सरकारी नौकरी सुरक्षा की गारंटी इसलिए मानी जाती थी कि इसमें राज्य नागरिकों के बुढ़ापे का भी इंतजाम करता था। नए लोगों को रोजगार मिले, इसके लिए पुराने का सेवानिवृत्त होना जरूरी है। अब मसला यह है कि जब घर के युवा ही असुरक्षित नौकरी से जूझ रहे हों तो वे बुजुर्गों की देखभाल का खर्च कैसे वहन करें। बुजुर्ग नागरिकों के आत्मसम्मान का भी सवाल है कि वे दूसरों पर निर्भर क्यों रहें? नई पेंशन योजना लागू होने के दो दशक के भीतर लोगों को लग रहा है कि उनका सुरक्षा कवच हट गया है। आम जनता की इस स्थिति को देख कर विपक्ष पुरानी पेंशन योजना का मुद्दा लेकर आया जो मौजूदा सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। नए से पुराने की ओर वापसी आसान नहीं है यह सभी जानते हैं। लेकिन नई हो या पुरानी कोई ऐसी व्यवस्था तो हो जो नागरिकों को अपना आर्थिक अभिभावक दिखे। पुरानी पेंशन योजना की जोर पकड़ती मांग और इसके विरोधाभासों पर प्रस्तुत है बेबाक बोल।
‘अगर हरियाणा में कांग्रेस की सरकार आती है तो पहली कलम से कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना लागू करेंगे।’ दिल्ली के रामलीला मैदान में पुरानी पेंशन बहाली की मांग को लेकर हुई रैली में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंदर सिंह हुड्डा थोड़ी देर के लिए बोले। कुछ पलों के लिए मिले मंच का इस्तेमाल उन्होंने पुरानी पेंशन योजना के वादे के लिए किया। मंच पर इतनी भीड़ थी तो उन्हें ज्यादा वक्त मिलना भी नहीं था। विपक्षी दलों के बहुत से नेताओं को मंच पर आना था और पुरानी पेंशन योजना लागू करने का वादा सुनाना था।
‘नेशनल मूवमेंट आफ ओल्ड पेंशन स्कीम’ की अगुआई में हुई इस रैली में ‘इंडिया’ यानी विपक्ष से जुड़े नेता और ट्रेड यूनियन संगठन शामिल हुए। इस मांग की राह हिमाचल प्रदेश ने दिखाई थी जब पुरानी पेंशन योजना के वादे के साथ कांग्रेस को राजनीतिक पुनर्जन्म मिला। मौजूदा सत्ता का कोई विकल्प नहीं के राग से परेशान विपक्ष को वापसी के लिए पुरानी पेंशन योजना दिखी।
2004 में राजग सरकार ने वेतन का 50 फीसद पेंशन देने वाली योजना को खत्म कर नई पेंशन योजना लागू कर दी। पुरानी पेंशन योजना को खजाने पर बहुत बड़ा बोझ बताया गया था। नई पेंशन योजना की राह का श्रेय आज भले भाजपा का कोई नेता नहीं लेना चाहता है और न ही राहुल गांधी या कांग्रेस का कोई नेता। लेकिन, यह सच है कि पेंशन को बोझ मानने का नक्शा कांग्रेस ने खींचा जिसे वाजपेयी सरकार ने लागू करने का तत्कालीन श्रेय लिया। लेकिन, राजग सरकार के जाने और अपने दो कार्यकाल के दौरान कांग्रेस की अगुआई वाले ‘योजना आयोग’ ने नई पेंशन योजना का समर्थन ही किया था।
नई पेंशन योजना आर्थिक सुधार की श्रेणी में थी। नई आर्थिक नीति के वास्तुकार इसे मील का पत्थर मान रहे थे। आर्थिक सुधार एक आभासी शब्द था जो इस्तेमाल तो सारी सरकार कर रही थी, लेकिन जिसका शाब्दिक यथार्थ समझने की कोशिश कोई नहीं कर रहा था। आर्थिक सुधार को सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ के परे एक तकनीकी शब्द मान लिया गया।
