स्तरहीन मसाला सिनेमा के कारोबारी तर्क देते थे कि जनता यही पसंद करती है तो हम यथार्थवादी फिल्में क्यों बनाएं। जैसे फिल्मों का काम मनोरंजन, मनोरंजन और सिर्फ मनोरंजन करना रह गया वैसे ही पत्र-पत्रिकाओं व आलोचकों ने तारीफ, तारीफ और सिर्फ तारीफ को ही इस विधा के केंद्र में ला दिया। विश्वविद्यालयी अकादमिक आलोचना का काम प्रेमचंदयुगीन वैचारिक राष्ट्र निर्माण नहीं बल्कि प्रोन्नति के लिए शैक्षणिक प्रदर्शन सूचकांक (एपीआइ) के लिए अंक हासिल करना हो गया। ‘सत्य व कथा’ की चौथी कड़ी में ज्ञानोदय के युग से निकल कर लाभोदय के युग में पहुंचे साहित्य व आलोचना पर चर्चा।

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने पिछले दिनों फैसला किया कि पीएचडी शोधार्थियों के लिए अनुमोदित पत्रिकाओं (पीयर-रिव्यूड जर्नल) में शोधपत्र प्रकाशित करने की अनिवार्यता नहीं रहेगी। यूजीसी के इस फैसले का अकादमिक जगत ने सकारात्मक रूप से जोरदार स्वागत किया।

इस नियम पर शोध के स्तर को गिराने के आरोप लग रहे थे। शोधार्थी शोध से ज्यादा वक्त अपने शोध-पत्र को छपवाने के जुगाड़ में लगा देते थे। इसके साथ ही पैसे ले-देकर शोध छपवाने का बड़ा बाजार तैयार होने के आरोप लग ही रहे थे। ध्यान रहे कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) के शोधार्थियों के साथ ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं थी।

हिंदी साहित्य में आलोचना का यह हाल हो गया है कि कोई शोधार्थी अपने जुगाड़ के बाद अमिताभ बच्चन की शैली में बोलता दिख ही सकता है-मेरे पास इस अखबार का स्तंभ है, इस प्रकाशक का करारनामा है तुम्हारे पास क्या है?
साहित्य व पत्रकारिता की कड़ी में आलोचना पर बात करने की शुरुआत यूजीसी के फैसले से इसलिए कि आलोचना, प्रकाशन घर और पत्रकारिता का एक लंबा रिश्ता रहा है।

साहित्य के आलोचक के लिए सबसे जरूरी रहा है उसकी युगीन चेतना

इक्कीसवीं सदी में बीसवीं सदी के जो मूल्यगत शब्द लगातार धूमिल व मलिन हो रहे हैं उसमें ‘आलोचना’ भी है। नैतिक मूल्यों को अगर साहित्य की आत्मा कहा जाता है तो आलोचना मूल्यों के संदर्भ में आत्मा व परमात्मा के मिलन की तरह है। यह बहुविकल्पीय पसंद का नहीं बल्कि एकल उपलब्ध ईमान का मामला था। प्रेमचंद पूछते हैं न, ‘बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं करोगे क्या?’। आलोचक की पदवी तो ‘पंच परमेश्वर’ और ‘सिंहासन बत्तीसी’ जैसी देखी जाती रही है। एक बार आलोचना के सिंहासन पर बैठ गए तो अपना-पराया, दोस्त-दुश्मन और राजा-रंक के भेद को भुला देना है। साहित्य के आलोचक के लिए सबसे जरूरी रहा है उसकी युगीन चेतना।

पिछले ढाई दशक में बजरिए प्रकाशक व पत्र-पत्रिका आलोचक ने इस ‘पंच परमेश्वर’ का बोझिल चोला हटा दिया है। और रही, बिगाड़ के डर से ईमान की बात…हां, हां प्रेमचंद की जयंती के दिन सोशल मीडिया पर वे भी इसी को उद्धृत करते हैं और आगे भी करते रहेंगे जो सालों भर जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे, दो मिनट के भड़ास तक रहने वाली कविता को कालजयी कहेंगे।

