उत्तर प्रदेश का भूला हरियाणा में घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते…लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में मात खाने के बाद हरियाणा में भाजपा ने अपने पितृ-पक्ष संघ को ही प्रमुख माना। कांग्रेस की हवा के बीच संघ के कार्यकर्ता भाजपा की छिन रही जमीन को बचाने के लिए पूरी तरह से जुट गए। नतीजे के रूप में संघ का हरियाणा माडल निकला। तब लगा कि अब सरकार बनाने में भी इस माडल का ध्यान रखा जाएगा। मंत्रिमंडल का सदस्य बनने के लिए जनता से जमीनी जुड़ाव ही एकमात्र शर्त होगी। पितृ-पक्ष के आदर्शों को परिधि पर रख सरकार बनाने के लिए उसी तुष्टीकरण के माडल को चुना गया जिसे पिछले सत्तर वर्षों के हर बुरे के लिए जिम्मेदार बताया गया। संघ के संघर्ष से राजनीतिक सफलता मिलते ही सरकार बनाने के लिए अंकगणित के हुनरमंद सामने आए। पार्टी अनुशासन का अनादर करने वाले अनिल विज हों या श्रुति चौधरी, जो अपनी रौब जमा सकता है वह मंत्रिमंडल में पद पा सकता है। नायब सिंह सैनी की नई सरकार में तुष्टीकरण की पुरानी रवायत पर बेबाक बोल।
मैं अनिल विज शपथ लेता हूं…
हरियाणा में नायब सिंह सैनी सरकार के नए मंत्रिमंडल में सबसे पहले अनिल विज ने शपथ ली। वही विज जो पूरे चुनाव के समय पार्टी के लिए प्रचार से दूर-दूर रहे। शेरो-शायरी व दर्द-भरे नगमों से अपनी नाराजगी जाहिर करते रहे। गालिबाना मिजाज के साथ ‘एक्स’ पर कभी कुछ लिखते, फिर हटा देते। कथित पार्टी अनुशासन को उन्होंने सरेआम चुनौती दी। अपनी ही सरकार पर सवाल उठाए। यहां तक कि पार्टी आलाकमान द्वारा मुख्यमंत्री का चेहरा नायब सिंह सैनी को तय कर दिए जाने के बाद भी उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी जारी रखी।
मजबूत सरकार है या मजबूर सरकार
नायब सिंह सैनी सरकार के मंत्रिमंडल को देख कर असमंजस हो रहा कि यह मजबूत सरकार है या मजबूर सरकार? चुनाव के पहले सरकार विरोधी माहौल था, कांग्रेस के पक्ष में हवा दिख रही रही थी। सभी सर्वेक्षणों में कांग्रेस की बढ़त बताई जा रही थी। डाक मतपत्रों की गणना में कांग्रेस आगे दिखाई दी। इन सबके बाद हरियाणा में भाजपा को अब तक का सर्वश्रेष्ठ बहुमत मिला। इससे अंदाजा लगाया जा रहा था कि सैनी मंत्रिमंडल में बागियों और ऐन चुनाव के समय हृदय परिवर्तन कर भाजपा में शामिल लोगों को तवज्जो नहीं दी जाएगी।
सैनी मंत्रिमंडल भी चुनाव नतीजों की तरह जमीनी रपट से अलग है। कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आने वालीं किरण चौधरी को राज्यसभा का सांसद बनाना पड़ा था। उनकी पुत्री श्रुति चौधरी जो पहली बार विधायक बनी हैं, हरियाणा सरकार के मंत्रिमंडल में उन्हें भी जगह देनी पड़ी। जो केंद्रीय मंत्री अपनी तरक्की नहीं होने की नाराजगी के साथ नेताओं की पलटन को लेकर चले जाएंगे वाला माहौल बना रहे थे उनकी बेटी को भी मंंत्रिमंडल में जगह देनी पड़ी। सैनी मंत्रिमंडल में जिन दो महिलाओं को प्रतिनधित्व मिला, वह राजनीतिक संघर्ष के जज्बे नहीं, तुष्टीकरण वाली व आयाराम-गयाराम राजनीति के फलसफे के तहत ही है।
खट्टर का खड़ा किया नौकरशाही मौजूद
फिर हरियाणा में बदला क्या? जिस खट्टर सरकार से किसान, जवान, पहलवान नाराज थे उसी के दबदबे वाले चेहरों को प्राथमिकता मिली। तकनीकी रूप से चुनाव के कुछ महीने पहले मनोहर लाल खट्टर को मुख्यंत्री पद से हटा दिया गया था। खट्टर के चेहरे के साथ उनकी नाकामियों को जादू से गायब तो कर दिया गया, लेकिन खट्टर का खड़ा किया गया नौकरशाही का अमला पूरी तरह से हाजिर भी था और नाजिर भी। खट्टर-काल के चेहरों के साथ दूसरे दल से आई नेता व नाराज पिता की पुत्री को प्रतिनिधित्व देने के बाद नायब सिंह सैनी का अपना चेहरा कितना बच गया?
