बात इम्तहान और उससे जुड़े प्रदर्शन की है तो चुनाव सबसे बड़ा इम्तहान होता है। 2024 के लोकसभा चुनावों में रोजगार से लेकर पर्चा लीक बड़ा मुद्दा था। भाजपा को बहुमत से वंचित रख जनता ने सोचा कि चुनावी परीक्षा के नतीजों से चेत कर सरकार अपनी कार्यशैली को दुरुस्त करेगी। चुनावी नतीजों के साथ ‘नीट’ परीक्षा के नतीजे भी निकले और उसमें भयंकर गड़बड़ी के आरोप लगे। लेकिन, ‘कृपांक’ पाए प्रधान ने दस साल से चली आ रही शैली के तहत किसी भी तरह की गड़बड़ी से इनकार किया। हालांकि, जल्द ही उन्हें अपने दावे में सुधार करना पड़ा। अदालत ने भय दिखाया कि ऐसे भ्रष्टाचार से आया एक भी युवा चिकित्सक बन जाए तो क्या होगा? अदालत के इस भय, जनता और विपक्ष के पुरजोर विरोध के बावजूद अभी तक नीट परीक्षा को रद्द नहीं किया गया। इसके समांतर यूजीसी-नेट की परीक्षा होने के चौबीस घंटे के अंदर धांधली का शक होते ही उसे रद्द कर दिया गया। भ्रष्टाचार मुक्त परीक्षा करवाने में अनुत्तीर्ण रहे धर्मेंद्र प्रधान को फिर से मंत्रि-पद का ‘कृपांक’ मिलने पर बेबाक बोल

‘अगर 0.001% भी गड़बड़ी हुई है तो उसे सुधारना चाहिए। परीक्षा करवा रही एक एजंसी के तौर पर आपको निष्पक्ष रवैया अपनाना चाहिए। अगर गलती हुई है तो कहिए कि हां गलती हुई है और हम ये एक्शन लेने जा रहे हैं। कम से कम ये आपकी कार्यशैली में विश्वास जगाएगा।’ राष्ट्रीय परीक्षा एजंसी (एनटीए) और केंद्र सरकार को यह फटकार देश के सुप्रीम कोर्ट ने लगाई। जिस देश का कानून कहता है कि भले सौ अपराधी छूट जाएं पर एक गुनहगार को सजा नहीं होनी चाहिए, उस देश की संस्था और सरकार को फटकार के साथ याद दिलाना पड़ता है कि एक भी युवा की मेहनत बर्बाद नहीं होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट तो कह रहा कि शून्य से नीचे की भी गड़बड़ी है तो उसे सुधारना चाहिए, और जहां सौ फीसद गलती दिख रही थी वहां भी सरकार के प्रधान सब कुछ ठीक है का एलान कर अपने मंत्रालय में लौटने की हड़बड़ी में थे।

अदालत कह रही है कि गलती मानिए यह आपकी कार्यशैली में विश्वास दिलाएगा

अदालत कह रही है कि गलती मानिए यह आपकी कार्यशैली में विश्वास दिलाएगा। लेकिन, गलती को मानना मौजूदा सरकार की कार्यशैली का हिस्सा अभी तक तो नहीं रहा है। शिक्षा के ‘प्रधान’ अभी अपने हिस्से का चुनाव जीत कर आए हैं। इस बार भी किसी तरह की गलती नहीं स्वीकार करने का कीर्तिमान कायम रखने की कोशिश कामयाब नहीं हुई। कहां तो नीट में ही गड़बड़ी को खारिज करने की हड़बड़ी में थे और कहां यूजीसी-नेट परीक्षा होने के चौबीस घंटे के अंदर ही उसे रद्द करने का एलान करना पड़ गया।

