटी कुर्सी पर बैठ गईं। उन्होंने कहा कि जैसे भारत पर शासन करने के लिए भरत ने राम का खड़ाऊं रखा था वैसे ही मैं अगले चार महीने के लिए भरत की भूमिका में हूं।
आतिशी के इस रूप के बाद सियासत में अब तक बदनाम हुईं कठपुतलियों ने भी सांस ली होगी कि अब राजनीतिक विचलन में उसे नहीं घसीटा जाएगा। कम से कम जनता को मूर्ख बनाने की राजनीति में अब कठपुतलियों की भूमिका खत्म हुई। एक जीती-जागती, पढ़ी-लिखी इंसान ने कैमरे के सामने ऐसी दृश्यता प्रस्तुत की कि संविधान व लोकतंत्र भी ‘काठ’ मार जाएगा।
आतिशी ने विपक्ष के आरोप के पहले खुद कबूल किया कि मैं काठ की हूं। जिस मुख्यमंत्री को जनता को चुनना है उस कुर्सी से इतना मोह? यह कोई काठ की बनी आम कुर्सी नहीं, या कोई वंशीय अधिकार नहीं जिस पर इक्ष्वाकु वंश के ही किसी उत्तराधिकारी को बैठना है। क्या आतिशी ने स्प्रिंगडेल्स से लेकर आक्सफोर्ड तक में लोकतंत्र व संविधान को लेकर कुछ नहीं पढ़ा? पढ़ना एक बात है और उसे जीवन में बरतना अलग बात है। स्कूल और विश्वविद्यालयों का पढ़ा आप सार्वजनिक जीवन में नहीं बरतेंगे तो इन संस्थाओं पर भरोसा कौन करेगा?
हमें यह भी पता है कि आपने सब कुछ पढ़ा है। आपको सब कुछ याद भी है। लेकिन, आप इस बात से डरती हैं कि जनता ने अगर स्टीफंस और आक्सफोर्ड में पढ़ाए जाने वाले भारत के संविधान और फ्रांसीसी क्रांति से निकले लोकतंत्र की मांग कर दी तो सबसे पहले वर्तमान मुख्यमंत्री और चार महीने के बाद आने वाले कथित भावी मुख्यमंत्री ही खारिज होंगे।
भारत की राजनीति में आक्सफोर्ड के इन डिग्रीधारी नेताओं की उम्मीद वो लोग हैं जिन्हें राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से लेकर पूरे देश में ढंग के स्कूल नहीं मिलते। जहां शिक्षक से लेकर सफाई कर्मचारी तक बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष करते हैं। जहां मोहल्ला क्लीनिक में रक्तचाप की जांच हो जाना ही बड़ी चिकित्सकीय उपलब्धि है। जहां प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहे युवा बरसात के पानी में डूब कर मर जाते हैं।
आक्सफोर्ड डिग्रीधारी इन नेताओं को लगता है कि ऐसे कमजोर तबके की जनता को लोकतंत्र की जरूरत ही नहीं है। हम भ्रष्टाचार के आरोपों के बावजूद जेल से शासन चलाएंगे और चुनाव के कुछ महीने पहले राम और भरत बन जाएंगे। आक्सफोर्ड का ढंग से उच्चारण भी नहीं कर पाने वाला जनता का एक बड़ा तबका बस रामराज्य के नाम पर हमारे पीछे चला आएगा।
सुशिक्षा से समझे हुए लोकतंत्र का निर्माण करना जितना मुश्किल है, जनता को धर्म के नाम पर बेवकूफ बनाना उतना ही आसान। वैसे भी आपका पूर्व उपनाम आपको यह ज्ञान तो दे चुका है कि धर्म अफीम है। अब जब हर पार्टी मुफ्त बिजली-पानी दे रही और आप पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं तो आपको लगा कि यह कथित अफीम की डिबिया ही काम आ जाए।
श्राद्ध के बाद नवरात्र आने वाले हैं और देश की जनता रामलीला देखने का इंतजार कर रही है। लेकिन, आपने तो नवरात्र के पहले ही अपनी राजनीतिक लीला का मंच सजा दिया है। देश की जनता कैमरे के सामने किए जाने वाले इन अभिनयों को बखूबी समझती है। गांवों-कस्बों में जो राम और रावण का अभिनय ठीक से नहीं कर पाते जनता तालियां बजा कर उनका खूब मजाक उड़ाती है, इस बात को लेकर डरती नहीं कि नकली राम और भरत कहीं नाराज न हो जाएं।
भारत की खूबसूरती यही है कि यहां की जनता ने हमेशा ही धर्म और अफीम के बीच का फर्क समझा है। पारंपरिक-सांस्कृतिक रूप से धार्मिक होना बेवकूफ होना नहीं होता है, अभी-अभी तो जनता ने समझा दिया था। लेकिन, लोकतंत्र के नाम पर आप उत्तराधिकारी तो बन नहीं सकते, तो भरत का स्वांग रच लिया। जनता पूरी तरह समझ रही है कि यह सब आपने दृश्यता के लिए किया है। जिस अनाज लेने वाली जनता को लाभार्थी का नाम दे दिया गया है उसके सामने आप सांत्वानार्थी बनी हुई हैं।
एजंसियों के उग्र इस्तेमाल को लेकर जनता आपका साथ देने की सोचेगी भी तो राम और भरत के नाम की लूट और गलत इस्तेमाल देखते ही उसका मन खट्टा हो जाएगा। अब सोचिए, नकली राम और भरत के अभिनय से नाराज जनता दिल्ली में भी आपकी सीटें कम कर देगी तो आपके राजनीतिक अस्तित्व का क्या होगा?