साम्राज्यवादी, युद्धक हथियारों की छवि वाले अमेरिका ने लोकतंत्र के पहरुआ के नाम पर दुनिया को एकध्रुवीय बनाने की कोशिश की। अमेरिकी लोकतंत्र का इतिहास उन युद्धों का इतिहास भी रहा है जो यहां के नेताओं ने लोकतंत्र बहाली के नाम पर अन्य देशों पर थोपे। आज जब अमेरिका का कानून अजन्मे बच्चे की जिंदगी खत्म करने को भी अपराध मानता है तो अमेरिका की जनता का ध्यान इस तरफ गया कि गाजापट्टी में मारे जा रहे बच्चों की चिंता क्यों नहीं? रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट दोनों की सामरिक व आर्थिक नीतियों में ज्यादा अंतर नहीं। दोनों के बीच जो अंतर उभरा, उसका नाम डोनाल्ड ट्रंप है। अमेरिका के चुनावी नतीजे भी वैसे ही हैं जैसे दुनिया के कई अन्य देशों जैसे-चौंकाने वाले। दुनिया के कई देशों की तरह ही मुख्यधारा का अमेरिकी मीडिया भी जनता के मन को पहचानने में नाकाम दिखा। कांटे की टक्कर डोनाल्ड ट्रंप के लिए फूलों के गुलदस्ते में बदल गई। चार साल पहले जिसकी राजनीति का अंत मान लिया गया उसकी द्वितीय पारी फिलहाल अद्वितीय सी क्यों दिख रही, इसकी परख करता बेबाक बोल।
इतिहास की सबसे बड़ी वापसी की शुभकामनाएं… इजराइल के राष्ट्रपति बेंजामिन नेतन्याहू ने अमेरिकी लोकतंत्र में डोनाल्ड ट्रंप की जीत को इतिहास की सबसे बड़ी वापसी कहा। अमेरिकी लोकतंत्र के एक सदी से ज्यादा के इतिहास में ऐसा सिर्फ दूसरी बार हुआ है। यह दूसरी बार वाली परिघटना भी अपनी तरह की पहली है। चार साल पहले जिस तरीके से डोनाल्ड ट्रंप ने वाइट हाउस को अलविदा कहा था उसे अब तक का सबसे अशालीन से लेकर अराजक तक की संज्ञा दी गई थी। चुनावी हार से नाखुशी के बाद ट्रंप के समर्थकों ने राष्ट्रपति भवन में जैसा उपद्रव किया था, उसके बाद अमेरिकी व वैश्विक जनसंचार के साधनों ने डोनाल्ड ट्रंप के राजनीतिक अंत का एलान कर दिया था।
ट्रंप तो सत्ता से चले गए लेकिन ‘ट्रंपवाद’ कायम रहेगा
हालांकि चार साल पहले जब ट्रंप के राजनीतिक अंत का एलान किया गया था तब एक अवधारणा आई थी ‘ट्रंपवाद’ की। कहा गया कि ट्रंप तो सत्ता से चले गए लेकिन ‘ट्रंपवाद’ कायम रहेगा। क्या है ‘ट्रंपवाद’? मेक्सिको की दीवार और अवैध प्रवासियों का मुद्दा उठाने वाले ट्रंप अमेरिका की कथित प्रगतिशीलता को चुनौती दे रहे थे। अभी तक अमेरिकी राष्ट्रपति जिस तरह पूरी दुनिया की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा कर घूमने की छवि बना कर अपने चेहरे पर ब्रह्मांड का बोझ ढोने जैसी शिकन लाते थे ट्रंप ने उनके चेहरों से मुखौटे उतारने की कोशिश की।
‘अमेरिका महान’ कोई नई अवधारणा नहीं थी, लेकिन ट्रंप ने उसका पुनर्जागरण अपने तरीके से किया। दुनिया के अभिभावक की छवि वाले अमेरिका को अपने पैरों के नीचे से खिसकती जमीन देखने के लिए कहा। अवैध अप्रवासियों को अमेरिकी संसाधनों पर बोझ बताया। एक तरफ दुनिया को युद्ध में झोंके रखना और दूसरी तरफ अवैध अप्रवासियों के मानवाधिकारों का झंडा बुलंद करना। युद्धक और वैश्विक मानवाधिकारों के रक्षक की विरोधाभासी छवियों के बीच ट्रंप ने अमेरिका की जनता को ऐसा नजरिया दिया कि वह मौजूदा सत्ता से सवालतलब हो गई।
