यह लोक-कथा हर जगह अपने तरीके से कही जाती है। एक बच्चा किसी के खेत से खीरा चुराकर लाया। उसके अभिभावकों ने बिना आपत्ति जताए उसे खाया। बच्चे को चोरी की आदत हो गई। बड़े होने पर वह एक महल से हीरा चोरी करते हुए पकड़ा गया। जेल में उसके अभिभावक मिलने पहुंचे तो वह इंसान अपने मां-बाप को कोसने लगा कि अगर उसे बचपन में खीरा चोरी करने से रोकते तो आज वह हीरा चोरी के अपराध में यहां न होता। देश की जांच एजंसियों का भी यही हाल है, जो नेताओं के काले धन का पहाड़ होने का इंतजार करती हैं। जब मामला सौ करोड़ जैसी संख्या में होता है और नेताओं के वानप्रस्थ में जाने का समय होता है फिर एजंसी छापे और पेशी के नजारे पेश करती है। अपने वारिसों को सब कुछ सौंप चुके नेता जंगल की जगह जेल जाते हैं और बुरे काम का बुरा नतीजा वाला भ्रम भी बना रहता है। खीरा चोर के हीरा चोर बनने का इंतजार करने वाली संस्था पर बेबाक बोल।
आमार पैसा, आमार पैसा (हमारा पैसा, हमारा पैसा) अस्पताल में स्वास्थ्य जांच के लिए जा रहे पार्थ चटर्जी की ओर एक महिला ने चप्पल फेंक दी। पत्रकारों की भीड़ ने पूछा कि उन्होंने ऐसा क्यों किया। महिला ने गुस्से में कहा कि ये नेता लोग हमारा पैसा हड़प लेते हैं। प्रवर्तन निदेशालय के कर्मचारियों की छापेमारी के बाद पैसों के पहाड़ की तस्वीर देख न जाने कितने लोग इस तरह की बेबसी महसूस कर रहे होंगे।
माचिस खरीदने से लेकर सड़क पर चलने तक के लिए तरह-तरह के कर देकर अपने खाली बटुए को देख एक आम इंसान को यह यकीन नहीं होता कि उसका पैसा कहां इकट्ठा हो रहा है। शायद किसी आम नागरिक के दिमाग में यह भी सवाल आ रहा होगा कि आखिर हमारी जांच एजंसियों को यह पैसा पहाड़ बनने के बाद क्यों दिखता है, जिसे गिनने में कई दिन लग जाते हैं।
इन दिनों देश की सबसे सक्रिय संस्था प्रवर्तन निदेशालय ही है। बंगाल से लेकर केरल तक पूर्व मंत्रियों को नोटिस जा रहे हैं, निदेशालय के दफ्तर में पेशी का फरमान पहुंच रहा है। लेकिन, आम लोगों का भी यही सवाल है कि आपको हर बात तभी क्यों पता चलती है, जब कोई किसी की शिकायत कर दे। चाहे वह अर्थव्यवस्था हो या कोई अन्य क्षेत्र, खुफिया एजंसियों का यही हाल है कि ‘पत्ता पत्ता, बूटा बूटा हाल हमारा जाने है/जाने न जाने गुल ही न जाने बाग तो सारा जाने है’।
आज जिस नेशनल हेराल्ड मामले को लेकर प्रवर्तन निदेशालय सबसे ज्यादा चर्चा में आया वह इतना पुराना है कि निदेशालय अपनी जांच का अलग से किसी खास कालखंड का महोत्सव मना सकता है। हरियाणा में घोटाले के आरोपी ओपी चौटाला को जेल हुई भी तो 77 साल की अवस्था में, जब तक वे अपने उत्तराधिकारियों को सब कुछ सौंप चुके थे। लगता है कि जांच एजंसियां नेताओं के वानप्रस्थ की अवस्था का इंतजार करती हैं ताकि वे जंगल न जाकर जेल में ही तपस्या कर लें।