किसी रचनाकार की ‘ऐतिहासिक महत्त्व’ वाली 15 दिन में लिख दी गई किताब में किए गए ‘गहन शोध’ को ऐतिहासिक जरूरत बताएंगे। झट लिखना-पट छपना के बाद इतिहास के विद्यार्थियों के लिए ‘इस साहित्यकार की किताब जरूर-जरूर पढ़ें’ का मशविरा जारी करेंगे।

तुरंता किताब की तुरंता समीक्षा का तय कायदा है। कविता की समीक्षा में कहा जाएगा यह कहानी की तरह है, यह कविता नहीं पेंटिंग है। वहीं, उपन्यास को कहा जाएगा कि वह पूरी कविता की तरह है, जिसे पढ़ना पिकासो की पेंटिंग को समझने जैसा है। अगर भूले-भटके हड़प्पा की खुदाई से निकले का तमगा हासिल किए किसी बीसवीं सदी के ‘आचार्य’ शैली वाले आलोचक ने समीक्षक व लेखक की भाषा, शैली, कथ्य, इतिहास बोध पर सवाल उठा दिए तो उसकी लानत-मलानत के लिए पहचान की राजनीति का हथियार तो है ही।

अब जरा गंभीर होकर ‘आलोचना’ के इतिहास की बात करेंगे तो इसका जन्म ही सांस्थानिक तरीके से हुआ है। जो अकादमिक व विश्वविद्यालयी संस्थान बने उन संस्थाओं के जरिए साहित्य का इतिहास लिखने की बात आई। फ्रांसीसी क्रांति के बाद स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आधुनिक मूल्य बने। इतिहास से लेकर साहित्य लेखन में नवजागरण आया। पुराने लिखे को भी नए नजरिए से देखने की बात कही गई। इस कालखंड को इतिहास और साहित्य दोनों ‘ज्ञानोदय’ का नाम देता है।

स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व वाले ‘ज्ञानोदय’ के जरिए साहित्य को परखने, जांचने की पूरी प्रक्रिया हुई। साहित्य के इसी बदले मानदंड की प्रक्रिया में ‘आलोचना’ की शुरुआत होती है। साहित्य का इतिहास लेखन शुरू होता है। साहित्य के इतिहास-लेखन में सबसे बड़ी भूमिका नागरी प्रचारिणी सभा, काशी जैसी संस्थाओं की रही है। विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में ‘आलोचना’ की विधा का बड़ा दायरा रहा। विश्वविद्यालयी विभागों में ‘आलोचना’ के क्षेत्र में श्रमसाध्य अनुसंधान हुए।

Bebak Bol and literature.

विश्वविद्यालयों के विभागों से निकल कर आलोचना का विस्तार हुआ विभिन्न तरह की पत्र-पत्रिकाओं में। विश्वविद्यालयी अकादमिक अनुशासन से हटकर लेखन की परंपरा शुरू हुई। सार्वजनिक मंचों के लिए पत्र-पत्रिकाएं छपनी शुरू हुईं। इन पत्र-पत्रिकाओं के जरिए भी आलोचना के क्षेत्र ने सार्वजनिक विमर्श में नई ऊंचाई को छुआ और बजरिए साहित्य हर क्षेत्र में मूल्यों का मानदंड बना।

प्रकाशक समूहों ने ‘जो बिकेगा वही टिकेगा’ का नारा दिया।

बीसवीं सदी में अस्सी के दशक के अंत के साथ नई उदारवादी नीति ने दुनिया के कोने-कोने को बदला तो जाहिर सी बात है कि उसने साहित्य को भी अपने अनुसार ढाला। इसके असर में सबसे पहले मूल्य बदले। उत्तर आधुनिक विमर्श के प्रवेशांक के साथ ही साहित्य की पूरी संरचना और विमर्श बदले। प्रकाशक समूहों ने ‘जो बिकेगा वही टिकेगा’ का नारा दिया।

