जब सेना युद्ध जैसे हालात को संभाल रही हो तो सत्ता को बुद्ध जैसी भाषा बोलनी चाहिए। पहलगाम आतंकवादी हमले का लक्षित जवाब देने के बाद दुनिया को इसकी सूचना देने के लिए भारत सरकार की आधिकारिक भाषा में जो संयम व संवेदनशीलता का व्याकरण था वह थोपे गए युद्ध जैसे हालात में एक पाठ के तौर पर पढ़ना अनिवार्य कर देना चाहिए। जब बैरक से निकलना सेना की मजबूरी हो जाती है तो सत्ता से लेकर नागरिकों के जिम्मे सिर्फ सब्र बरतने की जिम्मेदारी होती है। भारत सरकार के संयम के बरक्स पाकिस्तान के हुक्मरानों ने युद्धोन्मादी हुंकार भरी कि हमारे जंगी हथियारों से लेकर परमाणु बम शबे-बारात के लिए नहीं हैं, इनका रुख हिंदुस्तान की तरफ ही है। जब कोई देश युद्ध को त्योहार की तरह देखने लगे तो उसके युद्धोन्माद को समझा जा सकता है। आतंकवादियों के जनाजे को राजकीय सम्मान देकर पड़ोसी देश ने खुद ही दुनिया को सबूत दे दिया कि उसे आतंकिस्तान क्यों कहा जा रहा। आतंकपरस्ती में पाकिस्तान के जगजाहिर से जंगजाहिर तक के सफर पर बेबाक बोल।
2025 की छह और सात मई की दरम्यानी रात अब भारत के इतिहास में दर्ज है। बीता हर कुछ इतिहास का हिस्सा हो जाता है, अहम यह है कि आपने उसे दर्ज कैसे किया कि अगली पीढ़ी अपने पुरखों के बारे में नम्र और फक्रमंद आंखों से पढ़े।
पहलगाम पर आतंकवादी हमले के बाद इस विविधता और बहुलता भरे देश में जिस तरह का माहौल बना था उसके बाद यहां का हर संवेदनशील नागरिक फिक्रमंद था। हिंदुस्तानी जनता को अपनी हुकूमत पर भरोसा था कि वह अपने नागरिकों की शहादत को श्रद्धांजलि देगी। पूरी उम्मीद थी कि सरकार उन कसूरवारों को जरूर सजा देगी जिनके कारण लोग अपनी हुकूमत से पूछ रहे थे कि हमारा क्या कसूर था? जिनके कारण एक मुख्यमंत्री सदन में रो पड़े कि मैं अपने राज्य में आए मेहमानों को महफूज नहीं रख सका। पहलगाम में 26 नागरिकों की हत्या ने देश की 146 करोड़ जनता को सवालतलब कर दिया कि उन आतंकवादियों का हश्र क्या होगा?
मुश्किल सवालों का जवाब देने के पहले अच्छी तरह से सोच-समझ लेना बुद्धिमता की निशानी होती है। बेसब्र सी हुई आम जनता के कब, कब वाले सवालों से सरकार ने धीरज नहीं खोया। आतंकवादियों की पनाहगाह सीमा पार थी तो उनकी तरफ से सारी सीमाओं को तोड़ देने के बाद भी सरकार ने अपने गौरवशाली अतीत को देखते हुए सीमा का सम्मान करने की ही सोची। आपने कोई काम किया यह अहम है, इसके साथ उतना ही अहम है कि आप अपने किए काम की जानकारी कैसे देते हैं? आपकी भाषा से देश सहित पूरी दुनिया को किस तरह का संदेश जाता है?
रात के अंधेरे में भारतीय सैन्यबलों की कार्रवाई के बारे में सत्ता और सेना के तीन प्रतिनिधियों ने जिस भाषा और शैली में बताया उसने देश की एकता, भाईचारे, सौहार्द में सैकड़ों सूरज की रोशनी भी भर दी। किसी भी देश की निर्मिति में उसके इतिहास का योगदान होता है, साथ ही आपको भी इतिहास के खाते में अपने हिस्से का देना होता है। पहलगाम में आतंकवादियों ने भारत के लोक पर हमला किया था। जवाब में लोक की उस भावना का ध्यान रखा जिसमें जीवन, साहस और रिश्तों में समर्पण प्रतिबिंबित होता है। ‘आपरेशन सिंदूर’ उस लोक-भावना के लिए था जिसकी सुरक्षा के लिए भारत की सरकार जिम्मेदार है।
भारत के विदेश सचिव विक्रम मिसरी, कर्नल सोफिया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह ने जिस भाषा में संबोधित किया बस उसका सीधा प्रसारण देख करके ही देश के नागरिकों का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। टीवी एक सार्वजनिक माध्यम है तो इसका इस्तेमाल सार्वजनिक हित के लिए ही होना चाहिए। बहुत दिनों बाद देश के संवेदनशील नागरिकों को लगा होगा कि टीवी देखना भी अच्छा काम हो सकता है। सेना व सत्ता के इन तीन प्रतिनिधियों के संबोधन के पहले लोगों ने सोशल मीडिया पर जितनी पोस्ट पढ़ी होंगी उसके बाद आधिकारिक बयान की महत्ता समझी होगी।
