अनुच्छेद-370 के खात्मे को कश्मीर के इतिहास में मील का पत्थर की तरह माना जा रहा था। दुनिया के इतिहास में सबसे लंबे समय तक इंटरनेट की पाबंदी, स्थानीय नेताओं की नजरबंदी और राष्ट्रपति शासन के समुच्चय को वादी में शांति का समीकरण बनाकर पेश किया गया। लेकिन पिछले दिनों जिस तरह वादी में आतंकवादियों ने लोगों का प्रांत पूछकर उन्हें गोलियों से भून दिया वह एक खतरनाक प्रवृत्ति की तरफ इशारा कर रही है। इन मौतों को कश्मीर में अब तक हुई हत्याओं की तुलना में कमतर बताकर सत्ता इस पर खामोशी बरतने की कोशिश कर सकती है। हकीकत यही है कि आतंकवादियों ने ये हत्याएं कश्मीर मसले को राष्ट्रीय पटल पर लाकर शोर मचाने के लिए की है। प्रवासियों पर चली गोलियों से वे खौफ की नई खाई तैयार कर रहे हैं। वादी से प्रवासियों का पलायन शुरू हो चुका है। नए कश्मीर की इस नई समस्या पर बेबाक बोल

दहशत खुली फजा की
कयामत से कम न थी
गिरते हुए मकानों में
आ बैठे यार लोग
-मंजर सलीम

बिहार के बांका जिले के अरविंद कुमार शाह कोरोना की दूसरी लहर का कहर कम होने के बाद कश्मीर लौट गए थे। अरविंद कुमार के परिजन चाह रहे थे कि वो बाहर न जाएं, वहीं बिहार में कुछ कमा कर परिवार का पेट भर लें। लेकिन अरविंद के एक भाई कुछ ही दिन पहले गुजरे थे तो अरविंद के सिर पर परिवार की जिम्मेदारी थी। वो अपने भाई का अंतिम संस्कार करने के लिए बिहार आए थे और कोरोना महामारी के कारण वापस नहीं जा पाए।

उन्होंने कश्मीर के लोगों और चार पहिए के ठेले पर भरोसा कर अपने परिवार को बेहतर जिंदगी देना तय किया। भागलपुर के वीरेंद्र पासवान के बाद अरविंद कुमार शाह बिहार के दूसरे गोलगप्पा विक्रेता हैं, जिनकी इस महीने कश्मीर में आतंकवादियों ने हत्या कर दी। दो अन्य निर्माण मजदूरों के साथ बिहार के चार प्रवासियों को आतंकवादी अब तक अपना निशाना बना चुके हैं।

वीरेंद्र पासवान और अरविंद कुमार दोनों घाटी में गोलगप्पे बेचते थे। बजरिए हिंदी सिनेमा रवींद्रनाथ ठाकुर का किरदार ‘काबुलीवाला’ उन प्रवासियों का प्रतीक बन गया था, जिसे अपने परिवार का पेट पालने की खातिर अपना परिवार और वतन छोड़ दूसरे देश में जाना पड़ता है। एक समय था जब बिहार के लोग ‘कलकत्ता’ कमाने जाते थे तो लोक कथाओं और साहित्य में कलकत्ता को विदेश ही कहा जाता था और बाहर कमाने जाने वाले को ‘बिदेसिया’।

आज कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक अगर आपको एक चीज समान मिलेगी तो वह है ‘गोलगप्पा’ व बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासी मजदूर और छोटे कारोबारी। ‘गोलगप्पा’ प्रतीक है भारत की उस संघीय व्यवस्था का जो कहती है-हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं। भारत के नागरिकों को हक है कि वो देश के किसी भी हिस्से में जीविकोपार्जन या अन्य उद्देश्यों के लिए बस सकते हैं। इसी व्यवस्था का हासिल है कि आपको देश के कोने-कोने में मैगी के साथ ठेले पर गोलगप्पे भी खाने को मिल जाते हैं।