पहली ही नजर में ऐसी गड़बड़ियां दिखीं कि एनटीए पर पुरजोर सवाल उठे

जब पूरा देश लोकसभा चुनाव नतीजों के विश्लेषण में व्यस्त था तब देश के बच्चे धक-धक हृदय से डाक्टर बनने के लिए दिए ‘नीट’ की परीक्षा के नतीजों को देख रहे थे। शुरुआत में युवाओं को ज्यादा कुछ समझ नहीं आया, लेकिन जल्द ही चुनाव नतीजों से ज्यादा चर्चा ‘नीट’ के नतीजों पर होने लगी। पहली ही नजर में ऐसी गड़बड़ियां दिखीं कि राष्ट्रीय परीक्षा एजंसी (एनटीए) पर पुरजोर सवाल उठे।

हमारे देश की विडंबना है कि शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़ी वे संस्थाएं साख खो रही हैं जिन्हें ‘सरकारी’ कहते हैं। चुनाव सिर्फ येन-केन-प्रकारेण सरकार बनाने के लिए होने लगे हों तो फिर ‘सरकारी’ की जिम्मेदारी निभाने का आदर्श इस उग्र राष्ट्रवाद के समय में ढोने की जरूरत भी क्या है? अब तक तो सरकारी स्कूलों में सुविधाओं की कमी को इस देश के आर्थिक रूप से कमजोर तबके के बच्चे अपनी जिजीविषा से पूरी करते थे। अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाला अभिभावक सोचता था कि बच्चे की स्कूल की इमारत टूटी है, शिक्षकों की कमी है तो क्या संसाधनों से कमजोर हमारा बच्चा ज्यादा मेहनत करेगा और उस ‘राष्ट्रीय परीक्षा’ में बैठेगा जहां अमीर-गरीब सबके बच्चों को समान प्रतियोगिता से गुजरना होगा। जो योग्य होगा वही डाक्टर, इंजीनियर, सरकारी अधिकारी, शिक्षक बनेगा। सरकारी स्कूलों के अभाव को ज्यादा मेहनत के इस भाव से भरने वाले अभिभावकों और उनकी संतानों का यह भरोसा भी छीन लिया गया है। फिलहाल राष्ट्रीय पात्रता परीक्षाएं शिक्षा माफिया के हाथों में जकड़ी एक छलावा भर दिख रही हैं।

2024 का लोकसभा चुनाव जिन मुद्दों को केंद्र में रख कर लड़ा गया, उनमें अहम था रोजगार और परीक्षाओं में पर्चे लीक होना। बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश तक पर्चा लीक की खबरों के बीच विद्यार्थी सड़क पर जार-जार रो रहे थे, प्रदर्शन करते हुए पुलिस की लाठियां खा रहे थे। शिक्षक, कांस्टेबल से लेकर बैंक की भर्तियों में घोटाले के आरोप लगे। ऐसा कोई पर्चा नहीं था जो अपने लीक होने को लेकर चर्चा में नहीं आ रहा था। राजस्थान, मध्य प्रदेश से लेकर कई राज्यों में विभिन्न नौकरी के लिए होने वाली भर्ती परीक्षाएं सवालों में थीं। विपक्ष इस मसले पर सत्ता पक्ष को घेर भी रहा था। 2024 के लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद जनता को लगा कि अपनी परीक्षा में कम अंक हासिल करने के बाद सरकार अपने अहंकार के अध्याय को दुबारा पढ़ेगी और शिक्षा के प्रधान पर तो पुनर्विचार जरूर करेगी। लेकिन सकार 3.0 के साथ अहंकार 3.0 ने भी शिद्दत से तिबारा काम करने की शपथ ली और प्रधान जी को ही शिक्षा मंत्रालय का ‘कृपांक’ दिया गया।

संदेश स्पष्ट था, आम जनता इस मसले पर व्यवस्था में बदलाव की कोई भी उम्मीद न करे। व्यवस्था परिवर्तन की पहली सीढ़ी व्यक्ति परिवर्तन ही होती है। यानी व्यवस्था की अगुआई करने वाले व्यक्ति में ही परिवर्तन नहीं हुआ तो वह सगर्व दूसरी पारी की शैली को ही तीसरी में दुहराएगा। नई सरकार में पुराने पद का ‘कृपांक’ पाते ही परीक्षा प्रधान ने वही किया जो दस सालों से सरकार की दस्तखत छवि बन चुकी है, सबसे पहले किसी भी तरह की गड़बड़ी को खारिज करना। जब ‘नीट’ परीक्षा को लेकर पूरे देश में कोलाहल था, एक आम आदमी भी गड़बड़ी के निशानों को देख सकता था तो शिक्षा-परीक्षा महकमे के प्रधान जी ने सबसे पहले सब कुछ ठीक है का एलान किया। अगर जनता अदालत नहीं पहुंचती, वहां से दखल नहीं होता, सड़क पर लोग नहीं उतरते तो सब कुछ ठीक है कह कर मंत्री जी ‘2047’ तक के चुनाव के लिए व्यस्त हो जाते।