तीनों प्रतिनिधियों का भाषण सुन कर अगर समाचार प्रस्तोताओं ने अपने व्याकरण की सुध ली होगी तो यह हमारे भविष्य के लिए और भी अच्छा होगा। इसमें पहला सबक था, बदला और इंसाफ का फर्क समझना। सत्ता और सेना दोनों लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं और इनका काम बदला लेना नहीं बल्कि अपने नागरिकों को सुरक्षा और इंसाफ देना है। तीनों प्रतिनिधियों का प्रथम भावार्थ यही था कि हमने कोई भी उकसावे वाली कार्रवाई नहीं की है। टीवी चैनलों से लेकर अन्य मंचों पर सेना की जो छवि बनाई गई है उसके उलट ये तीनों एक ऐसे शिक्षक की तरह बोल रहे थे जो जान रहे थे कि उनके बोले एक-एक शब्द विद्यार्थियों के लिए अहम हैं। शिक्षक जिस भाषा में बोलता है बाद में विद्यार्थी भी उसे दुहराते हैं। तीन लोगों के बोले इस सीधे प्रसारण ने पूरे देश को एकता और सौहार्द की सीधी लकीर में खड़ा कर दिया।
उम्मीद है कि चैनलों के प्रस्तोताओं से लेकर देश के हर तबके नेतीनों से सौहार्द की भाषा बोलने के संस्कार सीखे होंगे। उन्हें समझ आ गई होगी कि सरकार ने उनके इतने चीखने-चिल्लाने के बाद भी गिलगिट, बाल्टिस्तान को कब्जे में लेने की बात नहीं कही। ऐसा लगा कि इस अभियान को तैयार करने वाला एक भी शख्स चैनलों के ‘प्राइम टाइम’ का प्रशंसक नहीं था।
भारत सरकार के आधिकारिक बयान के अनुसार सबसे अहम यह था कि ‘आपरेशन सिंदूर’ किसी देश और उसकी संप्रुभता के खिलाफ नहीं है। यह एक ऐसे दुश्मन के खिलाफ था जो पूरी दुनिया का दुश्मन है और दुर्भाग्य है कि एक खास देश की सीमा के अंदर अपनी पैठ बना कर आतंकवाद का मरकज बना हुआ है। आतंकवाद ऐसी विचारधारा है जिसके साथ किसी देश की दोस्ती नहीं हो सकती है। जिस देश की सीमा में यह अभियान चलाना पड़ा वह देश खुद भी इस आतंकवाद के हमले से लहूलुहान है। वहां एक तबका है जो अपने फौरी फायदे के लिए इसके जख्म झेल रहा है।
‘आपरेशन सिंदूर’ आतंकवादी ठिकानों के खिलाफ एक लक्षित अभियान था। इसका मकसद न तो पाकिस्तान की सैन्य संरचना और न ही वहां के नागरिकों को नुकसान पहुंचाना था। इसका एकमात्र मकसद उस पौधशाला को खत्म करना था जहां आतंकवादियों की फसल लहलहा रही थी। पड़ोसी देश की संप्रुभता की दीवार की सीमा का सम्मान करते हुए अपने हिस्से के आसमान से ही आतंकवादियों के गढ़ पर निशाना साधा। यह एक जवाब था देश के उन नागरिकों के लिए जो पूछ रहे थे कि हमारे निर्दोष परिजनों का क्या कसूर था? एक जिम्मेदार राष्ट्र ने अपने नागरिकों के लिए यह जिम्मेदाराना कदम उठाया।
इस अभियान में सत्ता और सेना के तीनों अंगों का पूर्ण समन्वय रहा। सरकार सेना को पूर्ण नैतिक समर्थन देकर दैनंदिनी के कामों में जुट गई। जब जनता व सत्ता सेना पर लोकतांत्रिक तरीके से भरोसा करती है तो सेना भी सर्वश्रेष्ठ परिणाम देती है। सेना के तीनों अंगों ने आतंकवादियों के ठिकानों को एक ‘शल्य-कक्ष’ की तरह लिया और उन्हीं जगहों पर शल्य-चिकित्सा की जहां आतंकवाद का कैंसर जहर बन कर पसरा हुआ था।
आज के समय में युद्ध किसी देश का निजी मामला नहीं होता। आप पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजर होती है। अन्य देशों के लिए हम ऐसे दो पड़ोसी देश हैं जो लंबे समय से उलझे हुए हैं। ऐसे अभियानों के वक्त सरकार को अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का भी ध्यान रखना पड़ता है। अभी तक तो यही दिख रहा कि भारत सरकार की इस कार्रवाई को उसके सहयोगी देश जायज मान रहे हैं जो एक बड़ी उपलब्धि है। भारत के सहयोगी देशों ने भारत की उस भाषा को समझा है जो उसने अपने नागरिकों को इंसाफ दिलाने के लिए बोला। पाकिस्तानी हुकूमत ने आतंकवादियों के जनाजे को राजकीय सम्मान देकर खुद ही दुनिया को इस बात का सबूत दे दिया कि उसका राज-काज किस कदर आतंकवादियों के साथ मिलीभगत कर चुका है।
पहलगाम के शहीदों को सत्ता की सच्ची श्रद्धांजलि यही रही कि इस बार सरकार विपक्ष को उपेक्षित करने के इल्जाम से दूर रही। सरकार ने सबको अपने साथ आने का आह्वान किया। विपक्ष भी जिम्मेदारी भरे रुख के साथ सेना व सरकार के साथ खड़ा है।
‘आपरेशन सिंदूर’ के बाद जो हालात बने हैं उससे साफ है कि आगे कुछ भी हो सकता है। अभी आगे के फैसले लेने की कमान सैन्यबलों के हाथों में है। पहले अभियान के साथ जो सबक मिला है अभी हम सब उसे आगे के लिए ध्यान रखें। यह सोशल मीडिया का समय है। किसी भी गैर आधिकारिक खबर, वीडियो को प्रसारित करने से बचें। भारत जैसे लोकतांत्रिक देशों में सेना तभी बैरकों से बाहर निकलती है जब सत्ता के पास युद्ध के अलावा कोई उपाय नहीं बचता है। जब देश की सेना युद्ध पर हो तो नागरिकों के बुद्ध होने का समय होता है।