आम जनता के लिए धर्म अभाव में भाव की भूमिका निभाता है। वहीं राजनीति धर्म को सत्ता का मोक्षद्वार बना चुकी है। जब आम जनता के घरों, मंदिरों से ज्यादा सत्ता के मंच से धर्म और धार्मिक प्रतीकों का बखान होने लगता है तो उसका असर यही दिखता है कि संसाधनों की कमी जैसे बुनियादी सवाल सबसे पीछे खड़े कर दिए जाते हैं। पिछले एक दशक में स्कूल, कालेजों से लेकर शैक्षणिक संस्थाओं के दीक्षांत समारोहों में जिस तरह धर्म-दीक्षा देने की होड़ लगी रहती है उसके शोर में विद्यार्थी यह नहीं पूछ पाते कि हमारे लिए अच्छी प्रयोगशाला और पुस्तकालय क्यों नहीं हैं। पिछले दिनों भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने स्कूली बच्चों के एक समारोह में हनुमान जी को पहला अंतरिक्ष यात्री बता दिया। उन्हें इस बात की परवाह नहीं दिखी कि विद्यार्थी कार्यक्रम में दरी पर बैठे हुए हैं। शिक्षा के नाम पर धर्म-दीक्षा देने की वकालत करने वाले ये राजनेता हमारी शिक्षा नीति के संकटद्योतक हैं। भगवान हनुमान इनके लिए बुनियादी सवालों से बचाने वाले संकटमोचक हैं। शिक्षा के संसाधनों पर इस संकटद्योतक के संदर्भ में बेबाक बोल।
शुभांशु शुक्ला…। नाम तो याद होगा देशवासियों को। यह दूसरी बात है कि माननीय भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर उन्हें अंतरिक्ष में जाने वाले दूसरे भारतीय कहेंगे या तीसरे। अब तक पढ़े गए ‘गलत ज्ञान’ के हिसाब से कहें तो पहले भारतीय अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा थे। शिक्षा और विकास दोनों सहचर शब्द हैं। शिक्षा का इतिहास मानव के विकास का भी इतिहास है। भारत के विकास का इतिहास यह भी है कि भगवान हनुमान या भगवान कृष्ण की पौराणिक कहानी की तरह इस देश के बच्चों ने राकेश शर्मा की कहानी को आधुनिक मिथक की तरह पढ़ा। राकेश शर्मा की अंतरिक्ष यात्रा की कहानी भारतीय बच्चों ने देशप्रेम और राष्ट्रवाद के मिसाल के तौर पर पढ़ी थी और उम्मीद है कि आगे भी पढ़ेंगे।
आजादी हासिल करने के बाद नौजवान भारत का एक नागरिक अंतरिक्ष पहुंचा। तत्कालीन देश की प्रधानमंत्री को देश के पहले अंतरिक्ष यात्री से यह जानने की उत्सुकता थी कि वहां से हमारा भारत कैसा दिखता है? कैसा है वहां से हमारा अस्तित्व? ऊपर से हमारा देश कैसा दिखता है…प्रधानमंत्री के इस सवाल के जवाब में भारत के अंतरिक्ष यात्रीराकेश शर्मा ने कहा, सारे जहां से अच्छा…। एक भारतीय नागरिक और देश के प्रधानमंत्री का यह संवाद नए भारत के विकास का संवाद था। भारत के कदम अंतरिक्ष पर थे। बेबाक बोल दावा कर सकता है कि राकेश शर्मा और इंदिरा गांधी के संवाद को पढ़ते वक्त आज भी पाठकों का मन गर्व से भीगा होगा। वह पल जब हमने अंतरिक्ष से अपने देश के बारे मे सुना था-सारे जहां से अच्छा।
राकेश शर्मा रूस के सहयोग से अंतरिक्ष गए थे। दुनिया भर के देशों को तीन श्रेणियों में बांटा जाता है। अविकसित, विकाशील और विकसित। भारत विकासशील का तमगा इसलिए हासिल कर पाया है कि उसका इतिहास राकेश शर्मा से बढ़ कर शुभांशु शुक्ला तक पहुंचा। विकासशील भारत का वह समय आया जब भारत सरकार ने देश की जनता के पैसों से शुभांशु शुक्ला को अंतरिक्ष में भेजा ताकि भारत अंतरिक्ष विज्ञान में अपना स्वतंत्र विस्तार कर सके। भारत विकासशील से विकसित की श्रेणी में राकेश शर्मा से लेकर शुभांशु शुक्ला तक के विकास से ही आएगा।
शुभांशु शुक्ला जब अंतरिक्ष जा रहे थे तब देश का हर अभिभावक उसमें अपने बच्चे का विकास देख रहा था। पूरे देश ने इसे अपनी निजी सफलता माना। शिक्षा का मानक यही है कि आप सामूहिकता में अपनी निजता देखें। यही है राष्ट्रवाद, यही है देशप्रेम।
विकास की गाथा गा रहे इस देश का ही एक दृश्य देखिए। भाजपा के सांसद एक स्कूल में जाते हैं। स्कूल की छात्राएं जमीन पर दरी पर बैठी हुई हैं। उन्हें जितनी और जैसी सुविधा मिल रही है उसी में वे ज्ञान प्राप्त करने को लालायित दिख रही हैं। बच्चों को मां-बाप ने समझाया है कि वह सिर्फ स्कूल और वहां की पढ़ाई है जो तुम्हें दरी से उठा कर अंतरिक्ष में, चांद पर भेज सकती है।
