उस को मजहब कहो या सियासत कहो
खुद-कुशी का हुनर तुम सिखा तो चले
-कैफी आजमी

बीते सालों में देश की राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चित शब्द ‘विकल्प’ रहा। लेकिन विकल्प के दावे और वादे करने वालों को यह रास्ता इतना लंबा लगा कि उन्होंने शोर की राजनीति करने का गलियारा चुन लिया। जनता को हिंदू-मुसलिम की तंग गली में इकट्ठा कर राजनेता इतना शोर मचा रहे हैं कि आम लोगों से जुड़े बुनियादी सवालों की आवाज दब जाती है। हिंदू-मुसलिम का छलावरण देश के नागरिकों को भी विभाजित कर चुका है। नौकरी, महंगाई जैसे सवाल जैसे ही सिर उठाते हैं सड़क पर कोई अप्रत्याशित शोर मचाकर उधर से ध्यान भंग कर दिया जाता है। शोर की सुविधानजक राजनीति का रास्ता चुनने वालों पर बेबाक बोल

उसे दिल्ली के एक इलाके में जाना था, जहां की भू-पहचान तिरंगा चौक को बताया गया। उसने आटो रिक्शे से दक्षिणी दिल्ली के तिरंगा चौक चलने को कहा। आटो वाले ने उसे जहां पहुंचाया उसे वहां नहीं पहुंचना था। उसने कहा, मैंने कहा था तिरंगा चौक चलना है। आटो वाले ने झिड़कते हुए कहा कि दिल्ली में हर चौक पर तिरंगा लग रहा है। यह भी तिरंगा चौक ही है, आपको ठीक तरह से समझाना चाहिए था।

अरविंद केजरीवाल की सरकार ने ‘कट्टर देशप्रेमियों’ को तैयार करवाने के लिए चौक-चौक पर तिरंगा लगवा दिया है। पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान जब उन पर खालिस्तानी विचारधारा को पोषित करने का आरोप लगा तो उन्होंने अपनी जनसभा में कहा कि वे ‘प्यारे आतंकवादी’ हैं। दिल्ली में जब देशभक्ति और तिरंगे का शोर मच रहा है तो एक आवाज और आती है।

प्रतिबंधित अलगाववादी संगठन और खालिस्तान समर्थक समूह ‘सिख्स फार जस्टिस’ (एसएफजे) ने एक आडियो संदेश जारी कर हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से कहा है कि उन्हें पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान से सबक लेना चाहिए और एसएफजे से लड़ाई शुरू नहीं करनी चाहिए।

एसएफजे के सदस्य गुरपतवंत सिंह पन्नू, ठाकुर को धमकी देते हुए कहते हैं कि अगर उन्होंने धर्मशाला में खालिस्तानी झंडे लहराने पर कार्रवाई की तो हिंसा होगी। एसएफजे ने जून में आपरेशन ब्लू स्टार की 38वीं वर्षगांठ पर पौंटा साहिब से, हिमाचल प्रदेश में खालिस्तान पर जनमत संग्रह की तारीख की घोषणा भी की।

जिस पंजाब के लिए आतंकवाद सबसे बड़ा खौफ है अरविंद केजरीवाल के लिए वह प्यारा हो जाता है। जब दिल्ली में अवैध अतिक्रमण पर कार्रवाई से लेकर पंजाब में बिजली कटौती का हल्ला शुरू होता है, आम आदमी पार्टी की सरकार पर सवाल उठते हैं तो अचानक उससे बड़ा हल्ला मचा दिया जाता है। भाजपा नेता तेजिंदर सिंह बग्गा की नाटकीय गिरफ्तारी केंद्र से लेकर राज्य तक के लिए वह कर्णप्रिय शोर हो जाता है जिससे जनता के उठाए जा रहे अप्रिय मुद्दों को दबाया जा सके।

आज संसद से लेकर राजनीतिक रैली तक को एक शोर-सभा में तब्दील कर दिया गया है। बग्गा को अगर पंजाब पुलिस गिरफ्तार कर के ले गई तो उसके खिलाफ सीधा रास्ता था अदालत में लड़ाई लड़ना। लेकिन आम आदमी पार्टी और भाजपा दोनों दलों ने इसे सड़क पर शोर मचाकर लड़ना पसंद किया। अब शोर की राजनीति ही इन्हें अपने लिए सबसे आसान लग रही है। बेरोजगारी के प्रचंड दौर में परीक्षाओं में लगातार अनियमितता जारी है।

सरकारें परीक्षा तक ढंग से नहीं करवा पा रही हैं लेकिन वोट रक्षा के नाम पर मांग रही हैं। नोटबंदी के सालों बाद अब तक सरकारी अफसरों के घर अकूत नकदी मिल रही है। घरेलू उपयोग का रसोई गैस सिलेंडर हजार के पार जा चुका है। रिजर्व बैंक ने वित्त मंत्री सीतारमण के उस दावे को धता बता दिया है जिसमें उन्होंने महंगाई काबू में रहने की बात की थी।

आज हर राजनीतिक दल पीड़ित का पत्ता चल रहा है। हिंदू नेता कह रहा, देखो हमारे साथ कितना गलत हो रहा तो मुसलिम नेता अपने साथ हो रही नाइंसाफियों का रोना रो रहा। ‘बाग’ वाला अतिक्रमण तो सही है लेकिन ‘पुर’ वाले पर बुलडोजर क्यों नहीं चला इसका अलग शोर है।

