लंबे समय से रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के संकटों के बीच पैकेट बंद खाद्य पदार्थों को वस्तु एवं सेवा उत्पाद कर के दायरे में लाए जाने से आम जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ना तय है। आमतौर पर महंगाई बढ़ने का सबसे पहला असर स्वास्थ्य और पोषण पर पड़ता है। जेब पर भार बढ़ते ही लोग सबसे पहले खान-पान की गुणवत्ता से समझौता करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। खुदरा बाजार के उत्पादों को कर के दायरे में लाने के बाद घरेलू व छोटे उद्यमों पर नियामकीय दबदबा बढ़ना भी तय है जो इनकी मुश्किलें बढ़ाएगा। लंबे समय से लोक कल्याणकारी सरकारें बाजार की मांग पर आधारित सुधार की दरकार का समाधान जनता की जेब में ही खोज रही हैं। सुधार के नाम पर जनता की जेब से पैसे वसूलने की होड़ मची है। जीएसटी के नए ढांचे से जनता सीधे अपनी कमाई में कटौती सी महसूस कर रही है। अप्रत्यक्ष कर के व्यापक प्रत्यक्ष असर पर बेबाक बोल।
कफन की जेब भी खाली नहीं है
ये बद-हाली है खुश-हाली नहीं है
-अब्दुर्रहमान मोमिन
कुछ साल पहले तक कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार थी और आज भाजपा की अगुआई वाली सरकार। विचारधारा के स्तर पर ध्रुवीय राजनीतिक बदलाव के बाद आज अगर कुछ नहीं बदला तो वह है वस्तु एवं सेवा उत्पाद कर (GST) को लेकर मुख्य राजनीतिक दलों की भावना। विचारधारात्मक रूप से दो सरकारों के बीच यह भावना तभी कायम रह सकती है जब वह बाजार की बड़ी जरूरत हो।
बाजार आधारित व्यवस्था में उससे जुड़ी सुधार की सड़क पर चलना सरकार की मजबूरी है, यह तो समझा जा सकता है। यहीं पर एक समझ यह भी बनती है कि वह सड़क ऐसी हो, जिस पर हर कोई अपनी राह बना सके। सुधार के नाम पर ऐसा बिगाड़ न हो कि एक बड़ा तबका सड़क के हाशिए पर खड़ा कर दिया जाए।
पांच साल पहले भारतीय संसद में मध्यरात्रि के बीच जिस तरह से जीएसटी को लाया गया, उसे भारतीय बाजार के लिए आर्थिक आजादी की संज्ञा दी गई थी। अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञों ने इसे बाजार के हक में अब तक का सबसे बड़ा सुधार करार दिया। उस वक्त तो “एक देश-एक कर” का ही नारा था। धीरे-धीरे इसका दायरा इतना बड़ा कर दिया गया कि अब यह आम जनता के जीवन निर्वाहक उत्पादों को प्रभावित कर रहा है।
अब पैकेट बंद खाने-पीने की चीजों को जीएसटी के दायरे में लाने का दोतरफा असर पड़ेगा। पहला असर तो उपभोक्ता पर आर्थिक मार का होना ही है। जिन पैकेट बंद खाद्य-पदार्थों को नई जीएसटी दरों पर लाया गया है, उसका उपभोक्ता सिर्फ उच्च मध्यम-वर्ग नहीं है। मध्यम-वर्ग व कमजोर तबके के लोग भी इसके उपभोक्ता हैं। पहले जो उत्पाद पांच फीसद के ढांचे में थे अब वे बारह फीसद में आ गए हैं। शून्य फीसद के ढांचे में आने वाले उत्पाद पांच फीसद में आ गए हैं।
मंदी के दौर की जताई जा रही आशंका
ऐसा लग रहा है कि जनता की जेब से पैसे निकालने की होड़ लगी हुई है। देश में मुद्रा का अवमूल्यन हो रहा है, मंदी के दौर की आशंका जताई जा रही है, रोजगार के मौके कम हो रहे हैं। कमजोर वर्ग की जब आय नहीं बढ़ रही है, तो इस तरह के अप्रत्यक्ष कर सीधे-सीधे उसकी आय में कटौती ही है। जीएसटी का गणित कुछ इस तरह का है कि इसका बोझ खरीदने वाले पर ही पड़ता है।
“एक देश-एक कर” के नारे का सबसे बुरा असर उन लोगों पर पड़ रहा है जो आर्थिक ढांचे में सबसे निचले पायदान पर हैं। जो व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से आयकर के दायरे में नहीं है अप्रत्यक्ष रूप से वह सबसे ज्यादा आर्थिक बोझ ढो रहा है। नए कर ढांचे के बाद जीवन निर्वाहक खाद्य-पदार्थों की कीमतों पर जो असर पड़ेगा उससे एक आम घर के बजट में हजार से डेढ़ हजार रुपए तक की बढ़ोतरी का अनुमान है। ऐसे में अभी तो यही दिख रहा है कि यह फैसला एक बहुत बड़े वर्ग को आर्थिक संकट की तरफ धकेलेगा।
नकली माल से बचने को लोगों का पैकेट बंद चीजों पर भरोसा
उपभोक्ता और स्वास्थ्य की दृष्टि से बात करें तो बहुत से खाद्य-पदार्थ पैकेट बंद ही सही होते हैं। भारत में दही-पनीर से लेकर आटे व अन्य अनाज का नकली बाजार इतना बेकाबू है कि लोग अपने बजट के साथ समझौता कर के पैकेट बंद चीजों पर भरोसा करते हैं कि इन पर तो नियामक संस्थाओं का नियंत्रण होगा, और जैसा लिखा है उस हिसाब से चीज मिलेगी। लेकिन जब कमाई कम हो और कर ज्यादा तो लोग फिर उन चीजों को खरीदने के लिए मजबूर होंगे जो उनकी पहली पसंद नहीं है या फिर अपनी जरूरत, जेब व जीएसटी के बीच समझौता करेंगे।
वहीं बड़ी दुकान की खरीदारी के उलट छोटे उपभोक्ता छोटी दुकानों से कम मात्रा का सामान ही खरीदते हैं। वे अपनी क्षमता के अनुसार दाल जैसी चीजों का आधा से एक किलो का पैकेट ही खरीदेंगे। यानी उपभोक्ता अपनी जरूरत कम करके भी ज्यादा कर देगा। दूसरे असर की बात करें तो इससे सीधे तौर पर विक्रेता भी प्रभावित होंगे। गली-मोहल्ले में छोटी दुकानदारी करने वाले क्या बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुकाबला कर पाएंगे?