अनुच्छेद-370 के खात्मे के बाद कश्मीर 2.0 का अभी मूल्यांकन हो ही रहा था कि वहां प्रवासियों की हत्या शुरू हो गई। वहां के प्रवासियों का भरोसा टूट गया कि हमें यहां कुछ नहीं होगा, हम स्थानीय राजनीति में किसी तरह का दखल नहीं रखते तो किसी के भी निशाने पर क्यों आएंगे? इस बार एक खास लक्ष्य को लेकर उन्हें निशाना बनाया गया। यह एक खौफनाक नई प्रवृत्ति है जो वादी में नई पीढ़ी के आतंकवादी अंजाम दे रहे हैं। सवाल यह है कि नए कश्मीर में दहशत का संदेश देने के लिए आतंकवादियों ने प्रवासियों को क्यों चुना?

इस सवाल का पहला तकनीकी जवाब यह है कि प्रवासियों के रहने-बसने की जगह पर सुरक्षा व्यवस्था सबसे कम होती है। वे वहां की राजनीति में दखल नहीं देते तो उनके हक-हकूक का सबसे कम ध्यान रखा जाता है। इसलिए वे सबसे कमजोर कड़ी होते हैं। आतंकवाद की नई फसल से निकले आतंकवादियों को अपना खौफ जमाने के लिए ये सबसे मुफीद लगे। अभी ये अपने तरीके से खौफ की खाई तैयार कर रहे हैं। बाहरियों के प्रति नफरत की जमीन बना रहे हैं।

एक सवाल यह भी उठ सकता है कि जब ये प्रवासी स्थानीय समाज-संस्कृति और राजनीति में दखल ही नहीं रखते हैं तो फिर इनकी हत्या कर आतंकवादी क्या संदेश देना चाहते हैं? यह उसी तरह के वृहत्तर संदेश की नकल है जो अनुच्छेद-370 हटने के बाद बिहार और उत्तर प्रदेश की राजनीति ने दिया था। ऐसा प्रचार किया गया कि यह कदम सिर्फ कश्मीर नहीं, पूरे भारत के लिए उठाया गया है।

अनुच्छेद-370 को पूरे भारत की राजनीति से जोड़ने की कोशिश की गई खास कर बिहार और उत्तर प्रदेश में। कोरोना के बाद दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, तमिलनाडु से बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूर बिहार लौटे। दिल्ली से सड़क की राह लौट रहे मजदूरों के दर्दनाक मंजर ने पूरी व्यवस्था पर सवाल उठा दिए। लेकिन इन मजदूरों का सवाल बिहार के चुनाव में आसानी से भुला दिया गया। वहां सत्ता पक्ष की ओर से वोट घर लौटे मजदूरों, चमकी बुखार से मारे गए बच्चों, बेरोजगारी और बीमारी पर नहीं कश्मीर पर मांगे गए। कश्मीर की जमीन को पूरे भारत के लिए सुलभ बनाने का जो संदेश दिया गया उसे सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश और बिहार के राजनीतिज्ञों ने ही ग्रहण किया। अनुच्छेद-370 को चुनावी उपलब्धि ही बना दिया गया।

आतंकवादियों का यही मकसद है कि वे अनुच्छेद-370 के खात्मे के बाद बिगाड़े गए माहौल को महज कश्मीर तक ही केंद्रित नहीं रहने देना चाहते हैं। वे बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्रीय सत्ता तक को संदेश देना चाहते हैं। वे अपनी अलगाववादी विचारधारा का विस्तार चाहते हैं। किसी भी आतंकवादी कार्रवाई का आयाम जितना बड़ा होगा उसका प्रभाव भी उतना ही गहरा होगा। अगर आतंकवादी किसी जगह पर बम विस्फोट करते हैं तो उसका स्थानीय प्रभाव ही होता है।

