संसद में जब हम राहुल गांधी को संविधान उद्धृत करते सुनते हैं तो दो तरह की कांग्रेस दिखती है। एक वह जिसने आजादी के बाद संवैधानिक मूल्यों को शाब्दिक सौंदर्यबोध के जाल में उलझाए रखा। कांग्रेस संविधान का अपने तरीके से इस्तेमाल कर जनता के बजाए अपनी सत्ता को सर्वशक्तिमान करती रही। उस वक्त भी विपक्ष था जिसने संविधान से शक्ति ग्रहण कर उसे बचाने और अंतिम जन तक के लिए संवारने की बात की। हमारे लोकतंत्र के लिए फिलहाल राहत की बात यह है कि जो विपक्ष के आसन पर होगा उसे अपने वजूद के लिए संविधान सबसे जरूरी लगने लगता है। आज दूसरी वाली कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी उम्मीद संविधान ही है। सर्वशक्तिमान सत्ता के सामने संविधान ही उसे आगे बढ़ने की ऊर्जा देता है। पंजाब में अंदरूनी लड़ाई पर कामयाबी पाते से दिखते राहुल गांधी व कांग्रेस बनाम संविधान के रिश्ते पर बेबाक बोल।
पंजाब चुनाव के नतीजे जो भी हों लेकिन कांग्रेस के लिए संगठनात्मक स्तर पर 2014 के बाद पहला सकारात्मक संदेश वहीं से आया है। चरणजीत सिंह चन्नी और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच कौन बनेगा मुख्यमंत्री का चेहरा के दंगल को मैदान में उतरे बिना सुलझा लिया गया है। चन्नी पर राहुल गांधी के एलान के एक दिन पहले तक सिद्धू हुंकार भर रहे थे कि कांग्रेस आलाकमान कमजोर मुख्यमंत्री चाहता है। पर राहुल की घोषणा के साथ सिद्धू ने कहा कि मैं चन्नी के साथ हूं। इस घोषणा के बाद चन्नी के चेहरे की चमक ने राहुल गांधी के चेहरे को वो दमक दी है जिसके लिए वो संगठनात्मक स्तर पर पार्टी के अंदर जूझ रहे थे।
2014 के बाद पहली बार पार्टी के अंदर का मामला आपसी बातचीत से सुलझा लिया गया है। मध्य प्रदेश में इस लड़ाई के कारण कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा तो राजस्थान से लेकर छत्तीसगढ़ तक पार्टी की अंदरूनी लड़ाई सड़क पर आ ही जाती है।
यह सच है कि कांग्रेस ने पंजाब के चुनाव में दूरगामी कदम उठाया है। इसे बड़ा खतरा उठाना भी कहा जा सकता है। लेकिन राहुल गांधी पंजाब में जिस तरह खतरों के खिलाड़ी बने तो उसके बदले अपना बाहुबली रूप भी पाया है। जब तक आप खतरे नहीं उठाएंगे तब तक राजनीतिक हैसियत भी नहीं पाएंगे। इस राजनीतिक खतरे के लिए कई राजनीतिक टिप्पणीकारों ने पंजाब में कांग्रेस का मर्सिया पढ़ दिया था।
ऐन चुनावों के वक्त अमरिंदर सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री पद से हटाने पर उसे कांग्रेस की खुदकुशी करार दिया गया था। हालांकि, वे सभी टिप्पणीकार उत्तराखंड में भाजपा के तीन बार मुख्यमंत्री बदलने को उस्तादी दांव ही मान रहे थे। ऐन चुनाव के वक्त धामी के आगमन को भाजपा की धमक बताया जा रहा था। जो अमरिंदर सिंह कृषि कानूनों की वापसी के लिए गृह मंत्री से मिल रहे थे, मुख्यमंत्री पद से अपनी रुख्स्तगी को पाकिस्तान के खतरे से जोड़ रहे थे, उनके बिना पंजाब कांग्रेस को खत्म माना जा रहा था।
अमरिंदर सिंह का पंजाब में जो भी जलवा रहा हो लेकिन पिछले काफी समय से उन पर निष्क्रिय होने के आरोप लग रहे थे। वैसे, अगर वे जमीन की राजनीति से जुड़े रहते तो पंजाब का विपक्ष उन्हें आसमान में बिठाने के ख्वाब नहीं दिखा पाता। अकाली दल, बसपा, भाजपा और आम आदमी के दलित मुख्यमंत्री के दावों के बीच राहुल गांधी ने दलित चेहरे को नेतृत्व देने का जो दूरगामी फैसला किया उसे लेकर वे अभी तक राजनीतिक बढ़त बनाए हुए हैं।
कांग्रेस के ढांचे के अंदर राहुल गांधी ने हौसले वाले कई फैसले किए हैं। हालांकि यह अलग बात है कि वे उसी अट्टालिका पर हथौड़े चलाने की बात कर रहे हैं जिनके खंभों को कांग्रेस की नीतियों ने खड़ा किया है। आप जब संविधान की प्रस्तावना को उद्धृत करते हैं तो उसमें बुनियादी गलती करते हैं। संविधान उद्धृत करते समय, वह भी संसद में ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए।
