जम्हूरियत के बीच
फंसी अक्लियत था दिल
मौका जिसे जिधर से मिला
वार कर दिया

-नोमान शौक

कर्नाटक में भी उसने यही अहंकारी रुख रखा कि भाजपा नहीं तो कौन? भ्रष्टाचार के मसले को मुद्दा मान कर जनता ने तय किया कि भाजपा के सिवा जो भी आएगा विकल्प कहलाएगा। विकल्प नहीं है की धुन को रोकते हुए जनता ने कह दिया कि बदलाव ही विकल्प है। नाराज जनता खुद विकल्प बन जाती है, वह भाजपा को हराने के लिए भी घरों से निकल जाती है। सिनेमाघरों से चुनाव प्रचार कर रहे केंद्रीय मंत्रियों को संदेश है कि असली जिंदगी पर बात कीजिए। कर्नाटक से निकले राजनीतिक कथ्य को सामने रखता बेबाक बोल

दूर दक्खन में चुनाव था और कश्मीर में भी लोग कयास लगा चुके थे कि इस बार कांग्रेस आएगी। चैनलों के चुनाव नतीजों के पहले जनता ने अपना नतीजा सुना दिया था। आधिकारिक गिनती शुरू होने से पहले ही सत्ता पक्ष की तरफ से हार मानने की कवायद शुरू हो गई थी। चुनाव नतीजों के दिन जनता ने टीवी तो इसलिए खोला कि अपने अनुमान को सही साबित होता देख लें। सुर्खी देने में अखबार वाले भी गच्चा खा रहे थे कि कल सुबह छपने वाली यह खबर तो पुरानी सी लग रही है। यही होना था, हम तो बस तारीख की तस्दीक कर रहे हैं कि आज यह हो गया।

जनता ने सिखा दिया युगधर्म

कर्नाटक की जनता ने राजनीतिक दलों को सीधा संदेश दे दिया है। आपको जनता के मुद्दों पर आना ही होगा। रोजगार की बात करनी होगी, साफ पानी, अच्छे स्कूल और अच्छे अस्पताल की बात करनी होगी। आपने धर्मनिरपेक्षता को खलनायक बनाया, जनता ने आपकी बात सुनी। लेकिन आप जब धर्म के मुद्दे से जरा भी दाएं-बाएं होने को तैयार नहीं हुए तो जनता ने आपको युग-धर्म सिखाने की ठान ली। एक ने धर्मनिरपेक्षता को औजार बनाया तो आपको लगा कि जनता के पास और कोई गम नहीं है सिवा धर्म का जयकारा लगाने के। लेकिन, जनता अब धर्म को लेकर ध्रुवीकृत होने को तैयार नहीं हुई। जैसे, मानो उसने कह दिया कि हम बजरंग दल और बजरंग बली में फर्क कर सकते हैं।

खुद को धार्मिक प्रयोगशाला बनने से इनकार

बंगाल में भाजपा के अतिशय जय-श्रीराम को जनता प्रणाम कर चुकी थी। इसके बाद कर्नाटक में हनुमान को चुन लिया। अब जनता आपके प्रयोग समझ कर खुद को धार्मिक प्रयोगशाला बनने से इनकार कर रही है। कर्नाटक में जनता ने कह दिया है कि अपना धर्म हम संभाल लेंगे आप अपना कर्म देखिए। आप जनता को कह रहे थे कि अतीत में जाकर टीपू सुल्तान को सजा देनी है। जनता ने आपकी समय-मशीन में बैठने से इनकार कर आपको सजा दे डाली कि आप वर्तमान में क्यों नहीं रहते, वर्तमान का समाधान क्यों नहीं निकालते।