इंटरनेट पर ‘वायरल’ उस वीडियो में विद्यार्थियों के चेहरे पर अपने सांसद को सुनने की चमक देखिए। ठाकुर जब दुनिया के पहले अंतरिक्ष यात्री का नाम पूछते हैं तो बच्चे उत्साह से अपनी जानकारी के हिसाब से जवाब देते हैं। लेकिन उनके सही जवाब को नकार कर अनुराग ठाकुर हनुमान जी को दुनिया का पहला अंतरिक्षयात्री बता देते हैं। अनुराग ठाकुर को क्या हक है कि वो एक स्कूल के मंच से विद्यार्थियों को शिक्षा के नाम पर धार्मिक शिक्षा देने लग गए। आधुनिक शिक्षा का रूप हमेशा से वैश्विक ही होगा। अगर हम शिक्षा में अपने धर्म को घुसाएंगे तो अन्य धर्म वाले भी ऐसा करेंगे। मुसलिम शासक अपने धर्म के तो, ईसाई अपने धर्म के प्रतीकों को पहला अंतरक्षियात्री बताएंगे।
भारत सरकार की नई शिक्षा नीति में यह जोर दिया गया है कि सभी विषयों को भारतीय ज्ञान परंपरा से जोड़ कर पढ़ाया जाए। ज्ञान परंपरा एक विस्तारित भाव का शब्द है। भारतीय ज्ञान परंपरा के नाम पर अगर हर विषय में देवी-देवताओं और धर्म का घालमेल कर दिया जाएगा तो हम वैश्विक ज्ञान परंपरा में बहुत पीछे छूट जाएंगे। किसी भी मंच पर, किसी भी विषय में भारतीय देवी-देवताओं को जोड़ देना भारतीय ज्ञान परंपरा को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है। भारतीय ज्ञान परंपरा को इतने अज्ञानी तरीके से पढ़ाने का सिलसिला जितनी जल्दी खत्म हो जाए उतना अच्छा है।
परंपरा को समय और काल के हिसाब से संशोधित कर ही विकास का रास्ता तैयार होता है। आज स्कूली बच्चे दिवाली पर हरित पटाखे जलाते हैं ताकि पर्यावरण का कम नुकसान हो। बच्चे घर के अंदर अपने अभिभावकों की आस्था और धर्म के अनुसार व्यवहार करते हैं, दादी-नानी से देवी-देवताओं की गाथा सुनते हैं। यह उनके सांस्कृतिक विकास का आधार है। लेकिन स्कूलों में सभी धर्म के बच्चे भारत के नागरिक के तौर पर शिक्षा लेने आते हैं।
स्कूली शिक्षा का उद्देश्य देश के लिए जिम्मेदार नागरिक तैयार करना होता है। घर और स्कूल के वातावरण का यही फर्क है कि एक बच्चा अपने घर में अपने पारिवारिक सांस्कृतिक मिथकों के उत्पाद के रूप में तैयार होता है। स्कूल में उसे सार्वभौमिकता की शिक्षा दी जाती है।
पिछले दस सालों से हम देख रहे हैं कि स्कूल से लेकर आइआइटी तक के मंचों पर हमारे नेता देवी-देवताओं की कहानियों पर अटक जाते हैं। शिक्षण संस्थानों के दीक्षांत समारोहों में पौराणिक किरदारों पर भाषण देने की होड़ मची रहती है। अगर आप भौतिकी के किसी सिद्धांत पर शोध की डिग्री ले रहे हैं तब भी डिग्री देने वाले कोई माननीय सांसद या नेता बता देंगे कि ऐसे शोध तो पौराणिक काल में कई हो चुके थे। अब यह शोध करने का समय आ गया है कि देश के शिक्षण संस्थानों के दीक्षांत समारोहों में कितनी तरह की धर्म-दीक्षा दी गई है।
एक सांसद जनता का प्रतिनिधि होता है। अपने क्षेत्र की जनता की बुनियादी जरूरतों की जिम्मेदारी उस पर होती है। काश हम इंटरनेट पर प्रचारित वीडियो का उल्टा दृश्य देख पाते। अनुराग ठाकुर जमीन पर बैठे बच्चों को देखते ही स्कूल प्रशासन से सवाल करते कि बच्चों के बैठने के लिए कुर्सियों का इंतजाम क्यों नहीं है? वे जमीन पर बैठे बच्चों से पूछते कि क्या स्कूल में उनके लिए पर्याप्त डेस्क और बेंच हैं? क्या उनके स्कूल की प्रयोगशाला उन्हें भविष्य का अच्छा वैज्ञानिक बनाने के लिए पर्याप्त है? क्या उनके स्कूल में पुस्तकालय में अच्छी किताबें हैं?
अफसोस एक सांसद का जो कर्त्तव्य होना चाहिए था वे उसे भूल कर स्कूली बच्चों की नानी-दादी वाली भूमिका निभाना चाहते हैं। देवी-देवताओं की कहानियां सुना कर हकीकत से भटकाना चाहते हैं। इस नई ‘अशिक्षा’ नीति का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आपको स्कूलों-कालेजों को संसाधन देने की बात नहीं करनी पड़ती है। जनता यह समझ रही है कि हनुमान आपके लिए ‘संकटमोचक’ हैं। ज्ञान-विज्ञान के लिए पर्याप्त साधन नहीं जुटा पाने के सवालों के ‘संकटमोचक’ हैं। बेबाक बोल का इस कथित नई शिक्षा नीति के ध्वजवाहकों से अनुरोध है कि कृपया शैक्षणिक मंचों से पौराणिक, धार्मिक मिथकों को दूर रखें।