क्या भाजपा हरियाणा में सैनी के चेहरे पर चुनाव जीती थी? हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद सबसे बड़ी चर्चा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका की हुई। कहा गया कि लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में हार के बाद भाजपा अपने पितृ-पक्ष की ओर लौट आई। संघ ने भी संदेश दिया कि उत्तर प्रदेश का भूला अगर हरियाणा में लौट आए तो उसे भूला नहीं कहते हैं। खट्टर के चेहरे पर चिपकाए गए सैनी के बाद संघ ने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। खट्टर सरकार से नाराज किसान, जवान और पहलवानों को भरोसा दिलाया कि अबकी बार आए तो सब कुछ बदल जाएगा। बाजारू रणनीति मार्का चाय पर चर्चा व अन्य प्रायोजित महंगी भीड़ जुटाऊ शैली को नकार कर संघ के कार्यकर्ताओं ने खुद को जनता समझते हुए जनता से नाता जोड़ा। संघ ने खट्टर सरकार के अहंकार के दाग को अपने प्यार से धो दिया।
कर्नाटक से लेकर उत्तर प्रदेश तक में भाजपा की हार ने पितृ-संगठन को इस बात का अहसास करवा दिया था कि कांग्रेस वह घास है जो भाजपा के अहंकार और तुष्टीकरण वाली रणनीति के मैदान में हरी-भरी हो जाएगी। पिछले लंबे समय से भाजपा और कांग्रेस की राजनीतिक शैली को जिन बिंदुओं पर अलग किया जा सकता है, उसमें प्रमुख है संघ की भूमिका। जनता से जमीनी जुड़ाव मजबूत धातु की वह हांडी है जो चूल्हे पर बारंबार चढ़ सकती है। भाजपा जब हरियाणा में गुजरात व अन्य जगहों की तरह मुख्यमंत्री के नए चेहरे के रूप में काठ की हांडी लाई तो संघ ने उसके बरक्स जनता के उबलते, खौलते मनोभावों को धातु की हांडी में इकट्ठा कर जो पदार्थ तैयार किया, वह था हरियाणा में तीसरी बार भाजपा सरकार।
अप्रत्याशित चुनाव नतीजों के बाद लगा था कि भाजपा के लिए हरियाणा माडल अब अखिल भारतीय माडल होगा। जमीनी कार्यकर्ताओं की पूछ बढ़ेगी। संगठन को सर्वोच्च मानने की सोच सरकार गठन में दिखेगी। हरियाणा की नई सरकार का चेहरा देख लग रहा, जैसे कुछ समय पहले पार्टी को जनता की भारी नाराजगी झेलनी ही नहीं पड़ी हो। संघ कार्यकर्ताओं को घर-घर जाकर भाजपा का घर दुरुस्त करने की दरख्वास्त लगानी ही नहीं पड़ी हो। चुनाव को स्थानीय चेहरों के हवाले करने की कवायद करनी ही नहीं पड़ी हो। जैसे सारा वोट दूसरी पार्टी से आए और मतदान तक मुंह फुलाए लोग ही लाए हों।
