बंटेंगे तो कटेंगे…महाराष्ट्र में योगी की तस्वीर के साथ इस चेतावनी के पोस्टर कई जगह दिखाई दिए। योगी और उत्तर प्रदेश के माडल के साथ इस चेतावनी का भावार्थ तो जगजाहिर है। मुश्किल यह है कि महाराष्ट्र का राजनीतिक मिजाज अलहदा है। भीमराव आंबेडकर की विचारभूमि से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक की कर्मभूमि व मुख्यालय वाले इस राज्य की राजनीतिक चेतना फिलहाल क्षेत्रीय क्षत्रपों से लेकर राष्ट्रीय दलों तक को इस खौफ में रख रही है कि हम चुनाव लड़ने के लिए ठीक से नहीं बंटेंगे तो सत्ता से कटेंगे। दोनों तरफ गठबंधन है। परिवारवादी और क्षेत्रीय क्षत्रप के पुरखे के पास अपनी पार्टी का मूल निशान नहीं है। एक और परिवारवादी पार्टी व क्षेत्रीय क्षत्रप के पुत्र को मुख्यमंत्री के पद से विदाई लेनी पड़ी और जनता के भरोसे खड़े हुए नेता को उसका मूल निशान मिल गया। पिछले पांच सालों में शिवसेना से लेकर राकांपा बंट गई। जनता बंटने वालों और बांटने वालों दोनों को देख रही है। इसके साथ ही अहम है सीटों का बंटवारा। राजनीतिक सवालों का एक ही खौफ-किस तरह बंटेंगे तो बचेंगे? बंटने और बचने पर बेबाक बोल।
लोकसभा चुनाव के बाद हरियाणा विधानसभा चुनाव। एक देश कई चुनाव का इससे बढ़िया उदाहरण क्या हो सकता है। लोकसभा चुनाव के उलट हरियाणा में जनता ने भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया। लोकसभा चुनाव के बाद गठबंधन युग की वापसी का एलान हुआ था। गठबंधन से विपक्ष में जान आई तो सत्ता पक्ष भी गठबंधन की राह ही लौट पाया।
सभी दलों के लिए कांग्रेस अब कमजोर कड़ी हो चुकी है
राजनीति में बड़े भाई का ओहदा तो कांग्रेस कब का खो चुकी थी। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के लिए भी संदेश था कि राजनीति में छोटा-बड़ा कुछ नहीं होता। लोकसभा चुनाव के बाद लगा था कि विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका बढ़ेगी लेकिन हरियाणा विधानसभा चुनाव ने कांग्रेस का कद इतना कमतर किया कि उद्धव ठाकरे से लेकर उमर अब्दुल्ला तक उसे कमजोर कड़ी बताने लगे। राजनीति में अति सहृदयी का खिताब पाए अखिलेश यादव को भी कांग्रेस के प्रति अपना हृदय कठोर करना ही पड़ गया। अखिलेश ने कांग्रेस के साथ ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ की धुन को अभी स्वर-शून्य पर रख दिया है।
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हरियाणा के बाद अगला पड़ाव है महाराष्ट्र और झारखंड का। महाराष्ट्र और झारखंड में गठबंधन का फार्मूला कामयाब रहा है। महाराष्ट्र जैसे राजनीतिक रूप से सक्रिय राज्य जहां देश की व्यावसायिक राजधानी मुंबई भी है वहां गठबंधन का दौर भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों के लिए आईने की तरह ही है। भारतीय राजनीति में सरलीकरण के लिए उत्तर और दक्षिण की दिशा तय कर दी गई है। इन दोनों दिशाओं का राजनीतिक मिजाज अलग-अलग है। हिंदी पट्टी में मध्य प्रदेश से आगे बढ़ते ही महाराष्ट्र संदेश देता है कि हम भी हैं। महाराष्ट्र संदेश देता है कि राजनीति में एक बीच का रास्ता भी होता है। एकरैखिक राजनीति करने वालों के लिए महाराष्ट्र चुनौती बन चुका है।
महाराष्ट्र में क्षेत्रीय पार्टियां उसे राष्ट्र की तरह बना दी हैं