यह राजनीतिक विद्वानों के स्तंभों की बात नहीं पूरे देश की सड़क-चौपालों पर निकला नतीजा है कि जनता कांग्रेस के जीतने से खुश नहीं है, भाजपा को हराने से खुश है। आपने कहा कि निर्वात है, भाजपा का विकल्प कौन? भाजपा नहीं तो कौन? जनता ने मानो कह दिया कि आपके अलावा जो भी आएगा, वह विकल्प कहलाएगा। जनता ने साबित कर दिया कि विकल्प का कोई रंग-रूप, कोई दिशा-पहचान नहीं होती है। जनता जिसे बदलाव कहती है, राजनीति उसे विकल्प कहता है। विकल्प नहीं है, विकल्प नहीं है की धुन को रोकते हुए जनता ने कह दिया, बदलाव ही विकल्प है।

विपक्ष ने ‘चालीस फीसद सरकार’ का नारा दिया तो आप उसकी काट नहीं निकाल पाए। जब ‘पे सीएम’ कर्नाटक से निकल कर पूरे देश का जुमला बन गया, तब भी आपको अंदाजा नहीं हुआ कि कांग्रेस को संजीवनी बूटी मिल चुकी है। जनता यह बखूबी जानती है कि 2014 की हार के बाद कांग्रेस में पूरी तरह सुधार नहीं हुआ है। उसे यह भी पता था कि जीत के बाद कांग्रेस के अंदर मुख्यमंत्री पद की लड़ाई तेज होगी। जनता यह नहीं जानती थी कि कांग्रेस का कौन सा चेहरा उसका अगला मुख्यमंत्री होगा। लेकिन, जनता यह तय कर चुकी थी कि भाजपा के चेहरे को कर्नाटक का अगला मुख्यमंत्री नहीं बनाना है।

आजादी के बाद कांग्रेस ने राज्यों की राजनीति में दिल्ली को थोपा। आप कांग्रेस मुक्त कहते-कहते उसकी सभी नीतियों से युक्त हो गए। तो अब दूर दक्खन में भी दिल्ली की खबरों पर नजर रखी जाती है। कर्नाटक में जहां भ्रष्टाचार सबसे बड़ा मुद्दा था तो आप ‘केरला स्टोरी’ की बात करने लगे। वहीं दक्खन की जनता जंतर-मंतर पर पहलवानों की सच्ची कहानी देख रही थी, जहां किसी तरह का अस्वीकरण नहीं था कि-इस कहानी का किसी जिंदा या मृत व्यक्ति से कोई वास्ता नहीं। यह पूरी तरह काल्पनिक है। जंतर-मंतर पर असली किरदार धरना दे रही थीं, देश सवाल पूछ रहा था, मैं इस्तीफा नहीं दूंगा के साथ बृजभूषण सिंह गरज रहे थे और सत्ता-पक्ष सिनेमाई किरदारों को इंसाफ दिलाने में जुटा था। जिन मंत्री जी पर विवादास्पद नारा देश के गद्दारों को…लगाने का इल्जाम है वे यह सोच रहे थे जैसे ‘द केरला स्टोरी’ पर दर्शक बरस रहे हैं, वैसे ही कर्नाटक में वोट बरसेंगे।

जनता भी समझ गई कि आप मुद्दे को भटकाने के लिए सिनेमा दिखा रहे हैं। इसलिए सिनेमा को सिर्फ सिनेमा की तरह देखेंगे। केरल की कहानी से फिल्म निर्माता, सिनेमाघर मालिक मालामाल हो गए। लेकिन, इससे आप कर्नाटक की उस कहानी को बदल नहीं पाए जिसके नायक आप थे, और जनता ने आपके लिए इस कहानी का अंत दुखांत से करने का तय किया। जिस तरह से फिल्मकारों ने कश्मीर से लेकर केरल के दुख को सिनेमा का बाजार बनाना शुरू कर दिया है, शायद कर्नाटक का नतीजा इसे लेकर भी आपको कुछ सबक दे जाए। कर्नाटक के चुनाव को देखते हुए भाजपा की सरकारों में ‘द केरला स्टोरी’ को मनोरंजन-कर से मुक्त करने की होड़ लग गई। उत्तर-प्रदेश और मध्य-प्रदेश के दर्शकों से भरे सिनेमाघरों से आपको लगा कि कर्नाटक की कहानी आपके नाम होगी।