चुनाव जीतने के लिए संघ की मेहनत वाला हरियाणा माडल और जीत जाने के बाद तुष्टीकरण वाला माडल। यानी प्रशासन को लेकर जनता की नाराजगी को भूल कर, जमीनी कार्यकर्ताओं की मेहनत भूल कर पारिवारिक और जातिगत समीकरण देखना। पार्टी अनुशासन के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें करने के बाद उनको सबसे पहले शपथ का आदर देना जिन्होंने चुनाव नतीजे आने तक अनुशासन का अनादर किया।
जब पंचकूला के दशहरा मैदान में पुरानी छवियों के साथ नई सरकार शपथ ले रही थी, तब तक संघ का कर्मठ कार्यबल महाराष्ट्र की ओर कूच कर चुका था। संघ के मुख्यालय वाले इस राज्य में भाजपा को उसकी बड़ी जरूरत है। परिवार से लेकर भ्रष्टाचार तक के आदर्शों को परे रख अजित पवार के साथ सरकार चलाने वाली भाजपा के सामने कई चुनौतियां हैं।
हो सकता है, महाराष्ट्र में भी संघ भाजपा के सारे दाग धो उसे जनता के सामने पाक-साफ कर खड़ा कर दे। हरियाणा की तरह वह महाराष्ट्र में भी पूरी मेहनत करने के लिए पहुंच चुका है। संघ कार्यकर्ता वहां घर-घर दस्तक देना शुरू कर भी चुके हैं। सवाल यह है कि जमीन पर संघ के साथ आदर्शों की लड़ाई जीतने वाली भाजपा भी सरकार बनाते वक्त सत्तर सालों से चल रहा तुष्टीकरण वाला माडल क्यों ले आती है? उन चेहरों को दरकिनार क्यों नहीं करती, जिनसे पांच साल तक जनता सबसे ज्यादा नाराज रही या जो पार्टी के पद पर अपने अधिकार को अपना प्राकृतिक अधिकार समझते हैं? संगठन और सरकार की कार्यशैली में इतना विरोधाभास क्यों?
लोकसभा चुनाव से लेकर हरियाणा विधानसभा चुनाव में यह विरोधाभासी शैली दिख रही है। जनतंत्र में इस विरोधाभास की व्याख्या कैसे की जाए? फिलहाल तो यह दिख रहा कि सरकार परंपरागत तरीके से परिवार, तुष्टीकरण, जातिवाद की क्रिया करती रहे और पांच साल बाद जनता की प्रतिक्रिया का प्रबंधन करने का भार संगठन के कंधों पर डाल दिया जाए।
जनता, संगठन और सरकार को समझने के लिए हरियाणा अभी-अभी तो राजनीतिक विश्लेषकों के लिए शोध की जगह बना था। यहां नाकाम हुए सारे अकादमिकों, पत्रकारों, सर्वेक्षणकारों ने अंतत: संघ की शरण ली और पितृ-पक्ष को ही नायक बताया। असल मुद्दा यहां नायक का ही है। हम परंपरागत तरीके से हर जीत में नायक खोजते हैं किसी भी लड़ाई को अ बनाम ब कर देते हैं। संघ के कार्यकर्ता अ-नायक की तरह आम लोगों में घुले-मिले होते हैं जिन्हें बाजार वाले सर्वेक्षणकार जीत मिलने के बाद ही पहचान पाते हैं। सवाल यही है कि अ-नायकों के जीते मैदान में वो शपथ क्यों ले रहे जिनकी इस युद्ध में खुद को जबरिया नायक सिद्ध करने के अलावा कोई भूमिका नहीं रही? संगठन और सरकार का यह विरोधाभास कितनी दूर तक चल पाएगा?