‘मसनद-ए-गम पे जच रहा हूं मैं
अपना सीना खुरच रहा हूं मैं…
हाल ये है कि अपनी हालत पर
गौर करने से बच रहा हूं मैं’
-जौन एलिया

हार की जीत…इस शीर्षक के जरिए हम सुदर्शन की उस कहानी का विश्लेषण नहीं करेंगे जिसमें बाबा भारती खड्ग सिंह जैसे डाकू का हृदय परिवर्तन कर देते हैं। यानी, यह हारने वाले की नैतिक जीत पर नहीं हारने वाले की राजनैतिक पद की जीत पर है। और, आज नैतिक और राजनैतिक शब्द 36 के आंकड़े की तरह एक-दूसरे की तरफ पीठ किए खड़े हैं।

सुदर्शन की कहानी के इस कालजयी शीर्षक के जरिए राजनीतिक दलों के शीर्ष पर बैठे उन लोगों से सवाल है जिनका ताज उनकी हार के बाद बरकरार है। जिनकी उपयोगिता लोकप्रिय नेताओं के फैसलों पर मुहर लगाने भर है। पदनाम राष्ट्रीय अध्यक्ष का है, लेकिन प्रधानी के नाम पर ऊपर से आई हर बात माननी है।

कृष्ण और हनुमान को दुनिया का सबसे बड़ा राजनयिक बताया

हाल ही में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने महाभारत का जिक्र करते हुए कृष्ण और हनुमान को दुनिया का सबसे बड़ा राजनयिक करार दिया। दस साल के दौरान बदले राजनीतिक परिदृश्य में महाभारत जैसे ग्रंथ का पुनर्जागरण हुआ है। कहा जाता है कि आधुनिक राजनीति का कोई भी ऐसा प्रतीक नहीं है, जिसकी साम्यता इस महाग्रंथ के किरदारों से नहीं करवाई जा सकती, चाहे वह नायक हो या खलनायक। राजनीति में आप जीत के लिए जाने जाएंगे या फिर हार के लिए।

आपको जीत का ताज मिलेगा या हार के लिए जिम्मेदार ठहाराया जाएगा। लेकिन, जिनके साथ ये दोनों व्यवहार न हो उसका नाम पार्टी अध्यक्ष हो गया है। जयशंकर चाह कर भी भाजपा सहित किसी भी पार्टी के अध्यक्ष के किरदार की साम्यता महाभारत के किसी किरदार से नहीं करवा सकते, क्योंकि महाभारत में वही है जो उपयोगी है, युद्ध में जिसकी जरूरत है। कुरुक्षेत्र के मैदान में स्त्री से लेकर उभयलिंगी किरदार तक के पास युद्ध का रुख मोड़ देने की क्षमता है। लेकिन, आज राजनीतिक दलों के प्रधान के पास कुरुक्षेत्र में शंखनाद का भी अधिकार नहीं है। वे सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि राजनीतिक दलों के संविधान में अभी तक उनकी जरूरत है।

भाजपा नड्डा के नेतृत्व में हिमाचल का चुनाव हारी, उनके इलाके से भी हारी

हम शुरुआत सत्ताधारी पार्टी से करते हैं। जगतप्रकाश नड्डा भारतीय जनता पार्टी के प्रधान हैं। नड्डा मूल रूप से उत्तर भारत के ऐसे छोटे राज्य से आते हैं, जिसमें लोकसभा की चार और विधानसभा की 68 सीटें हैं। इनमें से लगभ 14 इलाके ऐसे हैं जिन्हें नड्डा की ताकत व प्रभाव वाला कहा जाता है। इनके साथ वे युवा नेता भी थे, जिन्होंने 2020 में देश के गद्दारों को…गोली मारो…का विमर्श गढ़ा था। लेकिन, भाजपा नड्डा के इलाके में तो चुनाव हारी ही, साथ ही केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के हमीरपुर में सभी पांच सीटें हार गई है।

हम यहां पर बंगाल चुनाव की चर्चा नहीं करेंगे जहां पार्टी अध्यक्ष ने सिर्फ ध्रुवीकरण के भरोसे ‘खेला’ बदल देने का सपना पाला था, न ही चुनाव दर चुनाव उत्तर भारत के राजनीतिक नक्शे पर भगवा राज्य की कम होती या कमजोर होती संख्या गिनेंगे। यह विश्लेषण पिछले स्तंभों में हो चुका है। और, न ही दूर दक्खन की बात करेंगे जहां एमके स्टालिन हिंदुत्ववादी छाते के बाहर द्रविड़ विमर्श को तेज धूप दिखा रहे हैं।

पार्टी प्रधान का काम चुनाव मैदान में जाने के पहले का माहौल बनाना है

हिमाचल प्रदेश की हार सिर्फ एक छोटे से राज्य की हार नहीं है। यह विपक्ष के उस विमर्श की जीत है जिसके बाद भाजपा को आगे अपनी ऊर्जा पुरानी पेंशन योजना के मुद्दे से जूझने में लगानी होगी। इसके पहले, जब भाजपा के नेता किसान आंदोलनकारियों को आतंकवादी कह रहे थे तो प्रधान जी ने जरा भी सावधान नहीं किया कि इस मुद्दे पर पैर पीछे करने पड़ सकते हैं। पार्टी प्रधान का काम चुनाव मैदान में जाने के पहले का माहौल बनाना और विमर्श तैयार करना होता है।