जब मणिपुर जल रहा था और इंटरनेट बंद था तो वहां के आम विद्यार्थी दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की केंद्रीय जांच परीक्षा के लिए राष्ट्रीय राजधानी आने के लिए मजबूर हुए। जिस दिल्ली विश्वविद्यालय में अंकों की योग्यता के आधार पर दाखिला एक सामान्य प्रक्रिया थी वहां एनटीए के तहत ‘सीयूईटी’ के तौर-तरीकों ने अभिभावकों और बच्चों के बीच उत्पात ही मचा कर रख दिया। नई शिक्षा नीति में उसकी परीक्षा नीति नाकाम क्यों होती गई शिक्षा मंत्रालय को इस पर गौर करना शायद अपने महकमे का काम ही नहीं लगा।

अदालत ने ‘नीट’ को लेकर खौफ जताया कि भ्रष्टाचार का सहारा लेकर बना युवा कल को डाक्टर बन जाएगा तो देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का क्या हाल होगा? वह खौफ नेट-यूजीसी का पर्चा लीक करने के बाद और बढ़ गया कि भ्रष्टाचार से आए लोग शिक्षा व्यवस्था को किस ओर ले जाएंगे? पहले देश में सरकारी स्कूलों की पढ़ाई और व्यवस्था को ध्वस्त किया गया। आज सरकार से जुड़ा कौन सा विधायक, मंत्री या नेता होगा जिसके बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं? नेता अपने बच्चों को न सरकारी स्कूल में पढ़ाएंगे और न यहां के सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज कराएंगे। घुटने से लेकर आंख से लेकर हृदय के इलाज के लिए ‘सरकारी’ नेताओं का विदेश प्रवास आम बात है। जिस तरह मेडिकल परीक्षा में घोटाले के आरोप लग रहे हैं उसे देखते हुए आम सक्षम भारतीय भी यहां के डाक्टरों से भय खाने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं। जिस तरह यहां के सरकारी स्कूल खारिज हुए उसी तरह अस्पताल और डाक्टर भी खारिज होंगे। सरकार और संस्थाओं की नाकामी का दाग उन युवाओं पर लगेगा जो आगे डाक्टर बनेंगे। देश का हर मरीज अपने यहां के डाक्टरों को शक की नजर से देखेगा कि कहीं यह भ्रष्टाचार से हासिल डिग्री वाला तो नहीं?

भारत की आम जनता यह दुर्भाग्य भी देख रही है कि बजट में लगातार शिक्षा का बजट कम कर दिया जाता है। सवाल उठने पर मंत्री और सरकारी प्रवक्ता अपने तर्क लेकर आ जाते हैं कि यह किसी तरह कम नहीं हुआ है। पिछले दस सालों में शिक्षा के बजट का विश्लेषण ही कर लिया जाए तो यहां के ‘गुरु’ की वस्तुस्थिति का पता चल जाएगा।

प्रतियोगी परीक्षाओं का एक ही सिद्धांत है-प्रदर्शन के आधार पर योग्यता। जब सरकार ही इस प्रदर्शन के सिद्धांत को नकार देगी तो आम विद्यार्थी कब तक परीक्षा में प्रदर्शन पर भरोसा कर पाएंगे? अर्थव्यवस्था, शिक्षा से लेकर रेल तक, न कुछ गड़बड़ी हुई थी और न आगे कोई गड़बड़ी स्वीकारी जाएगी। पुराने मंत्रियों पर सरकार के ‘कृपांक’ का यही संदेश है।