जब कर्नाटक की लड़ाई दिल्ली से लड़ी गई है, तो कर्नाटक ने दिल्ली को भी संदेश दे दिया है। केंद्रीय मंत्रियों का काम सिनेमा देखना और उसका प्रचार करना नहीं है। ‘हेट स्टोरी’ वाले विवेक अग्निहोत्री ‘कश्मीर फाइल्स’ से अकूत कमाई कर चुके हैं। चलिए, थोड़ा सिनेमा से निकलिए, कर्नाटक के नतीजों के बाद कश्मीर की जनता पूछ सकती है, हमारे यहां चुनाव कब होंगे? ‘कश्मीर फाइल्स’ की टिकट खिड़की की कमाई के आधार पर क्या कश्मीर में चुनावों में जाया जा सकता है? फिर विवेक अग्निहोत्री की सफलता को सरकार की मंत्री सरकारी सफलता कैसे बताने लग गईं? एक औसत फिल्मकार को वित्त मंत्री संसद में क्यों तवज्जो देने लगीं?

कर्नाटक के नतीजे ने इतने संदेश दिए हैं कि राजनीतिक दलों से लेकर राजनीतिक समीक्षकों के लिए ‘कर्नाटक की किताब’ लिखी जा सकती है। ‘रांझा-रांझा करदी वे मैं आपे रांझा होई’ की तर्ज पर कांग्रेस-कांग्रेस करने वाली भाजपा उसी की जैसी होने लगी और भाजपा में कांग्रेस की छवि देखते ही जनता ने उसका कांग्रेस वाला हाल कर दिया। कांग्रेस की सुधार में लगी भाजपा का ध्यान अपने बिगाड़ की तरफ गया ही नहीं।
जद (सेकु) जैसे क्षेत्रीय दलों को भी अब अपने हाल पर सोचना होगा कि ‘किस्सा कुर्सी का’ का समीकरण भर बना लेने से वे जनता का हिस्सा नहीं हो सकते। जिस कर्नाटक में कभी क्षेत्रीय क्षत्रप जैसी अवधारणा थी, आज वहां कहानी भाजपा बनाम कांग्रेस की हो गई। सबसे खास बात, कांग्रेस के हर वोट को अपना समझने वाली आम आदमी पार्टी भी कर्नाटक से चोट खा कर लौटी है।

नाराज जनता खुद विकल्प बन जाती है

भाजपा और आम आदमी पार्टी की सबसे बड़ी मजबूती कांग्रेस की कमजोरी है। भाजपा सियासी सबक लेकर आगे बढ़ने के लिए जानी जाती है। कर्नाटक का नतीजा आते ही मैं इस्तीफा नहीं दूंगा वाले संवाद रट रहे बृजभूषण सिंह को पद छोड़ना पड़ा। भाजपा को अब बखूबी अंदाजा हो गया है कि सिर्फ कांग्रेस की कमजोरी से काम नहीं चलने वाला। जनता जब नाराज होती है तो खुद ही विकल्प बन जाती है। वह सिर्फ भाजपा को हराने के लिए भी वोट डालने के लिए निकल पड़ती है। भाजपा और कांग्रेस के घोषणा-पत्र आने के पहले जनता नतीजों की घोषणा करती हुई सी दिखी थी।

देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के लिए फिलहाल दक्षिण, दूर हो गया है। वहीं दक्षिण से जीत लेकर उत्तर की ओर बढ़ने वाली कांग्रेस इस जीत को कैसे संभालती है, यह देखने की बात होगी। कर्नाटक में तीन दशक में कांग्रेस को इतनी बड़ी जीत मिली है। जिस कांग्रेस के खिलाफ विकल्प-गान हुआ था उसे जब जनता संकल्प के साथ ले आई है तो उसके लिए भी नोमान शौक के शब्दों में- ‘कुछ न था मेरे पास खोने को, तुम मिले हो तो डर गया हूं मैं’