हरियाणा विधानसभा चुनाव की धूम उतर चुकी है। चुनावी विश्लेषकों को लग रहा, असल राजनीतिक युद्धक्षेत्र महाराष्ट्र ही है। एक महाराष्ट्र में इतने क्षेत्रीय क्षत्रप हैं कि यह अपने-आप में राष्ट्र की तरह है। हरियाणा की तरह यहां की जनता का राजनीतिक मिजाज एकरैखिक भी नहीं है। राज्य का एक इलाका दूसरे इलाके से अलहदा राजनीतिक रुझान रखता है। यहां आंबेडकर की विचारभूमि है तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कर्मभूमि भी है। महाराष्ट्र में संघ के नेताओं की भाषा वैसी नहीं होती जैसी उत्तर भारत में होती है। यहां जाति से लेकर आरक्षण का मसला भी उत्तर भारत से अलग है। यहां की जमीन पर ही ‘दलित पैंथर’ का सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन भी जन्मा था। पिछले दिनों योगेंद्र यादव को अकोला में दलित वोटों से संबंधित अपने बयान के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तरीके का विरोध झेलना पड़ गया।
यहां का राजनीतिक मिजाज अलग तरह का है
महाराष्ट्र में सामाजिक न्याय का भी अपार राजनीतिक विस्तार है, ये सामाजिक न्याय के कथित अग्रदूत भी नहीं समझ पा रहे हैं। यहां आप लोकतंत्र और सामाजिक न्याय की पश्चिमी अवधारणा के साथ नहीं जा सकते। यहां का राजनीतिक और लोकतांत्रिक मिजाज यहीं की मिट्टी में पैदा हुआ है। यहां संविधान बचाओ की लघु प्रति भी नहीं चल सकती। महाराष्ट्र के राजनीतिक मिजाज में संविधान के चुनिंदा पन्ने लेकर जाएंगे तो यहां राजनीतिक रूप से अनपढ़ ही कहलाएंगे।
महाराष्ट्र में शिवाजी से जुड़ी अस्मिता ऐसी है कि यहां इस ऐतिहासिक नायक की प्रतिमा विखंडित होने पर ‘भूतो न भविष्यति’ की तरह माफी मांगी गई। चुनाव के पहले कई राज्यों में कहीं पुल गिरे, कहीं मूर्तियां गिरीं लेकिन माफीनामा सिर्फ महाराष्ट्र के लिए आया। कुछ साल पहले जिस तरह से महाराष्ट्र ने किसानों और आदिवासियों के आंदोलन का नेतृत्व कर पूरे देश को झकझोरा था वह भी मिसाल थी। अण्णा आंदोलन तो याद ही होगा जिसने देश में पूर्ण लोकतांत्रिक तरीके से राजनीतिक तख्तापलट किया।
ऐसे अलहदा राजनीतिक मिजाज वाले सूबे ने राजनीति में नैतिकता का संकट भी देखा। सूरज डूबते हुए जो सरकार थी सूर्योदय के समय उसका पूरा निजाम बदल चुका था। परिवारवाद को कोसने वाली पार्टी ने दो राजनीतिक दलों के साथ सबसे मजबूत राजनीतिक परिवार को भी तोड़ दिया। जाहिर सी बात है कि टूटा हुआ परिवार का टुकड़ा आप में जुड़ेगा तो वह परिवारवाद में तो नहीं ही गिना जाएगा। बोनस में उस पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की फाइल को भी बंद कर दिया जाएगा।
जनता के पास जाने के पहले दो मजबूत राजनीतिक दल अदालत और चुनाव आयोग के चक्कर लगा रहे थे कि हम हैं असली सेना तो हम हैं असली राकांपा। लोकतंत्र की लीला यह थी कि कथित परिवारवादी पार्टी के वारिस और पुरखे को ही मूल निशान नहीं मिला। इस तरह से महाराष्ट्र ने परिवारवाद की पारंपरिक परिभाषा को भी पलट दिया। आज एकनाथ शिंदे ठाकरे परिवार के वंशज नहीं हैं लेकिन उनके कब्जे में उस शिवसेना का निशान है जिसे परिवारवादी कहा जाता है। परिवार का वारिस फेसबुक पर लाइव होकर इस्तीफा दे रहा था और जनता के भरोसे खड़ा हुआ नेता महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री निवास में प्रवेश कर रहा था।
पिछले सालों में महाराष्ट्र में जितनी ज्यादा राजनीतिक उठा-पटक हुई है क्या जनता इन चीजों को याद रखेगी? जहां दुनिया के सबसे बड़े परिवार का दावा करने वाले और पारिवारिक मिजाज के साथ राजनीति करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक का मुख्यालय है वहां जनता परिवार तोड़ने वालों और आसानी से टूट जाने वालों को किस तरह से देखेगी? क्या महाराष्ट्र की जनता मान लेगी कि वंशवाद का मतलब सिर्फ राहुल और प्रियंका है? क्या महाराष्ट्र की जनता मान लेगी कि भ्रष्टाचार मतलब सिर्फ विपक्ष का भ्रष्टाचार है?