चाहे संकल्प की राजनीति वाले हों या विकल्प का गल्प रचने वाले, सभी ने देश को प्रतीकात्मक मुद्दों में उलझा दिया है। हर जगह किसी खास प्रतीक पर शोर को प्रतिबिंबित किया जा रहा है।

बहस में शोर है तो राजनीतिक रैली में एक ही बात बार-बार तेज आवाज में दुहराई जा रही है। मंच की अगुआई करने वाले नेताओं ने सामने की जनता को प्रतिक्रियावादी भीड़ में परिवर्तित कर दिया है। नेता एक खास जुमले पर भीड़ के साथ सवाल-जवाब करते हैं। एक नेता के सवाल का जवाब जब हजारों की आवाज में आता है तो वह लोकतंत्र का संगीत नहीं भीड़तंत्र का शोर होता है।

आपको चाहिए कि नहीं चाहिए…बोलिए क्या मैं गलत बोल रहा हूं…जैसे सवाल को कृत्रिम तरीके से ध्वनि के उच्च विस्तार में ले जाया जाता है। लेकिन राजनीतिकों की इस कृत्रिम बौद्धिकता का जवाब जनता स्वाभाविक सहजता में देती है। नेताओं ने अपनी कृत्रिम बौद्धिकता से जनता को हिंदू और मुसलिम की सांख्यिकी में बदलने की सफलता हासिल कर ली है।

शोरतंत्र वाले नेताओं के पास बस दो सफल सूत्र हैं। पहला कि जनता को अस्मितावादी स्तर पर पीड़ित बना देना। हिंदू-मुसलमान, उत्तर-दक्षिण, ऊंची-अगड़ी जाति के स्तर पर समेट दिया जा रहा है। उन्हें भी लगता है कि नौकरी और महंगाई से अहम उनका हिंदू या मुसलमान होना है।

दूसरा सूत्र है खारिज करने का। राजनेताओं को अब इस बात का हिसाब नहीं देना है कि मैंने क्या किया। उन्हें बस दूसरे को खारिज करना है। अगर आप सत्ता में हैं तो सामने वाले को पप्पू से लेकर शहजादा तक कह कर खारिज करने के खांचे में ला सकते हैं।

फिलहाल खारिज होने की सूची में कांग्रेस अव्वल है तो आम आदमी पार्टी उसका ही विकल्प होने की बात करती है। नई तरह की राजनीति का दावा और वादा करने वाली पार्टी अब भाजपा का विकल्प बनने का दावा शायद इसलिए नहीं करती क्योंकि इसे भी सिर्फ खारिज करने की ही राजनीति भा गई है।

केंद्र से लेकर राज्य सरकारों के बीच जो समानता बची है या जिस एक चीज में संघवाद खोजा जा सकता वह है संस्थाओं का दुरुपयोग। केंद्र सरकार के ऊपर केंद्रीय एजंसियों के दुरुपयोग का इल्जाम है तो केजरीवाल के पास जैसे ही पंजाब पुलिस की शक्ति आई उन्होंने इसके नाजायज इस्तेमाल से परहेज नहीं किया।

बग्गा के मामले में अधिकार, शक्ति और कर्तव्य का पूरा संवैधानिक नक्शा होते हुए भी दिल्ली, पंजाब से लेकर हरियाणा सरकार ने टकराव और शोर का रास्ता ही चुना। बग्गा को सड़क पर रोका गया क्योंकि जनता को भरमाने के लिए शोर वहीं मचाया जा सकता है।

आज के राजनीतिक माहौल में तेजिंदर सिंह बग्गा एक प्रतीक हैं। उन्हें एक व्यक्ति या पार्टी की तरह देखना तो दृष्टिदोष ही होगा। आज हर दल के पास अपने-अपने सफल बग्गा हैं। यह भारतीय राजनीति में सफलता का सूत्र है।

शायद यह बात अभी प्रशांत किशोर जैसे डिजिटल रणनीतिकार को समझ न आए कि छवि प्रबंधन की जो शुरुआत उन्होंने की थी वह शोर में कैसे सराबोर हो गई। प्रशांत किशोर बिहार में तीन हजार किलोमीटर पैदल यात्रा कर राजनीति बदलने की बात कर रहे हैं। उनकी चुनावी कंपनी के लोग शायद उन्हें समझा पाएंगे कि उनका मुकाबला बदले हुए हालात में है। जोर-जोर से बोल कर खुद को सही साबित करने की जो राजनीति उन्होंने शुरू की थी वह कानफोड़ू शोर में तब्दील हो चुकी है।

आज शोर का मुकाबला शोर से है कि किसकी आवाज कितनी बुलंद है। जनता के पास रोजी-रोटी है या नहीं, यह सवाल अप्रासंगिक बना दिया गया है। अब रणनीति यही है कि जनता के पेट में सिर्फ इतनी रोटी डाली जाए कि वह सिर्फ शोर मचाने के काबिल रहे और रोजी की बात को नाकाबिल माने। हिंदू-मुसलिम की पहचान वाले छलावरण से जनता को उतनी देर तक तो ढक कर रखने की कोशिश होगी ही जब तक उसका दम न घुटने लगे।