खासकर पार्टी की अनुषंगी शाखाओं का कार्यभार उन्हीं के कंधों पर होता है। भाजपा की छवि किसान विरोधी पार्टी की हो गई और अंतत: केंद्र सरकार को कृषि कानून वापस लेने पड़े। जाहिर सी बात है कि यह आर्थिक सुधारों के राजमार्ग पर चलने वाली सरकार के लिए बड़ा गति-अवरोधक बना।

अब अगर 2024 के मैदान में पुरानी पेंशन योजना का ध्रुवीकरण हो गया और भाजपा को भी इसके सामने झुकना पड़ा जैसा कि महाराष्ट्र में संकेत दे भी चुकी है तो इसका जिम्मेदार कौन होगा? माना जा रहा था कि मंदिर और कश्मीर पर राजनीतिक सुधार के बाद भाजपा अपनी दूसरी पारी में तेज आर्थिक सुधारों की बात करेगी। लेकिन, प्रधान के साथ पूरा सांगठनिक ढांचा फिलहाल इसके लिए तैयार नहीं दिख रहा है।

विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा ने गुजरात में सारे प्रमुख चेहरे बदल दिए। उसके पहले दिल्ली में सारे अहम चेहरे बदल दिए गए थे। पूरे देश में उन चेहरों को बदल दिया जाता रहा है जिनका प्रगति-प्रमाणपत्र संतोषजनक नहीं है तो क्या कारण है कि जेपी नड्डा को लेकर इतनी सदाशयता दिखाई जा रही है कि 2024 तक उनकी सेवा को विस्तार दे दिया गया?

अब चुनावी जीत में किसी भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की भूमिका नहीं रह गई

तो क्या खूबी देखी जाए पार्टी प्रधान के अंदर? यही कि इनमें कोई खूबी नहीं है। भाजपा जैसी पार्टी जो दुनिया के सबसे बड़ा संगठनात्मक ढांचा होने का दावा करती है उसके अध्यक्ष भी इसी बढ़ती प्रवृत्ति का अग्रदूत बन गए हैं, कि अब चुनावी जीत में किसी भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की कोई भूमिका नहीं रह गई है। राजनीतिक दलों को संवैधानिक मजबूरी के तहत अपनी कुर्सी के लिए एक राष्ट्रीय अध्यक्ष का चेहरा भर चाहिए।

ऐसा चेहरा जिसमें अपनी कोई चमक नहीं हो और इतना लचीला कि अपना वजूद दिखाने की कोई ललक न हो। आपताकाल विरोधी छात्र आंदोलनों से निकले नेताओं के दलों में भी पार्टी प्रधान पांच साला या अपने पार्टी संविधान के कैलेंडर के हिसाब से रस्मी बन चुके हैं। बिहार में ही जद (एकी) से लेकर राजद तक का हाल देखें। कहीं भी पार्टी अध्यक्ष और पार्टी संसदीय बोर्ड का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। नीतीश कुमार से अपनी हकदारी मांग रहे उपेंद्र कुमार कुशवाहा कह रहे हैं कि संसदीय बोर्ड के प्रमुख का पद एक झुनझुना है।

जगत प्रकाश नड्डा से लेकर मल्लिकार्जुन खड़गे तक का चेहरा बताता है कि पार्टी अध्यक्ष का पद अब बस प्रायोजित तमाशा भर है। जब पूरा जनसंचार माध्यम कांग्रेस से सवाल कर रहा था कि पार्टी को पूर्णकालिक गैर गांधी परिवार अध्यक्ष कब मिलेगा तो राहुल गांधी ने अदृश्य अध्यक्ष का चोला उतारने में जरा भी देरी नहीं की। लेकिन, उसी दौरान राष्ट्रीय जनता दल लगातार बारहवीं बार लालू यादव को निर्विरोध रूप से अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर रहा था। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ही क्यों हैं, इस पर हल्ला बोल नहीं होता।

कांग्रेस को गांधी परिवार के बाहर का और पूर्णकालिक अध्यक्ष मिलने के बाद से लग रहा कि अब इस पद पर सारे सवाल बंद हो जाएंगे। भाजपा की कार्यशैली के विपरीत नड्डा को कार्यकाल का विस्तार मिला। इसके बाद न तो पार्टी के अंदर और न बाहर से ही पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र को लेकर सवाल उठे। कांग्रेस अध्यक्ष पद के गांधी परिवार से मुक्त होते ही राजनीति, पार्टी अध्यक्ष पद की महत्ता से जुड़े सवालों से भी मुक्त हो गई है। अब घोषित तौर पर मल्लिकार्जुन कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। इसी दौरान राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पूरी कर जननेता का खिताब पा चुके हैं।

आज कांग्रेस से लेकर हल्ला बोल टीवी चैनलों पर कोई यह याद नहीं रखता कि वैधानिक रूप से अध्यक्ष कौन है क्योंकि जमीन पर चारों तरफ राहुल ही राहुल हैं। खड़गे के अध्यक्ष बनने और यात्रा पूरी होने के बाद अब कांग्रेस के अंदर गांधी परिवार की पकड़ ज्यादा है, यह दावा करते हुए कि राहुल ने वंशवादी गांधी को मार दिया है। कांग्रेस में अध्यक्ष पद की अर्थहीनता का अहसास राहुल कर चुके थे तो अब भाजपा ने भी बता दिया है कि हारे को पदनाम यानी इस पद की अब चलाचली की बेला है।