भाजपा की ओर से अगली बड़ी लड़ाई उत्तर प्रदेश को देखते हुए महाराष्ट्र में चुुनाव प्रचार के लिए योगी की छवि को भी भुनाया गया। महाराष्ट्र की सड़कों पर उत्तर प्रदेश के मिजाज वाले ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ वाले पोस्टर भी लगवा दिए। क्या बंटने को लेकर महाराष्ट्र की जनता का मिजाज उत्तर प्रदेश जैसा है? महाराष्ट्र में आप ज्यों ही उत्तर प्रदेश माडल की बात करेंगे तो आपके कंधे पर प्रवासियों की पीड़ा का प्रेत आकर लटक जाएगा। वहां आप अपना समांतर चुनाव निशान बुलडोजर भी नहीं ले जा सकते हैं। महाराष्ट्र की जमीन पर बंटेंगे तो कटेंगे के ढेर सारे राजनीतिक निहितार्थ जरूर निकाले जा सकते हैं।
महाराष्ट्र में राजनीतिक दल बचने के लिए बंट रहे हैं। पिछली बार गुजरात बनाम महाराष्ट्र की अस्मिता का बंटवारा साफ-साफ दिखा था। वहां तो राजनीतिक दल बंट-बंट के सरकार बना रहे हैं। जो बंट कर आया वह वर्तमान सरकार का मुख्य चेहरा और आगे के लिए भी उसे ही मुख्य चेहरा घोषित किया गया है। महाराष्ट्र में अभी तक भाजपा इस राजनीतिक हैसियत में नहीं है कि वह सिर्फ हिंदुत्व के मुद्दे पर एकतरफा माहौल बना ले। महाराष्ट्र वह राज्य है जहां संविधान की दी गई अलग-अलग पहचानें मुखर हैं। इन पहचानों का, इन आवाजों का सामाजिक न्याय के तहत बंटवारा करना फिलहाल कांग्रेस की राजनीतिक क्षमता से परे है।
महाराष्ट्र में राजनीतिक दल सीटों के बंटवारे को लेकर जिस तरह उलझे हुए थे उसे देख कर यही कहा जा सकता है कि फिलहाल राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व के लिए यह सबसे बड़ा युद्धस्थल है। महाराष्ट्र की जनता का मिजाज राजनीतिक दलों को सीट बंटवारे को लेकर सचेत कर चुका है-ठीक से नहीं बंटेंगे तो कटेंगे। सत्ता से कटने के डर से महाराष्ट्र में सीटों के बंटवारे का युद्ध जनता किसके पक्ष में ले जाएगी इसका आत्मविश्वास तो किसी के पास नहीं दिख रहा। जब जनता का राजनीतिक विश्वास हावी होता है तो किसी एक दल का एकतरफा राजनीतिक विश्वास सामने आना मुश्किल है। महाराष्ट्र की लड़ाई एकतरफा नहीं है और राजनीतिक संघर्षों का यह बंटवारा ही सबसे बड़ी चुनौती है।