आज के समय में दो देशों के टकराव में फौज की सीमित भूमिका होती है। टकराव के बाद मुख्य मोर्चे पर विदेश नीति को आना होता है, लक्षित देश को दुनिया से अलग-थलग करने के लिए। भारतीय सेना के ‘आपरेशन सिंदूर’ के बाद हर भारतीय की नजर विदेश नीति पर थी कि दुनिया भर में पाकिस्तान का दागदार चेहरा सामने आए। लेकिन हुआ इसका उल्टा। दुनिया के देश आतंकवाद की मुखालफत के लिए भारत के साथ आए लेकिन पाकिस्तान की छवि और मजबूत हो गई। एक तरफ तो उसे अंतराराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने मालामाल कर दिया तो वहीं उसे संयुक्त राष्ट्र की आतंकवाद निरोधी समिति का उपाध्यक्ष बनाया गया। एक-दूसरे को दुश्मन की तरह देखने वाले चीन और अमेरिका दोनों के लिए पाकिस्तान दुलारा देश बन बैठा। ‘आपरेशन सिंदूर’ पर राजग सरकार की विदेश नीति के जवाब में विदेश मंत्री एस जयशंकर तो पिछली सरकार में उलझे रहे लेकिन अमेरिका ने आज की सत्ता की अगुआई वाली जनता पर 25 फीसद व्यापार शुल्क और जुर्माना ठोक दिया। पूर्व अधिकारी बनाम विदेश मंत्री का मूल्यांकन करता बेबाक बोल।
‘सौ बार तिरा दामन
हाथों में मिरे आया
जब आंख खुली देखा
अपना ही गिरेबां था’
जिस सरकार की नौकरी की या जिसके सलाहकार रहे किसी मौकापरस्ती के चलते अगर उसी पर तंज करेंगे तो अंगुली आप पर भी उठेगी। फिर वो चाहे किसी किताब के लिए हो या कितने भी बड़े पद के लिए। ‘आपरेशन सिंदूर’ पर चर्चा में सवाल तो विदेश नीति पर था जो भटक कर पेशे की बुनियादी नैतिकता पर आ टिका।
भारतीय विदेश सेवा की ‘नौकरी’ भारत सरकार के प्रति समर्पित होती है
भारतीय विदेश सेवा। देश की सबसे प्रतिष्ठित ‘नौकरी’। यह ‘नौकरी’ भारत सरकार के प्रति समर्पित होती है न कि किसी खास अवधि के लिए बनी सरकार के लिए। भारत के संविधान के अनुसार अभी एक सरकार पांच साल के लिए चुनी जाती है। लेकिन सरकारी अधिकारी सेवानिवृत्ति की तय उम्र तक के लिए चुने जाते हैं। उम्मीद की जाती है कि उनकी निष्ठा देश के लिए हो न कि किसी खास विचारधारा की पार्टी के लिए। इन बातों को आदर्श में उतारना मुश्किल होता है। लेकिन आदर्श का भ्रम बनाए रखना भी आदर्श स्थिति में माना जाता है। मुश्किल तब हो गई जब आपके आदर्श पर सवाल उठे और जवाब देने के लिए आपने अपनी पूर्व नौकरी के आदर्श को अलविदा कह दिया।
‘आपरेशन सिंदूर’ को लेकर विपक्ष ने सरकार की विदेश नीति को कठघरे में खड़ा किया। आरोपों का जवाब देने के लिए संसद में खड़े हुए विदेश मंत्री ने सदन के जरिए देश को बताया कि उन्होंने 41 साल विदेश सेवा में बिताए हैं। विपक्ष जब आज की विदेश नीति पर सवाल उठा रहा है तो वे उनके समय की नीति के राज खोल रहे थे। उन्होंने कहा कि उस समय की सरकारें आतंकवाद को लेकर नरम रुख अपनाती थीं और पाकिस्तान के साथ संवाद में उतर जाती थीं, यह कहते हुए कि जो हुआ सो हुआ, अब आगे बढ़ें।
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सवाल था एक नृशंस आतंकवादी हमले के बाद दो देशों के बीच में टकराव का। पहलगाम में आतंकवादी हमले के बाद पूरी दुनिया की भावना पीड़ित भारतीयों के साथ थी। कई देशों ने इस आतंकवादी हमले की भर्त्सना की। यह घटना कोई नई नहीं थी। अफसोस यह है कि एक हादसा होता है और थोड़े अंतराल के बाद हम उसे भुला देते हैं। फिर हमारे दिमाग को झकझोरते हुए दूसरा हादसा हो जाता है। बड़े भाई की छवि के साथ हमने पाकिस्तान को सही रास्ते पर लाने के लिए कूटनीतिक दायरों से बाहर जाकर कोशिश की।
भूकम्प से लेकर बाढ़ तक, हर मुसीबत में इस पड़ोसी देश का साथ दिया। पाकिस्तान के किए विश्वासघातों के बाद भी सिंधु जल समझौता जारी रखा, इस मानवीय भावना के साथ कि यह वहां के अवाम की जीवनरेखा है। हमारी ‘अमन की आशा’ पर चोट पहुंचाते हुए पाकिस्तान ने बार-बार बहुत गहरे तक निराश किया। कूटनीतिक दायरों से बाहर जाकर पाकिस्तान को गले लगाने वाले हमारे राष्ट्र प्रमुखों को बुरे से बुरा अनुभव मिलता रहा।
सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ? इतिहास गवाह है कि भारत ने अपने पड़ोसी देशों के साथ हमेशा दोस्ताना व्यवहार रखा। श्रीलंका के गृह-युद्ध जैसे हालात में मदद का हाथ बढ़ाने के एवज में हमने अपने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की शहादत दी। इसके बाद भी हम वसुधैव कुटुंबकम पर अड़े रहे।
पहलगाम हमले के बाद हमारे पलड़े को भारी करने की पूरी उम्मीद हमारी विदेश नीति पर टिकी हुई थी। भारत ने पूरी दुनिया को बताया कि उसने पाकिस्तान के सिर्फ आतंकवादी अड्डों पर हमला किया और कोई उकसावे वाला काम नहीं किया। सही समय आने पर संघर्ष विराम किया। उस वक्त हर भारतीय को उम्मीद थी कि हमारा नेतृत्व पूरी दुनिया को हमारे साथ लाने में कामयाब होगा। विदेश नीति की सफलता ही इसी में है कि जिस देश से टकराव हो उसे आप पूरी तरह से अलग-थलग करने में कामयाब हो जाएं।
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यह देख कर हर भारतीय को तकलीफ हुई कि हम ही पूरी दुनिया में अलग-थलग दिखे। जो भी साथ आए वे सिर्फ आतंकवाद की मुखालफत की बात कर आए, पाकिस्तान की नहीं। पहलगाम के शहीदों की विधवाओं के अभी आंसू सूखे भी नहीं थे कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को मदद देकर मालामाल कर दिया।
पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का अस्थायी अध्यक्ष बनाया गया। साथ ही उसे संयुक्त राष्ट्र की आतंकवाद निरोधी समिति का उपाध्यक्ष भी बनाया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हतप्रभ करते हुए पाक सेनाध्यक्ष असीम मुनीर के लिए दोपहर के खाने का दस्तरख्वान बिछा दिया। यह दस्तरख्वान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति के लिए नहीं बल्कि उन जनरल मुनीर के लिए था जिनके बारे में भारत का मानना है कि पहलगाम के आतंकवादी हमले की साजिश उन्होंने रची थी।
संसद में एस जयशंकर के पहले की सरकारों को कोसने और वर्तमान सरकार का गुणगान खत्म करते ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25 फीसद व्यापार शुल्क लगा दिया रूस से कारोबारी रिश्ते रखने के जुर्माने के साथ। ट्रंप ने तो यह भी कह दिया कि एक दिन ऐसा आएगा जब भारत पाकिस्तान से तेल खरीदेगा।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: ये जो चिलमन है
जयशंकर ने जिन सरकारों को कोसा उन सरकारों के समय हुए हर टकराव के बाद भारत के सामने पाकिस्तान की हैसियत कमजोर राष्ट्र की हुई। सेना के ‘आपरेशन सिंदूर’ अभियान के बाद हमारी विदेश नीति में कहां गलती हुई कि पाकिस्तान को भारत के समकक्ष बिठा दिया गया है। चीन और अमेरिका एक-दूसरे के दुश्मन हैं और दोनों पाकिस्तान से दोस्ती निभा रहे हैं।
मुकेश भारद्वाज का कॉलम बेबाक बोल: कोई शेर सुना कर
मैं उस समय चीन में तैनात था…मुझे पता था उस समय कैसे फैसले होते थे…। विदेश नीति पर यह जवाब देने वाले जयशंकर क्या यह बताएंगे कि अभी कैसे फैसले होते हैं कि पहलगाम हमले के बाद पाकिस्तान दो शक्तिशाली दुश्मन देशों का दुलारा देश बन गया? क्या उन-इन फैसलों के लिए सिर्फ राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार होता है?
नौकरशाहों की कोई जिम्मेदारी नहीं होती है? तो क्या हम नौकरशाहों को महज उस जासूस की तरह देखें जो सरकार की सूचनाओं का संग्रहालय बना रहा है ताकि अगली सरकार में उसे पर्दे के बाहर लाकर वाहवाही व अन्य लाभ लिए जाएं। क्या एक अधिकारी के रूप में आपकी तत्कालीन भूमिका का कोई मूल्यांकन नहीं होगा? एक अधिकारी बस भावी राजनेता बनने की रणनीति बनाता रहेगा तो देश की नीति का क्या होगा?
विदेश मंत्री के रूप में एस जयशंकर का मूल्यांकन इतिहास अपने तरीके से करेगा लेकिन पूर्व अधिकारी के रूप में उन्होंने खुद से ही जो खुद का चेहरा पेश किया है वह हमें सोचने पर मजबूर कर रहा है कि हम अपनी विदेश नीति के बारे में सोचें। प्रमुख रक्षा अध्यक्ष अनिल चौहान ने सेना के नेतृत्वकर्ता के रूप में अपनी गलतियों के बारे में बताया था। उनके अनुसार हमने अपनी गलतियों से सीखा कि हम गलती न करें। हमारा असमंजस यह है कि विदेश मंत्री के भाषण से हम क्या सीखें? जहां कोई नई सीख नहीं दिखे तो तय समझिए अभी सीखने की कितनी जरूरत है।