भारत में आजादी के बाद से ही विपक्ष के नेताओं पर रूस, सीआइए व चीन के एजंट होने के आरोप लगाए जाते रहे हैं। विभिन्न दलों की सरकार पर जासूसी के आरोप लगे जिसकी वजह से सत्ता परिवर्तन भी हुआ। लेकिन लोकतांत्रिक देशों में चल रही घरेलू निगहबानी वैश्विक स्तर पर संगठित रूप में बदल जाए तो यह पूरे लोकतांत्रिक ढांचे पर हमला है। वर्तमान सरकार का दावा है कि वह पेगासस की खरीदार नहीं है तो यह हमारी संप्रभुता और अखंडता पर बड़ा हमला है। अगर इसमें निजी खिलाड़ियों का हाथ है तो यह गंभीर जांच का विषय है। पेगासस जासूसी के बाद भारत पर भी लोकतंत्र को कुचलने वाले देशों की कतार में शामिल होने का आरोप है। तकनीक के बाजार में एकाधिकारवादी शक्तियां लोकतांत्रिक मिजाज के देशों को अपनी गिरफ्त में ले रही हैं। भारत जैसे युवा लोकतांत्रिक देश के लिए इस खतरे पर बात करता बेबाक बोल।
‘एंड टू एंड इनक्रिप्शन’ …इसका मतलब है सूचना भेजने वाले और जिसे भेजा गया उन दो व्यक्तियों तक महदूद है। अपने वाट्सऐप पर यह संदेश हमें एक सुकून देता था। लेकिन वाट्सऐप, फेसबुक, गूगल, विंडो और एप्पल का निजता की सुरक्षा को लेकर दिया गया भरोसा बाजार का छल साबित हुआ। यूनान के एक मिथकीय चरित्र पेगासस (सफेद घोड़ा) के नाम से बने जासूसी संजाल ने खतरे की वह घंटी बजाई है जिसकी तुलना भारत के संदर्भ में पिछले कथित सत्तर सालों से हुई फोन टैपिंग या किसी हरियाणा सीआइडी के जवानों द्वारा राजीव गांधी की जासूसी के आरोप में चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री की कुर्सी जाने से नहीं की जा सकती है।अभी पूरी दुनिया के साथ भारत में इंटरनेट कानूनों पर बहस चल रही थी जिसमें निजता की सुरक्षा और राष्ट्रीय हित सबसे बड़ी चिंता थी।
अभी तक तो राष्ट्र और निजता एक-दूसरे से टकरा रहे थे। इस टकराहट की अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के हालिया फेरबदल में सूचना प्रौद्योगिकी व संचार मंत्री को अपना पद गंवाना पड़ा था। इस बीच बहस में हमारे सामने पेगासस आ जाता है जो निज और राष्टÑ की सीमा से आगे बढ़ कर वैश्विक हो गया है। आधुनिक लोकतंत्र में तकनीक को एक वरदान के रूप में देखा जा रहा था। लेकिन धीरे-धीरे बाजार के एकाधिकार के जरिए तकनीक पर भी कब्जा बढ़ता गया। तकनीक का इस्तेमाल लोकतांत्रिक, पूंजीवादी, समाजवादी या तानाशाही हर तरह की व्यवस्था अपने-अपने हिसाब से कर सकती है। लेकिन पिछले एक दशक में एक चीज बहुत साफ-साफ दिखाई दे रही है कि तकनीक के विकास के साथ उसका एकाधिकार बढ़ता जा रहा है।
किसी एक ने वाट्सऐप बनाया तो उसे फेसबुक ने खरीद लिया। वाट्सऐप से भरोसा टूटे लोगों ने सिग्नल अपनाया तो हो सकता है कि कल सिग्नल भी उसी मालिक का हो जाए जो दो अन्य बड़े सोशल मीडिया मंचों का मालिक है। या फिर तीनों किसी और की मिल्कियत हो जाए।
बाजार और पूंजी की प्रवृत्ति है कि ये एकाधिकार चाहते हैं। संचार और तकनीक की दुनिया में भी छोटे या मध्यम दर्जे का बाजार खत्म कर वैश्विक एकाधिकार के दायरे में लाया जा रहा है। जिसे हमने वैश्विक पूंजी का नाम दिया है वह भी तो इसी तकनीक के सहारे है। वैश्विक पूंजी अपना वर्चस्व कायम करने के लिए एकाधिकार चाहती है और इसके लिए जरूरी है कि वह राजसत्ता को नियंत्रित करे। यानी वैश्विक पूंजी राजसत्ता का चरित्र भी एकाधिकारवादी ही बनाना चाहेगी। लोकशाही मिजाज की राजसत्ता बाजार का एकाधिकार बनाने में उसके लिए बाधक बनेगी। इसलिए वैश्विक साम्राज्यवादी शक्तियां तकनीक का इस्तेमाल कर लोकतांत्रिक जमीन को ही खत्म करने का काम कर रही हैं।