एजंसियों पर राजनीतिक दुश्मनी निकालने का औजार बन जाने का आरोप
इंसाफ देने में देरी को इंसाफ नकारने के बराबर ही माना जाता है। मामले का पता लगने से लेकर उसे अदालत के कठघरे तक जाने में इतना वक्त लगता है, इसलिए इन एजंसियों पर राजनीतिक दुश्मनी निकालने का औजार बन जाने का आरोप लगता है। इंसाफ के पटल पर इतनी देर को अंधेर नहीं कहना हर तरह की रोशनख्याली की तौहीन करना है।
काले धन के अभी तक के ज्यादातर मामलों को देख कर यही लगता है कि एजंसियों के पास ये सारी सूचनाएं पहले से मौजूद थीं। मानो, हर किसी की लंबे समय से फाइल बनाई जा रही होती है। बस इंतजार होता है उसके किसी खास पद पर जाने का। और, इन सबके लिए वक्त व माहौल तय होते ही इंसाफ की डगर पर एजंसी के लोगों चलना संभल कर जैसे राग शुरू हो जाते हैं।
इन संस्थाओं में बैठे लोग काले धन की फाइलों को निजी तरक्की के लिए उपयोग करते हैं
ऐसे भी आरोप लगते रहे हैं कि इन संस्थाओं में बैठे लोग काले धन से जुड़ी फाइलों को निजी तरक्की के लिए चक्रवृद्धि ब्याज की तरह देखते हैं। अगर वे गड़बड़ी की नियमित तौर पर नियंत्रण और निगरानी करते रहेंगे तो सत्ता परिवर्तन या किसी अन्य हालात में न तो राजनीतिक तूफान उठेगा, और न ही मीडिया में पैसों के पहाड़ का दृश्य दिखेगा।
लेकिन यहां भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करने व वित्तीय अनियमितता करने वालों को सबक सिखाने की मानसिकता दिखाई ही नहीं देती। यहां तो सिद्धांत यह है कि मामला जितना पुराना, पैसे का जितना बड़ा पहाड़ आप मौजूदा सत्ता को उतना बड़ा फायदा पहुंचा सकते हैं।
कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप से भाजपा को फायदा
पिछले एक दशक का राजनीतिक माहौल ऐसा रहा कि कांग्रेस व अन्य क्षेत्रीय दलों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा कर भाजपा ने लंबी राजनीतिक मुहिम चलाई थी। पिछले काफी समय से वित्तीय अनियमितताओं से जुड़ी जांच एजंसियों की सक्रियता देख कर लग रहा है कि मौजूदा निजाम उस भावना को भुनाते रहना चाहता है। लेकिन आम लोगों को हर तरफ अनियंत्रित पैसे का वर्चस्व दिख ही जाता है।
खास कर अभी झारखंड से लेकर कोलकाता तक में जिस तरह नेता पैसे के साथ पकड़े जा रहे हैं और उसके पहले महाराष्ट्र में जिस नाटकीय तरीके से सत्ता परिवर्तन हुआ। इन सब में पैसे की भूमिका देखते हुए आम लोगों के बीच यही धारणा बन रही है कि कांग्रेस, बसपा या अन्य कोई भी राजनीतिक दल हो दूध के धुले कोई भी नहीं हैं।
कुछ साल पहले जिस देश में भ्रष्टाचार को लेकर ऐतिहासिक सत्ता परिवर्तन हुआ वहां अब इस मुद्दे पर एक तरह की उदासीनता आ गई है। लोगों को अहसास है कि बेईमान इस तरफ भी हैं और उस तरफ भी। ऐसे में मतदाता अगर कहे कि मैं इधर जाऊं या उधर तो गलत क्या होगा? हां, आज के दौर में राज्य हो या केंद्र सत्ता हासिल होते ही राजनीतिक बदले की भावना जिस उग्र रूप से दिखाई दे रही है, उसमें सबसे बड़ा मोहरा जांच एजंसी ही हैं।