यह आर्थिक सुधार पानी के रासायनिक संगठन एचटूओ या दो जमा दो बराबर चार जितना तकनीकी नहीं था। महज दो दशक में आम लोगों ने महसूस किया कि पेंशन के साथ नया शब्द जोड़ कर बाकी ढांचे को पुराने हालात पर ही छोड़ दिया गया। जिस निजीकरण को भारत भाग्य विधाता बताया जा रहा था वह देश में वरदान तो साबित नहीं हो रहा था।
एक समय ऐसा भी था जब बीसवीं सदी को अलविदा कहने वाले संपन्न तबकों के युवा सरकारी नौकरी को हिकारत की नजर से देखने लगे और नौ से पांच की नौकरी किसी श्वेत-श्याम सरीखी फिल्म जैसी थी। चारों तरफ प्रबंधन कालेज खुल रहे थे। दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बंगलुरु महानगरों से सटे उपशहरों की खेतों से खाली कराई गई नई जमीनों पर आलीशान प्रबंधन कालेज खुल रहे थे।
प्रबंधन पूरे देश के युवाओं का पसंदीदा विषय बन गया। यहां से निकल रहे युवाओं की तनख्वाह इतनी बताई जाती थी जितनी ईमानदार सरकारी अधिकारी सोच भी नहीं सकता था। एक वर्ग पेंशन को ऐसी हिकारत से देखने लगा जैसे उसकी तनख्वाह को कामधेनु का वरदान मिला हो या उसने ऐसा जमजम पी लिया हो कि कभी बूढ़ा ही नहीं होगा।
इस चमकते दौर का अर्द्धविराम आया। प्रबंधन कालेज तो खुले, लेकिन यहां से निकले युवा प्रबंधन किसका करते? नई पेंशन योजना देश के पुराने आर्थिक माहौल को बदल नहीं सकी। आनुपातिक तौर पर इतने उद्योग-धंधे नहीं लगे जहां इतने सारे प्रबंधनधारियों को खपाया जा सकता। उन्हें तो सस्ते में काम करने वाले कर्मचारी चाहिए थे।
अगर दिल्ली सरकार ने न्यूनतम वेतन बढ़ा दिया तो उसकी काट में उद्योग दिल्ली से सटे हरियाणा और उत्तर प्रदेश की जमीन पर लगा दिए गए। प्रबंधनधारियों की तनख्वाह की पूर्णिमा का चांद अमावस की तरफ जाने लगा। महज दो दशक में लोग इतने त्राहिमाम हुए कि कहा, पुराने की ओर लौटो। नए वाले प्रबंधनधारियों ने कहा, हमें उसी पुरानी सरकारी सेवा में पीछे के दरवाजे (लैटरल एंट्री) से ले आओ।
आर्थिक सम्मेलनों में सरकार भारत की पारंपरिक, सांस्कृतिक छवि दिखा कर गौरवान्वित हो रही है। सरकार कह रही है वेदों की ओर लौटो तो जनता कह रही वेदों के साथ पुरानी पेंशन की ओर लौटो। पुराना ही अच्छा है। धार्मिक और जातिगत ध्रुवीकरण के इस भयंकर दौर में जनता अगर किसी एक मुद्दे पर ध्रुवीकृत हुई तो वह है पुरानी पेंशन योजना।
भारतीय घरों में संतान के पैदा होते ही उसे हर तरफ से सुरक्षा कवच दिया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान से लेकर आर्थिक स्तर पर संतति के भविष्य की चिंता की जाती है। बच्चे की पहली मुंहदिखाई में पैसे देने की परंपरा रही है जो उसके बेहतर आर्थिक भविष्य के लिए शगुन माना जाता है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में सरकारी नौकरी एक सुरक्षा कवच बन कर आई थी।
