यौन उत्पीड़न किसी भी क्षेत्र में स्त्री के सहज विकास को रोकता है। सत्ताधारी दल के नेताओं की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि इस तरह के आरोपों का संवेदनशीलता से सामना करे। लेकिन, जब एक कानून निर्माता यानी देश का सांसद यौन उत्पीड़न की शिकायत कर्ता को ‘मंथरा’ कहे तो यह स्त्री-सशक्तिकरण के विमर्श को रसातल में पहुंचाने जैसा है। इससे समाज में मर्दानगी का ही पाठ जाएगा। महिला पहलवानों पर आरोपी जिस तरह के अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं उस पर सत्ता व अन्य जिम्मेदार संस्थानों की चुप्पी पर सवाल उठाता बेबाक बोल।
चिड़िया ने उड़ कर कहा
मेरा है आकाश
बोला शिकरा डाल से
यूं ही होता काश
-निदा फाजली
त्रेता युग में जैसे मंथरा ने किया था, वैसे विनेश फोगाट मेरे लिए मंथरा बनकर आ गई हैं। इससे पहले हजारों पहलवान धरना दे रहे थे और अब केवल तीन जोड़े (पति-पत्नी) बचे हैं। सातवां कोई नहीं है। जिस दिन परिणाम आएगा, हम मंथरा को भी धन्यवाद देंगे।’ संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा के नतीजे आते ही जब पूरा देश बेटियां-बेटियां कर रहा था, उच्च दस परिणामों में लड़कियों के सर्वश्रेष्ठ होने का जयकारा किया जा रहा था, तब कैसरगंज से भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह महिला पहलवान विनेश फोगाट को ‘मंथरा’ की संज्ञा दे रहे थे। सार्वजनिक मंच से यौन उत्पीड़न के आरोपी सांसद की यह सोच और भाषा है।
सार्वजनिक मंच से बृजभूषण शरण सिंह के ऐसे ही बयानों को लेकर विनेश फोगाट ने कहा था कि वह आदमी टीवी पर महिलाओं का इस तरह अपमान कर सकता है तो जरा सोचिए, बंद कमरे में ये कैसी हरकत करते होंगे। बंद कमरे का सच हम नहीं जानते, और मामले के विचाराधीन होने के नाते इस पर कोई निर्णयात्मक टिप्पणी नहीं कर सकते। लेकिन, यौन उत्पीड़न का आरोपी सांसद खुले मंच से जब ऐसी भाषा बोलते हैं तो सभ्य समाज को काफी पीछे ले जाते हैं।
जंतर-मंतर पर नहीं चली इस्तीफा नहीं दूंगा की रट
अन्य अपराध और आरोपों की तुलना में यौन-उत्पीड़न एक संवेदनशील मामला है। एक पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के लिए यह लड़ाई बहुत मुश्किल है, खासकर जब आरोपी प्रभावशाली सत्ता वर्ग से हो। महिला पहलवानों के मामले में यह गैरबराबरी लगातार दिख भी रही है। बृजभूषण शरण सिंह को इस बात से दिक्कत है कि महिला पहलवान अपनी बात रखने के लिए जंतर-मंतर का इस्तेमाल कर रही हैं। इस वजह से यह मामला सुर्खियों में है। इस्तीफा नहीं दूंगा, इस्तीफा नहीं दूंगा की रट लगाने वाले सिंह को अपना पद छोड़ना पड़ा तो उसकी वजह जंतर-मंतर ही है।
