जो सत्ता जनता की पाई-पाई का हिसाब रखना चाहती है वह प्रावधान लेकर आई कि जनता न जान पाए कि उसके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा कहां से आ रहा है। राशन के पैकेट पर सरकार का निशान, गान से लेकर हर तरह की पहचान लाभार्थी को देकर तस्वीर खिंचवाने वाली सत्ता नहीं चाहती थी कि वह जिसकी लाभार्थी है, उसकी तस्वीर तो दूर नाम तक भी सामने आए। लोकतंत्र में बड़ी पूंजी का प्रवेश भागीदारी के अनुपात को बिगाड़ता है, यह तथ्य था, चुनावी बांड इसका प्रमाण बना कि किस तरह कभी रसीद पुस्तिका से दस रुपए चंदा देनेवाली जनता की वैचारिक सक्रियता चुनावी प्रक्रिया से बाहर कर दी जाएगी। चुनावी बांड के शुरुआती आंकड़े इस बात की पुष्टि करते नजर आ रहे हैं कि एक हाथ पैसा दो, दूसरे हाथ से फायदा लो के आरोप सही साबित हो सकते हैं। जिस चुनावी बांड को अब खत्म कर दिया गया है वह लोकतंत्र को अमीरों का, अमीरों के द्वारा और अमीरों के लिए शासित व्यवस्था बना रहा था। गुमनाम चुनावी चंदा मामा लोकतंत्र को सबका नहीं रहने देते, इस पर पहले भी अपने रखे तर्क को आगे बढ़ाता बेबाक बोल।
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बाजार के डूबने की क्या वजह थी? क्या कोई वैश्विक आर्थिक संकट आया, प्राकृतिक आपदा आई या अचानक सत्ता परिवर्तन हो गया? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। हुआ सिर्फ इतना कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आम लोगों तक यह जानकारी पहुंचने वाली थी कि चुनावी बांड के तहत किस राजनीतिक दल को किन कारोबारी समूहों की तरफ से कितना चंदा मिला। भला इस जानकारी से बाजार को क्यों नुकसान होना चाहिए? आखिर जनता और चंदा को लेकर सरकार ने भी अदालत में दलील क्यों दी थी कि जनता को यह जानने का हक नहीं कि किसने किसको चंदा दिया?
पूंजीपति सियासी अदावत के शिकार हो सकते हैं
जनता के जानने के हक के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क दिया गया था, पूंजीपतियों की सुरक्षा का। पूंजीपति सियासी अदावत के शिकार हो सकते हैं। मुफ्त का राशन लेनेवाली जनता के बरक्स करोड़ों का चंदा देनेवालों को खतरा था। जो सरकार आम जनता की पाई-पाई का हिसाब रखना चाहती है, आधिकारिक रूप से एक पैसा इधर-उधर होने पर आपको आर्थिक अपराधी बना सकती है वह नहीं चाहती थी कि जनता यह जाने कि चुनाव लड़ने के लिए पैसा कहां से आया।
JNU के छात्रों का पहला प्रशिक्षण रसीद का चंद कटवाने से ही होता था
अब जब यह जानकारी सामने आ चुकी है तो इसके बारे में बात करने से पहले स्पष्टीकरण यह है कि लोकतंत्र में राजनीति के आर्थिक ढांचे की कल्पना चंदे से ही की गई थी। राजनीतिक चंदा वह चीज थी जिसके जरिए जनता की, जनता के लिए और जनता के द्वारा वाली सरकार की कल्पना की जा सकती थी। आज भी आजादी के पहले के बुजुर्ग हमारे घर-परिवारों में हैं। पूछिए, कैसे खेतों-खलिहानों की कमाई से थोड़ा सा चंदा गांधी बाबा के सुराज के लिए निकाला जाता था। सार्वजनिक सभा में झोली फैलाए नेता के सूती कपड़े पर महिलाएं अपने सोने के गहने रख देती थीं। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता के कुर्ते की जेब से झांकती रसीद पुस्तिका को देख कुछ लोग गली में रास्ता बदल लेते थे कि फिर दस रुपए की रसीद कटवानी पड़ जाएगी तो कुछ लोग खुशी से बुला कर रसीद कटवाते थे। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीतिक रूझान वाले विद्यार्थियों का पहला प्रशिक्षण रसीद का चंदा कटवाने से ही होता था। जो विद्यार्थी बिना शर्म के चंदा मांग कर छात्र संघ के कोष में जमा करवा देता था उसे भविष्य का नेता मान लिया जाता था।