अगर वो बिहार से आए दो प्रवासियों की हत्या करते हैं तो नीतीश कुमार से लेकर सुशील कुमार मोदी तक जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से बातचीत करते हैं। बिहार सरकार से लेकर जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि तक मारे गए लोगों के लिए मुआवजे का एलान करते हैं। कश्मीर के आतंकवाद का मसला बिहार सरकार के मुआवजे तक जा पहुंचता है और आतंकवादियों का मकसद पूरा होता है।

कोरोना के कारण मौत के मुंह में पहुंचे बिहारी प्रवासी मजदूरों के लिए सरकार ने क्या किया, इसका कोई विश्वसनीय आंकड़ा हमारे सामने नहीं है। लेकिन आतंकवादियों की गोलियों से मरे प्रवासियों के लिए केंद्रशासित प्रदेश से लेकर बिहार सरकार तक ने मुआवजे की घोषणा की। यह मुआवजा उन आतंकवादियों के लिए अपने बनाए खौफ के नए कारखाने का मुनाफा है। हमने पिछले स्तंभ में जब वीरेंद्र पासवान का जिक्र किया था तो यही लगा था कि वो वादी में दहशत फैलाने की ही साजिश थी। लेकिन उसके बाद अन्य प्रवासियों की हत्या के बाद साफ दिख रहा है कि कश्मीर के आतंकवादी अपने खौफ का राष्ट्रीय आधार तैयार करना चाह रहे हैं।

हाल में हुई हत्याओं के बाद अभी तक बड़ी संख्या में प्रवासी कश्मीर छोड़ चुके हैं। कश्मीर से प्रवासियों का पलायन कश्मीर की अर्थव्यवस्था के लिए भी बड़ा आघात है। अभी तक ये प्रवासी वहां की अर्थव्यवस्था की रीढ़ रहे हैं। आतंकवादी उस रीढ़ को तोड़ पूरे कश्मीर को आर्थिक रूप से अपंग बना देना चाह रहे हैं ताकि वहां सिर्फ अलगाववाद और आतंकवाद का कारोबार ही हो सके।

प्रवासियों पर प्रहार कर आतंकवादी अनुच्छेद-370 के खात्मे को विवादास्पद बनाए रखना चाहते हैं। वे सीधे बंदूक के बल पर कश्मीर को नियंत्रित करने का संदेश दे रहे हैं। उत्तर भारत के लोगों में कश्मीर को लेकर जो आन-बान-शान की उम्मीद दी गई थी उसे तोड़ना चाह रहे हैं। स्थानीय लोगों की हत्याओं के बाद इनका रुख प्रवासियों की ओर हो चुका है। इन हत्याओं की नब्बे के दशक में हुई हत्याओं से तुलना कर छोटा करार देना आगे के खतरे से आंखें मूंद लेना ही होगा।

केंद्र सरकार और उसके सहयोगियों से अपील है कि कश्मीर की इस कड़ी को वक्त रहते समझिए और बिना वोट की राजनीति किए उसका हल निकालिए। देश के अन्य राज्यों की तुलना में जम्मू-कश्मीर बेरोजगारी में अव्वल है। वहां के युवाओं को फिर से आतंकवाद की आग में झोंकने की तैयारी आतंकवादी संगठन कर चुके हैं। केंद्र सरकार के अब तक कश्मीर में किए प्रयोग नाकाम ही दिख रहे हैं। कश्मीर की स्थानीयता को राष्ट्रीय रंग दिया जाना किसी के लिए फायदेमंद नहीं रहा। कश्मीर की समस्या को सिर्फ कश्मीर के लिए सुलझाइए।

कश्मीर में लगातार हो रहे आतंकवादी हमलों के बाद मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने वादी के हालात को लेकर हमला बोला। मलिक ने कहा कि कश्मीर के राज्यपाल के रूप में मेरे कार्यकाल के दौरान श्रीनगर की 50-100 किलोमीटर की सीमा में कोई भी आतंकवादी घुस नहीं सका, लेकिन अब श्रीनगर में आतंकवादी गरीबों की हत्या कर रहे हैं, जो वास्तव में दुखद है। वहां आतंकवादियों की कमर तोड़ने के लिए और भी सख्त कदम उठाने होंगे।