अगर जंतर-मंतर से अपनी आवाज उठाना ‘मंथरा’ होना है तो बृजभूषण सिंह के लिए सत्ता से हासिल सार्वजनिक मंचों के इस्तेमाल करने को क्या कहा जाएगा? सिंह अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर मुखर रहते हैं। वही अयोध्या, जो रामायण के नायक श्रीराम की जन्मभूमि है। भारतीय आध्यात्मिक किरदारों को आप सीधे-सीधे नायक और खलनायक के खाते में नहीं डाल सकते। हर किरदार के आगे कई और पीछे कई कहानियां हैं। मंथरा के पीछे एक सुंदर गंधर्व कन्या की कहानी है जो शापित होकर मंथरा बनी। रामायण से जुड़ी कथाओं की मानें तो चौदह साल का वनवास काटने के बाद श्रीराम जब अयोध्या लौटे तो सबसे पहले मंथरा से मिले। श्रीराम ने मंथरा का आभार जताया, क्योंकि उसी के कारण उन्हें वनवास मिला और वे धरती पर अवतार लेने का ध्येय पूरा कर पाए।
विनेश फोगाट के लिए ‘मंथरा’ शब्द का इस्तेमाल हास्यास्पद नहीं त्रासद है
बृजभूषण शरण सिंह ने रामायण ठीक से पढ़ी होती या समझी होती तो वे अपने संदर्भ में मंथरा का प्रतीक लेकर नहीं आते, और कम से कम रामायण को उद्धृत करने से बचते। महिला पहलवानों ने जिस तरह के आरोप लगाए हैं, रामायण के अंदर खोजने पर यह सीता बनाम रावण जैसा मामला है। आम भारतीय मानस स्त्री के उद्धारक को राम तो स्त्री के उत्पीड़क को रावण की तरह देखता है। यह सही है कि बृजभूषण शरण सिंह पर लगे आरोप अभी साबित नहीं हुए हैं और उन्हें रावण की संज्ञा देना हास्यास्पद होने के साथ आध्यात्मिक किरदार का भी अपमान करने जैसा होगा। लेकिन, आरोप गलत भी साबित नहीं हुए हैं और उसके पहले विनेश फोगाट के लिए ‘मंथरा’ शब्द का इस्तेमाल करना हास्यास्पद नहीं त्रासद ही कहा जा सकता है।
शिकायतकर्ता को सार्वजनिक मंच पर मंथरा कहना आपत्तिजनक तो है ही, त्रासद भी है क्योंकि इस मामले में संबंधित एजंसियों की चुप्पी के लिए त्रेता युग से कोई किरदार उधार भी नहीं लिया जा सकता। ऐसी गैरजिम्मेदारी कलयुगी ही हो सकती है, जैसी वर्तमान दौर में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय दिखा रहा है। इन दिनों इस संस्था का अगुआ कौन है, यह आप गूगल की खोज मशीन पर जाकर पता करें। गूगल की खोज मशीन ही वह नाम खोज सकती है क्योंकि ऐसे मामलों में आम तौर पर इस मंत्रालय की चुप्पी ही रहती है।
आप नाम जान कर चौंक जाएंगे, वे स्मृति ईरानी हैं। जो कभी सड़कों पर प्रदर्शन के लिए जानी जाती थीं। जिन्हें प्रतिरोध की आवाज कहा जाता था। लेकिन, अब जब उनका पक्ष सत्ता में है तो प्रतिरोध करना मंथरा जैसा होना है। माना जा सकता है कि तकनीकी रूप से उनका मंत्रालय इस मामले से सीधा नहीं जुड़ा है। लेकिन, जब देश की संसद के पुरुष प्रतिनिधि ऐसी भाषा बोलते हैं तो सड़क पर बैठी हर महिला की उम्मीद संसद में बैठी स्त्री पर टिकती है।
जब यौन उत्पीड़न जैसे संवेदनशील मामले में आरोपी इस तरह अनर्गल प्रलाप करने लगे तो सवाल उठना लाजिम है कि इस मंथरा-मंथन पर जिम्मेदार संस्थाएं क्या कर रही हैं? विनेश फोगाट व अन्य महिला पहलवान बृजभूषण सिंह की चुनावी मैदान में प्रतिद्वंद्वी नहीं, शिकायतकर्ता हैं कि सिंह ने अपने पद पर रहते हुए गरिमामय व्यवहार नहीं किया। उन्हें कोई हक नहीं है कि वे इन शिकायतकर्ताओं पर स्त्री-विरोधी तंज करते रहें।