गूगल खोज से संविधान को समझने की कोशिश करेंगे तो ऐसा ही होगा। आप तो सांसद हैं, आपको वह किताब पूरी पढ़नी चाहिए, बार-बार पढ़नी चाहिए। खैर, इसे हम मानवीय भूल कह कर भुला सकते हैं। लेकिन हम यह कैसे भूल सकते हैं कि सबको स्वतंत्रता और समानता देने की बात कहने वाले भारतीय संविधान को शासकों की शक्ति का स्वर्ग कांग्रेस ने ही बनाया था।
संविधान में लिखे ‘राज्यों के संघ’ को कांग्रेस ने सजावटी सौंदर्यबोधक शब्द ही बना डाला था। जिसका भी लोकसभा और राज्यसभा में बहुमत होगा राज्यों पर वही शासन करेगा। जब लोकसभा और राज्यसभा में कांग्रेस का वर्चस्व था तो केरल में नंबूदरीपाद की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। आज लोकसभा और राज्यसभा में राजनीतिक वर्चस्व वाले कश्मीर की राजनीति के साथ उसका भूगोल तक बदल रहे हैं। कल को कोई और किसी भी राज्य के साथ कुछ भी कर सकता है क्योंकि संविधान के शब्दों का अपने हिसाब से सौंदर्यीकरण की राह कांग्रेस पार्टी की दिखाई हुई है।
आजादी के बाद बने तरुण राष्ट्र की शुरुआत कांग्रेस के शासन के साथ हुई थी। जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक को लगने लगा था कि देश में कांग्रेस का विकल्प नहीं आएगा। देश में जो भी निर्माण होगा कांग्रेस की चारदीवारी के अंदर ही होगा।
विरोधाभास आते ही कांग्रेस वाली केंद्र की शक्ति ने केरल को बर्दाश्त नहीं किया था। संविधान के शक्ति नियंत्रण के खेल ने जो टकराव शुरू किया उसने इतिहास में ‘एसआर बोम्मई बनाम भारत गणराज्य’ नाम का अध्याय दिया। दलबदल की ‘कुप्रथा’ को रोकने के लिए कानून बनाया गया। लेकिन इस हालात का क्या किया जाए कि अगर आपको एक बार बहुमत मिल गया तो आप पांच साल तक किसी भी तरह की मनमानी कर सकते हैं। एक बार बहुमत मिलने के बाद कांग्रेस से लेकर भाजपा तक किसी को कोई संस्था रोक सकी है?
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने सूट-बूट की सरकार का जुमला दिया था। लेकिन भारतीय नागरिकों के अधिकारों को सूट-बूट वालों के हाथों में सौंपने का काम शुरू किसने किया था? यूएपीए के तहत आज पत्रकार से लेकर कलाकार और कई राजनीतिक कार्यकर्ता जेलों में लंबे समय से बंद हैं। इसने विश्वविद्यालयों के प्रतिभावान युवाओं को भी नहीं बख्शा। संविधान की आत्मा के खिलाफ यूएपीए की रचयिता कांग्रेस ही थी। सीबीआइ, आइबी जैसी संस्थाओं के लिए पिंजड़ा तो कांग्रेस ने ही बनवाया था। यह दूसरी बात है कि आज उस पर ताला भाजपा का लगा है, और उसके तोते मौजूदा सत्ता को राम-राम बोलते हैं। न्यायपालिका तक को संदेह के घेरे में लाने वाली कांग्रेस ही थी।
कल तक जो ताकत कांग्रेस के पास थी आज वो भाजपा को हस्तांतरित हो चुकी है। भारतीय संविधान बनने के बाद से ही ‘अत्यधिक लोकतंत्र’ को पसंद नहीं करने वाले लोग उसकी रक्षा की शपथ खाकर सत्ता में आने लगे थे। आज अगर तृणमूल कांग्रेस, टीआरएस से लेकर अन्य विपक्षी दल कांग्रेस को कमजोर बनाना चाहते हैं तो इसलिए कि अपने सर्वशक्तिमान समय में इसने विपक्ष को संविधान का सहारा लेकर शक्तिहीन बनाने का ही काम किया था।
एक समय था जब भाजपा के नेता चुनाव प्रचार में राहुल गांधी को शहजादा कह कर उन पर वार करते थे। आज राहुल गांधी प्रधानमंत्री को ‘राजा’ कह रहे हैं। आजादी के बाद भारत के संविधान की नियति यही रही है कि बहुमत वाली सरकार उसे सिर्फ सत्ता की शक्तियों का स्वर्ग बना रही है। यह सिर्फ भारत ही नहीं, पूरे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हो रहा है। अमेरिका में ‘स्टैच्यू आफ लिबर्टी’ है तो अब भारत में ‘स्टैच्यू आफ इक्वलिटी’ का आगाज है। लेकिन न तो अमेरिका और चीन ‘अत्यधिक लोकतंत्र’ को पसंद कर रहे हैं और न भारत में समानता की मूरत अपने जीवंत रूप में दिख रही है।
अभी तो हमें इसी बात पर संतोष करना चाहिए कि जो विपक्ष में रहेगा वो संविधान, लोकतंत्र को उद्धृत करेगा और जो सत्ता में रहेगा वह कहेगा कि आप मेरी आलोचना कर तो रहे हैं, आपको और कितना लोकतंत्र चाहिए? भारतीय संसद में संविधान की रक्षा की शपथ खाने वालों की अभी-अभी तो अदला-बदली हुई है। दूसरे पक्ष की अभी तो अंगड़ाई है, वहीं जनता के लिए हमेशा की तरह आगे और लड़ाई है।