अभिभावक को कुछ हो गया तो उसकी संतति आर्थिक तौर पर अनाथ नहीं होती थी। लेकिन, जनसंख्या के हिसाब से सरकारी नौकरियों की भी कमी रही। देश ने वैसा दौर भी देखा है जब किसी पिता ने नौकरी के आखिरी समय में इसलिए आत्महत्या कर ली ताकि उसकी संतति को अनुकंपा के आधार पर ही सरकारी नौकरी मिल जाए।
सेवानिवृत्ति के बाद घर में बेरोजगार बच्चे को बेचैन नहीं देखना पड़े। इसका मतलब यह नहीं था कि उसकी संतान निकम्मी थी। निकम्मी वह व्यवस्था थी जिसने ‘सरकारी’ को सबसे बड़ा खलनायक बनाया, लेकिन नायक के रूप में कोई व्यवस्था खड़ी नहीं कर पाई। जो खड़ा किया गया वह मोम के पुतला सरीखा था, नौकरी की मांग की गर्मी से दो दशक में पिघल गया।
राजनीति ने बीसवीं सदी का भारतीय साहित्य ही पढ़ लिया होता तो उसे समझ आ जाती कि भारतीय अर्थव्यवस्था में नौकरी और पेंशन की क्या अहमियत है। अमरकांत के ‘दोपहर के भोजन’ की सिद्धेश्वरी को याद कीजिए। छंटनी का शिकार पति और घर में बेरोजगार बेटा। पुरानी पेंशन योजना के दो दशक में ही आम लोगों को लगने लगा है कि उन सबका घर अमरकांत के ‘दोपहर का भोजन’ जैसा न हो जाए। घर में दोपहर का भोजन प्रतीक है बेरोजगारी का।
रोजगारशुदा लोग घर में सुबह का नाश्ता और रात का खाना ही खाते हैं। भारत के संदर्भ में दोपहर का भोजन डिब्बों में पैक होना प्रतीक है खुशहाल जीवन का। दोपहर का भोजन घर में सेवानिवृत्ति के बाद ही अच्छा लगता है और वह भी तब जब आपको महंगाई के मुताबिक सम्मानजनक पेंशन मिले, अब वो नए तरीके से मिले या पुराने तरीके से मिले।
हर किसी की जिंदगी में उम्र का वह दौर जरूर आता है जब उसे दोपहर का भोजन घर में करना होता है। ये दौर न आए तो पुराने लोग सेवानिवृत्त न हों और युवाओं को रोजगार ही न मिले। दो दशक में लोग उस स्थिति को लेकर डर गए हैं जब घर के बुजुर्ग युवाओं के लिए बोझ न बन जाएं। अपनी संकट भरी नौकरी के बीच युवा उन बुजुर्गों की देखभाल कैसे करेंगे जिनके पास कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं है। यह हर व्यक्ति के आत्मसम्मान की बात है कि वह जीवन के अंत तक किसी पर निर्भर न हो। राज्य से इस सुरक्षा की मांग करना हर नागरिक का अधिकार है।
कांग्रेस के नेता चुनावी मैदान में जो कहें, अब राजस्थान, छत्तीसगढ़ से लेकर हिमाचल में पुरानी पेंशन योजना लागू करें लेकिन इसके आर्थिक वास्तुकार आज भी पुरानी पेंशन को अर्थव्यवस्था पर बोझ बता रहे हैं। पुरानी की यह वापसी उतनी भी आसान नहीं है, यह सब जानते हैं। आप चुनावों को देखते हुए जाति जनगणना करवाइए, आबादी के हिसाब से भागीदारी का वादा कीजिए कोई हर्ज नहीं है।
लेकिन नौकरी तो देनी है सबको, पेंशन भी मांग रहे सब। कैसे करेंगे? सरकारी नौकरी बची ही कितनी है और निजी क्षेत्र पहले ही नमस्कार कर चुका है। नई हो या पुरानी कोई योजना तो हो? चुनावी मैदान में न तो कोई ‘योजना’ है और न ‘नीति’। योजना (आयोग) से लेकर नीति (आयोग) तक के हासिल सिफर के इस सफर का मूल्यांकन होगा ही, गणना के गर्जन के ऊपरीगामी पुल से उतर कर घुसना तो उसी संकरी गली में है।