साम्यवाद के अंत की घोषणा के साथ बाजारवाद को इस दुनिया का अटल सत्य बताया गया। जिसकी सबसे ज्यादा बिक्री हो रही है, या जो सबसे ज्यादा बिक्री करवाता हुआ दिखता है उसी की रचना श्रेष्ठ है। किताब के छापेखाने से निकलते ही लेखक, प्रचारक का काम संभाल लेता है। अपने सोशल मीडिया खाते पर दादा-परदादा, दोस्त, साथी, माली, ड्राइवर की किताबें पढ़ते हुए तस्वीरें जारी करता है।

प्रकाशक की टीम ने आपके किताब के प्रूफ संशोधन की जरूरत नहीं समझी, आपकी पांडुलिपि की गलतियां नहीं गिनी, लेकिन वह यह गिनती जरूर करवाता है कि रचनाकार ने किस बड़े राजनीतिज्ञ व हस्ती के साथ किताब की फोटो डाली, भले ही उन हस्तियों का साहित्य के ‘स’ से भी जुड़ाव नहीं रहा हो। एक बात और ध्यान देने की है। हिंदी साहित्य में आलोचना की विधा विकसित हो रही थी, उस समय भी लोकप्रिय साहित्य को सवालों के घेरे में रखा गया था। 1936 में जब प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हो रही थी, प्रेमचंद साहित्य के उद्देश्य की बात कह रहे थे। प्रेमचंद की कसौटी पर साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन नहीं, उच्च चिंतन और स्वाधीनता का भाव था। प्रकाशन समूह साहित्य पर गंभीर विमर्श कर रहे थे।

बाजार तय करता है कि कौन सा साहित्य श्रेष्ठ

प्रेमचंद साहित्य के उद्देश्य को राष्ट्र-निर्माण जैसे वृहत्तर संदर्भ में देख रहे थे। ‘चंद्रकांता संतति’ जैसी अति लोकप्रिय रचनाओं को आलोचक इसी नैतिक मूल्य पर हेय मान रहे थे। साहित्य के लोकलुभावन बाजार को ‘लुग्दी साहित्य’ के खाते में रखा गया। अब, उत्तर आधुनिकीय विमर्श में श्रेष्ठता की मोहर बाजार के हवाले कर दी गई है। बाजार तय करेगा कि कौन सा साहित्य श्रेष्ठ है। आलोचकों के एकाधिकार, साहित्यिक गढ़ों व मठों पर सवाल उठाए गए। प्रकाशन समूहों ने लोकप्रिय साहित्य को तरजीह देने का आंदोलन सरीखा शुरू कर उसके लिए मंच मुहैया कराया। पूरे विश्वविद्यालयी अकादमिक आलोचना पर हमला शुरू हुआ। विचारधारा पर आधारित आलोचना को खारिज करने का चलन बढ़ा।

मठों और विचारधारा के एकाधिपत्य पर सवाल उठा कर उसे खत्म करने की पूरी कोशिश हुई। लेकिन, इसके बरक्स कोई अकादमिक वैकल्पिक नजरिया न देकर बाजारवादी नजरिए के हवाले कर दिया गया। नया पैमाना बना कि साहित्य का अकादमिक मनोरंजन की दुनिया में कितनी पैठ बना सकता है? कौन फिल्मों के लिए लिख रहा है, कौन धारावाहिक के लिए अनुबंधित हुआ है तो किसकी रचना पर ‘वेब सीरिज’ बन रही है। आलोचना के वृहत्तर दायरे को अखबारों और पत्रिकाओं के पुस्तक समीक्षा वाले स्तंभ तक सीमित कर दिया गया।

विश्वविद्यालयी आलोचना का तो और बुरा हाल हुआ, क्योंकि उसके शोध के प्रकाशन को प्रोन्नति से जोड़ दिया गया। आलोचना का लक्ष्य राष्ट्र निर्माण नहीं शैक्षणिक प्रदर्शन सूचकांक (एपीआइ) का निर्माण रह गया। किसी भी तरह से व पैसे खर्च कर छपने का चलन हावी हो गया। बाकी जो बचा उसे बाजार ने तारीफ, तारीफ और सिर्फ तारीफ तक महदूद किया। ज्ञानोदय से लाभोदय युग में पहुंच कर तारीखी साहित्य तारीफी साहित्य बन गया। (क्रमश:)