भारतीय समाज के संदर्भ में स्त्री-मुक्ति, स्त्री-सशक्तिकरण कुछ दशक भर ही पुराने हैं।
कुछ खास जगहों को छोड़ दें तो अभी भी महिलाएं बहुत पीछे चल रही हैं, जिनमें खेल सबसे उल्लेखनीय है। भारत के सामाजिक ढांचे की बनावट ऐसी है कि अभी भी खेल के क्षेत्र में कुछ जुनूनी लड़कियां ही आगे आ पाती हैं। एक लड़की अपने दम-खम पर आगे बढ़ती है पदक जीत कर लाती है तो कुछ दिनों तक देश उन्हें बेटी-बेटी कहता है। उनकी ऊर्जा से कुछ और लड़कियों का कारवां भी आगे बढ़ता है कि हां, हम भी कुछ कर सकती हैं। लेकिन जंतर-मंतर पर चल रही आरोपों की कुश्ती का क्या असर होगा, इसे भी देखना होगा।
जंतर-मंतर पर पहलवानों का मामला सिर्फ कुश्ती नहीं बल्कि स्त्री-मुक्ति के बड़े संदर्भ को बेपर्दा कर रहा है। पिछले दिनों हरियाणा के खेल मंत्री पर भी यौन-उत्पीड़न के आरोप लगे थे, जिसकी जांच चल रही है। ऐसे मामलों में जांच इतनी लंबी चलती है कि अंजाम तक पहुंचने में उसकी खिलाड़ी बनने की उम्र निकल सकती है। वह बदनामी के डर से गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाती है। खेल तो मैदान का मामला है, और ऐसे आरोपों के बाद खिलाड़ी का सार्वजनिक जीवन प्रभावित होता ही है। आरोप सच भी हो सकते हैं और गलत भी। लेकिन, इस तरह के आरोप लगाते ही कथित पीड़ित के साथ जिस तरह अपराधी जैसा व्यवहार होने लगता है, हमारी व्यवस्था में वही इंसाफ की राह की सबसे कमजोर कड़ी है।
यौन उत्पीड़न के आरोपों का दर्ज होना, अदालती सुनवाई अलग बात है, यहां सबसे बड़ी समस्या इसे लेकर सामाजिक जागृति की है। इस मामले में अभी अदालत से लेकर पुलिस जैसी संस्थाओं को भी बहुत कुछ सीखना है, संवेदनशील होना है। बृजभूषण शरण सिंह जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं, उससे समाज में बस एक मर्दानगी का पाठ जा सकता है कि शिकायती पक्ष की कैसे खिल्ली उड़ाई जाए? ऐसे प्रगतिशील कानूनों को सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर कैसे ध्वस्त कर दिया जाए कि कोई इसका सहारा न ले।
परिवार समाज की पहली पाठशाला है तो राजनीति सबसे ऊपरी। राजनीति जो कहती है, करती है उसका असर कार्यपालिका से लेकर न्यायपालिका तक पड़ता है। लोकतंत्र के सभी खंभों में स्त्रियों की अहम भागीदारी तभी हो सकती है, जब राजनीति में उनके लिए संवेदनशील माहौल बने। स्त्री मुद्दों को लेकर सारे खंभे सवालों के घेरे में आ चुके हैं। दुखद है कि सभी खंभों में ऐसे आरोप लगाने वाली को ही नतीजे आने से पहले आवाज उठाने की अपराधी करार देने का चलन बढ़ता जा रहा है। जंतर मंतर बनाम बृजभूषण शरण सिंह का मामला यह बताने के लिए काफी है कि अभी भारतीय संदर्भ में स्त्री-मुक्ति की बात स्त्रियों के लिए राजनीति व समाज से कुश्ती ही है।