पहले पांच रुपए तक की सदस्यता की भी कार्बन प्रति संग रसीद मिलती थी
पहले राजनीतिक संगठनों की दस से पांच रुपए तक की सदस्यता होती थी। इसे समग्रता के साथ देखा जाता था। कार्बन प्रति के साथ रसीद पुस्तिका इस बात की प्रतीक होती थी कि यह सरकार दस रुपए से लेकर सौ रुपए चंदा देने वालों की है। सबसे अहम बात यह कि यह उग्र बाजारवाद से पहले का दौर था। लोगों की कमाई सीमित थी तो दस रुपए की अहमियत थी। अगर आपने अपनी जेब से राजनीतिक दल को दस रुपए भी दिए हैं तो आप वोट भी जिम्मेदारी से देंगे। आज भी मायावती की चुनावी पर्ची सबको याद है। बाकी दलों के भी चंदा अभियान का अपना इतिहास रहा है। चंदा चुनावी प्रक्रिया का अहम हिस्सा रहा है।
डिजिटल इंडिया में अब आपका मोबाइल नंबर ही बन गया विचारधारा
अब चलते हैं 2014 के बाद के डिजिटल इंडिया में। अब आपका नंबर ही विचारधारा है, वह चाहे मोबाइल नंबर हो या बैंक का खाता नंबर। पहले जहां राजनीतिक विचारधारा के प्रशिक्षण के बाद ही राजनीतिक सदस्यता दी जाती थी अब एक मिस्ड काल से ही आप किसी भी राजनीतिक दल के सदस्य हो सकते हैं। किसी तरह का कोई फार्म नहीं भरना, राजनीतिक प्रशिक्षण की कक्षाओं में नहीं जाना। तो समय-समय पर सिम कार्ड समर्थन घोटाला भी सामने आ जाता है।
पहले रसीद पुस्तिका का एक-एक पन्ना भागीदारी की निशानी होती थी
लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक ही मकसद था कि राजनीतिक प्रक्रिया चंद लोगों के हाथों में न जाए। रसीद पुस्तिका का एक-एक पन्ना भागीदारी की निशानी थी। लेकिन, चुनाव सुधार के नाम पर पुस्तिका के पन्नों को खारिज कर चुनावी बांड लाया गया। इसे लेकर जो तर्क दिए गए थे उस वक्त भी सवाल उठे थे। लेकिन, किसी भी डिजिटल के खिलाफ बोलना भी देशद्रोह जैसा ही था। मुद्दा यहां डिजिटल के मूल रूप को विकृत करना भी था। डिजिटल अगर पारदर्शिता न दे पाए तो वह जनतंत्र में किस काम का? डिजिटल चंदे या चुनावी बांड का सबसे अहम पक्ष था गोपनीयता।
राजनीति में जितनी पारदर्शिता होगी भ्रष्टाचार उतना कम होगा। पहले हर किसी को पता होता था कि कौन किस पार्टी का सदस्य है और कितना चंदा देता है। लेकिन चुनावी बांड गोपनीयता के नारे के साथ आया। सरकार इस देश के गरीबों को पांच किलो का राशन देते वक्त अपनी पार्टी का निशान, गान से लेकर पूरी फोटो छपवा कर देती है। राशन देने में लगी फोटो की फोटो भी गली-चौराहों पर लगाई जाती है। लेकिन, तर्क था कि चुनावी बांड वाले अमीरों का नाम सामने नहीं आए। यह गोपनीयता जनतंत्र के मूल्यों पर प्रहार था।