वहीं इन सबके बीच आम लोग एक मजबूत विपक्ष की जरूरत सख्ती से महसूस कर रहे हैं। शायद इसलिए किसान आंदोलन जैसी मुहिम को आम लोगों का इतना समर्थन मिलता है कि प्रचंड बहुमत वाली सरकार को भी अपना मजबूत फैसला वापस लेना पड़ता है। जहां तक जांच एजंसियों को लेकर विपक्ष की बात है, तो उनका हाल दर्द का बढ़ कर दवा सरीखा हो जाना है। वे मान बैठे हैं कि हम सत्ता में नहीं हैं तो हमारे साथ ऐसा ही होना है।
जिस तरह से सिर्फ और सिर्फ विपक्ष के दरवाजे पर ही जांच की आंच फैल रही है वहां पर संस्कृत का एक ही सूत्र याद आता है-अति सर्वत्र वर्जयेत। विपक्ष की नेता सोनिया गांधी जो 74 साल की हैं उनसे घंटों पूछताछ के बाद क्या प्रवर्तन निदेशालय हासिल-ए-महफिल का प्रमाण-पत्र भी प्रस्तुत कर पाएगा?
जब 2014 में राबर्ट वाड्रा को छह महीने के अंदर जेल भेजे जाने के चुनावी वादे किए जा रहे थे तब लोगों ने तालियां बजाई थी। लेकिन वाड्रा आठ साल बाद भी बाहर हैं तो सोनिया गांधी की पेशी होना सिर्फ राजनीतिक शक्ति की नुमाइश ही लगती है।
सोनिया गांधी से पहले राहुल गांधी से प्रवर्तन निदेशालय जितनी लंबी पूछताछ कर चुका है और उसका कोई ठोस हासिल नहीं था तो सोनिया गांधी की पेशी से प्रवर्तन निदेशालय की कोई अच्छी छवि नहीं बनी। आम लोगों को तो यह कतई भरोसा होने से रहा कि यह सब कुछ उसकी भलाई के लिए किया जा रहा। इस अति सक्रियता का हाल ‘ईडी आया, ईडी आया’ जैसा होगा जब लोग सच सामने आने का इंतजार करना छोड़ देंगे।
राजनीति में कोई समाप्त नहीं होता, संभावनाओं का अंत नहीं होता। एक तरफ अति दिखते ही जनधारणा का स्थानांतरण दूसरी तरफ होने में देर नहीं लगती। आप अपनी कमियों को दूसरों पर लाद नहीं सकते। दो हजार के नोटों का ढेर बता रहा कि डिजिटल इंडिया आर्थिक भ्रष्टाचार रोकने में नाकाम है और काला का रंग अब गुलाबी हो चुका है।
कोई व्यक्ति जब चुनाव लड़ता है तो उसे अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करनी पड़ती है। एजंसियां यह नजर क्यों नहीं रखतीं कि महज पांच या दस साल में उनकी संपत्ति करोड़ों में कैसे बढ़ती है? एक चुनाव जीतने के बाद पांच दूनी अनंत के गणित पर पहली बढ़त से ही लगाम क्यों नहीं लगती?
मौजूदा निजाम जब सब कुछ दुरुस्त करने की बात कर रहा है तो उसे फिर इस दिशा में भी ठोस काम करना चाहिए। सिर्फ विपक्ष से जुड़े पुराने मामले पर ही कार्रवाई होगी तो जनधारणा बदल जाने के खतरे को लेकर भी उसे सचेत हो जाना पड़ेगा। अब तक विपक्ष के जिन नेताओं के घर छापे व पेशी के नोटिस नहीं पहुंचें हैं तब तक वे मिर्जा गालिब के इस शेर को गुनगुना सकते हैं।
‘न लुटता दिन को तो कब
रात को यूं बे-खबर सोता
रहा खटका न चोरी का
दुआ देता हूं रहजन को’