एक वह स्थिति थी जब कर में छूट थी। लेकिन अब सब कर के दायरे में होंगे। खाद्य-पदार्थों को पैकेट बंद करने का ज्यादातर काम कुटीर उद्योग ही करते हैं तो जाहिर सी बात है कि इस फैसले का बुरा असर उन पर पड़ने वाला है। बाजार में आज बहुत से सामान ऐसे हैं जिनकी जीएसटी के साथ अलग-अलग कीमतें हैं। जीएसटी का सौ फीसद बोझ उपभोक्ता पर है। अगर कहीं अठारह फीसद जीएसटी है तो केंद्र और राज्य के बीच नौ -नौ फीसद का विभाजन होता है, जबकि इसका पूरा 18 फीसद हिस्सा उपभोक्ता के सिर पर पड़ता है।
आवश्यक वस्तुओं की बात करें तो अर्थव्यवस्था की कड़ी में इतने निचले स्तर पर नियामकीय नियंत्रण भी पेचीदा होगा। कर-चोरी के आरोप और उससे निपटारे का तंत्र किस तरह बनाया जाएगा और वह कितना व्यावहारिक होगा, यह भी आगे चल कर पता चल पाएगा। जीएसटी को लाने की सबसे बड़ी आर्थिक भावना यही थी कि इससे कर चोरी रुकेगी। लेकिन इसके बाद कर-चोरी बढ़ने के ही आसार दिख रहे हैं।
मंदी की आशंकाओं के बीच आज की तारीख में जब महंगाई को कम करने की जरूरत थी, तब आवश्यक वस्तुओं पर जीएसटी लाना समाधान की दिशा तो नहीं ही दिख रही है। अभी तो यही दिखाई दे रहा है कि इससे महंगाई की समस्या और गहरी होगी व अर्थव्यवस्था संकट में आ सकती है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का कहना है कि खाद्य-पदार्थों को जीएसटी के दायरे में लाने का फैसला 28 जून को चंडीगढ़ में आयोजित जीएसटी काउंसिल की 47वीं बैठक में सर्वसम्मति से लिया गया था।
इस बैठक में सभी राज्य के वित्त प्रतिनिधि मौजूद थे। निर्मला सीतारमण का दावा है कि इस कर की सिफारिश करने वाले मंत्री-समूह में केरल, पश्चिम बंगाल व राजस्थान के वित्त मंत्री भी शामिल थे। हालांकि, यह विवाद उठने के बाद केरल के वित्त मंत्री का कहना है कि उन्होंने कर के इस ढांचे को लेकर असहमति जताई थी। फिलहाल केरल सरकार ने एलान किया है कि वह राज्य के छोटे दुकानदारों से एक-दो किलो के पैकेट पर जीएसटी नहीं वसूलेगी। केरल सरकार ने इस एलान के साथ ही केंद्र सरकार के साथ परेशानी बढ़ने की भी बात कही है।
एक अपवाद को छोड़ कर अगर गैर भाजपा शासित राज्य भी जीएसटी का दायरा बढ़ाने के फैसले में शामिल हैं तो इसकी वजह समझना भी बहुत आसान है। इन दिनों ज्यादातर राज्य सरकारें अपनी चुनाव जिताऊ छवि बनाने के लिए जिस तरह से मुफ्त बिजली-पानी की परियोजनाओं पर चल रही हैं, उससे उन्हें खुद को खड़ा रखने के लिए जीएसटी के सिवा कोई और सहारा दिख भी नहीं रहा है।
मुफ्त-मुफ्त व ढांचागत योजनाओं की कमी के बरक्स आम उपभोक्ता की हर खरीद पर जीएसटी के लिए जी-जी बोलने के लिए विपक्ष भी जिस तरह से मजबूर है तो जनता उधर से भी कोई राहत-ए-नूर की उम्मीद कैसे करे? बाजार, सुधार व मुफ्त-मुफ्त वाली सरकार, फिलहाल सभी खुद को बचाने के लिए जनता की जेब ही खाली कर रहे हैं।
पैकेट बंद खाद्य-पदार्थों पर जीएसटी लगने के बाद आम लोगों को लग रहा है जैसे उनकी तनख्वाह में कटौती हो गई है। आम लोगों की जिंदगी पर जीएसटी के ऐसे असर के बाद आर्थिक शब्दकोश में अप्रत्यक्ष कर की परिभाषा बदलनी पड़ेगी। यह इतना प्रत्यक्ष है कि इसका प्रमाण आगे सब तरफ दिखेगा। जीएसटी के आगे बढ़ने के साथ जेब को लेकर कमजोर होने वाली जनता अर्थव्यवस्था को कितनी मजबूती दे पाएगी यह देखने की बात होगी।