एनएसओ के पेगासस का इस्तेमाल मुख्यत: अजरबैजान, हंगरी, कजाकिस्तान, मेक्सिको, मोरक्को, रवांडा, सऊदी अरब, टोगो और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) जैसे देशों में होने का आरोप है। कहना न होगा कि इन देशों में लोकतंत्र अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। जिस मेक्सिको की सरकार पर ड्रग्स का कारोबार करने के आरोप हैं वह पेगासस के बड़े खरीदारों में है। आरोप है कि वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकार जमाल खाशोज्जी का परिवार दो अक्तूबर 2018 को इस्तांबुल में उनकी हत्या के पहले और बाद भी पेगासस की जद में था। हालांकि एनएसओ इस आरोप को खारिज कर रहा है। अब अगर लोकतंत्र को कुचलने वाले इन देशों के साथ भारत को भी खड़ा कर देने के आरोप हैं तो यह यहां के नागरिकों से लेकर सरकार तक के लिए बड़ा खतरा है।
पेगासस की जद में कई पत्रकार, मानवाधिकार कार्यकर्ता व विपक्ष के नेता हैं जो किसी भी राजसत्ता में लोकतंत्र के पक्ष में खड़े होते हैं। भारतीय संदर्भ में पेगासस का चौंकाने वाला पक्ष है उस महिला की जासूसी जिसने न्यायपालिका के शक्तिशाली चेहरे पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने के बाद से उस महिला के साथ उन सभी लोगों के फोन पेगासस की निगहबानी में आ गए जो उसके संपर्क में थे। जिस महिला को सर्वशक्तिमान से लड़ना है, अगर उसकी जासूसी शुरू हो जाए तो उसकी लड़ाई को कमजोर पड़ना ही है, उसे हारना ही है। बड़े राजनेताओं, पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के बरक्स बस इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि इस तरह के जासूसी संजाल कमजोर और वंचित तबकों को अधिकारों की लड़ाई से बेदखल ही कर देंगे। तकनीक की एकाधिकारवादी ताकतें प्रतिरोध की हर छोटी आवाज को भी खत्म करने में कामयाब हो जाएंगी।
दुनिया के देशों ने सामंतवाद और उपनिवेशवाद के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया की ओर कदम बढ़ाया था। लोकतंत्र ने ही नागरिक को निजता का और अभिव्यक्ति का अधिकार दिया। मगर लंबे समय से इन अधिकारों पर हमले की चर्चा भी हो रही थी। पहले जो ताकतें लोकतांत्रिक अधिकारों पर छुप कर वार कर रही थीं, अब वे सामने स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं। भारत सरकार ने पेगासस से जासूसी के आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि इससे हमारा कोई सरोकार नहीं है। दूसरी अहम बात यह कि एनएसओ कह रही है कि हम सिर्फ वैधानिक सरकारों से ही करार करते हैं। कंपनी के इस बयान के बाद भी भारत सरकार ऐसे किसी करार को खारिज कर रही है तो यह और गंभीर मामला बनता है कि क्या यहां निजी शक्तियां इसका इस्तेमाल कर रही हैं?
अगर सरकार को दरकिनार कर निजी शक्तियां इस खतरनाक खेल को अंजाम दे रही हैं तो यह गंभीर जांच का विषय है। यह कोई आम जासूसी की घटना नहीं जब कोई सरकार बड़े गर्व से कह देती थी कि हां हमने जासूसी करवाई थी। एक समय था कि विपक्ष के किसी नेता पर पहला हमला उसे सीआइए का एजंट कह कर किया जाता था। लोकनायक जयप्रकाश नारायण तक सीआइए के एजंट के आरोप से बच नहीं पाए थे। उसके बाद चीन का एजंट और पाकिस्तान का एजंट होने का आरोप लगाना आम हो गया।
एक तरह से कहें तो ‘जिसकी सत्ता उसके जासूस’ के हम आदी हो चुके हैं। लेकिन पेगासस का मामला सीधे-सीधे हमारे लोकतंत्र पर हमला है। यह राजसत्ता का आरोप-प्रत्यारोप वाला दांव-पेच नहीं बल्कि साम्राज्यवादी शक्तियों की मिलीभगत है। यह हमारी संप्रुभता और राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ वैश्विक बाजार की साजिश है। हमारे देश में इसकी जांच जितनी तेजी और मजबूती से हो, नागरिकों और सरकार दोनों के लिए उतना अच्छा होगा।