चुनावी बांड ने लोकतंत्र के जिस समीकरण को विकृत किया, वह है भागीदारी का आनुपातिक संतुलन। चुनावी बांड के बाद चंदे के आनुपातिक फर्क का असर यह हुआ कि कभी दस रुपए चंदा देने वाला आम आदमी आज सरकार की फोटो वाली राशन की बोरी लेने का लाभार्थी बन कर रह गया है। सत्ता जिनकी असल लाभार्थी है, उनकी तस्वीर छोड़िए पहचान ही अनाम रखी गई। इसने एक ऐसी बड़ी खाई पैदा की कि कभी एक वर्ग का रेवड़ी कह कर मजाक उड़ा दिया जाता है, फिर अपनी तरफ से रेवड़ी पकड़ा दी जाती है। इसमें भी विपक्ष दे तो रेवड़ी और सत्ता पक्ष दे तो जनकल्याणकारी योजना।
अनाम बांड का सबसे खतरनाक पहलू। अभी तक आई जानकारी के बाद यह इस हाथ ले और उस हाथ दे वाला मामला दिख रहा है। चुनावी बांड के आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद आरोप लग रहे हैं कि 12 अप्रैल 2019 से 24 जनवरी 2024 तक चुनावी बांड खरीदने वाली प्रमुख कंपनियों में से कई को केंद्रीय या राज्य एजंसियों द्वारा कार्रवाई का सामना करना पड़ा। वहीं कुछ कंपनियों को बहुत फायदेमंद सरकारी ठेके मिले और केंद्रीय मंत्री उनकी तारीफ करते पाए गए।
नब्बे के दशक के बाद जो नवउदारवादी व्यवस्था आई, चुनावी बांड उसका उच्चतम रूप था जो चुनावी प्रक्रिया के चंद अमीरों के हाथों में सिमट जाने का संकेत बन रहा था। दस रुपए चंदा देनेवाला सरकार का भागीदार नहीं मुफ्त-मुफ्त वाला लाभार्थी था, जिसके लाभ की समय-सीमा हर चुनाव के समय बढ़ा दी जाती है। आम लोगों के दस रुपए की जरूरत खत्म होने का असर यह है कि आज सत्ताधारी दलों के आलीशान दफ्तर छोटी-छोटी जगहों पर भी खुल रहे हैं।
आजादी के पहले और उसके बाद का वह दौर भी देखा गया है जब पूंजीपति वर्ग राजनेताओं के ठहरने-खाने की मदद करते थे। वह मदद इतनी सार्वजनिक होती थी कि आज ‘बिरला हाउस’ तीर्थ स्थल सा बन गया है। पूंजीपति की इमारत के परिसर में गांधी उन लोगों से मिलते थे जिन्होंने सुराज के लिए एक से दो पैसे की मदद की थी। आज जब नेताओं को मिलने वाली यह मदद करोड़ों से लेकर अरब तक पहुंच चुकी है तो बस पूंजीपति का नाम गुमनाम था ताकि अमीरों की, अमीरों द्वारा और अमीरों के लिए बनी सरकार के दानदाताओं को पांच किलो मुफ्त राशन लेने वाली निरीह जनता से खतरा न हो।
इस देश की जनता सत्यनारायण कथा में भी जाती है तो आरती में एक रुपया देकर ही प्रसाद लेती है। जो जनता मुफ्त में प्रसाद भी नहीं लेती थी वह आज अपने घर का मुफ्त राशन ले रही है। डर है कि आगे ऐसी जनता को किसी विचारधारा से फर्क नहीं पड़ेगा, किस पार्टी की सत्ता है इससे फर्क नहीं पड़ेगा। फर्क जिनके नामों से पड़ रहा था क्या उन नामों को जान कर आगे किसी को फर्क पड़ेगा? जब राजनीति में भागीदारी का अनुपात बिगड़ता है तो इन सवालों के जवाब के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ता है।
चुनावी बांड के पहले राजनीतिक दलों को कारोबारी क्षेत्र से चंदा लेने के संदर्भ में कंपनी एक्ट 2013 से नियंत्रित किया जाता था। यहां तक कि दानदाता कंपनी के लिए भी नियम थे। खंड 182 के अनुसार दान देने वाली संस्था का तीन साल पुराना होना जरूरी था। इसके अलावा कंपनी अपने मुनाफे का 7.5 फीसद से ज्यादा हिस्सा दान नहीं कर सकती थी। कंपनी के लिए अपने इस राजनीतिक दान को अपने आधिकारिक वित्तीय दस्तावेजों में दर्ज करना भी अनिवार्य था।