ट्रंप का उग्र-राष्ट्रवाद बड़ी मजबूती से अपनी जड़ जमा रहा था
ट्रंप के नजरिए वाले इसी राष्ट्रवाद को ‘ट्रंपवाद’ कहा गया। जनवरी 2020 में सत्ता हस्तांतरण के पहले जिस तरह ट्रंप ने चुनावी नतीजों को मानने से इनकार किया और उनके समर्थकों ने उपद्रव मचाया वह अमेरिकी लोकतंत्र में बड़ा हादसा माना गया। ट्रंप पर दो बार महाभियोग लगे। रिपब्लिकनों ने साथ देकर ट्रंप के राजनीतिक जीवन को बचाया। चुनावी नतीजों के बाद ट्रंप उग्रता दिखा कर राष्ट्रपति भवन से तो निकल गए थे लेकिन उनका उग्र-राष्ट्रवाद बड़ी मजबूती से अपनी जड़ जमा रहा था।
जनवरी 2020 के बाद जब ट्रंप अमेरिका की राजनीति में लौटने की कोशिश में जुटे और उनके पीछे रिपब्लिकन का कारवां बनता गया उससे ही स्थिति साफ हो रही थी कि ‘ट्रंपवाद’ नहीं अमेरिकी राजनीति में खुद ट्रंप ही जिंदा हैं। जिस ट्रंप के राजनीतिक अंत का एलान हुआ था वही रिपब्लिकन की ओर से राष्ट्रपति पद के लिए अधिकृत राजनीतिक उम्मीदवार चुने गए।
ट्रंप जिस राजनीतिक विचारधारा की अगुआई कर रहे रहे हैं उदारवादी राजनीतिक विश्लेषक उसे रूढ़िवादी कहते आए हैं। ‘ग्रैंड ओल्ड पार्टी’ भी ट्रंप के उग्र विचारों वाले वादों-इरादों पर शुुरुआती दौर में असहज थी। वहां भी डोनाल्ड ट्रंप को अतिवादी का तमगा मिल चुका था। सवाल है कि ट्रंप के इस ‘अतिवाद’ को अमेरिका की जनता ने प्राथमिकता क्यों दी?
पिछली सदियों में बहुत आगे बढ़ चुकी दुनिया की प्रगतिशील शक्तियों के पास जिनका अगुआ अमेरिका है, उनके आगे बढ़ने के लिए जमीन ही नहीं बची है। अपने प्रगति के झंडे के साथ जब वो पीछे मुड़ कर देखते हैं तो वहां पर रूढ़िवादिता खड़ी मिलती है। आगे बढ़ने के लिए जमीन नहीं और पीछे रूढ़िवादियों की मिल्कियत जहां नस्लीय और सामाजिक अधिकारों को लेकर हल्ला बोल है।
अमेरिका की जनता पिछले दिनों जिस तरह महंगाई और बेरोजगारी से जूझ रही थी उसका समाधान न तो जो बाइडेन दिखा पा रहे थे और न ही उनकी उत्तराधिकारी कमला हैरिस। ट्रंप ने महंगाई और रोजगार को इतना बड़ा मुद्दा बनाया कि बाकी विमर्श के आधार पर खड़े किए गए मुद्दे धरे रह गए। खास बात यह है कि 2024 में ट्रंप को अल्पसंख्यकों और मुसलिमों के भी वोट मिले हैं। इस तबके का वोट उन पूरे हवाई विमर्शों को जमीन पर उतार लाया जो नीतियों के स्तर पर रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के बीच एकमात्र विभाजक रेखा थी।
भारत और अमेरिका के आम चुनावों में एक मुद्दा समान था। वह था-संविधान। भारत में विपक्ष ने संविधान को बचाने का मुद्दा बनाया था तो अमेरिका में सत्ताधारी ही कह रहे थे कि हम सत्ता में आए तो संविधान बचाएंगे। भारत में विपक्ष के पास तर्क था कि सत्ता संवैधानिक शक्तियों को कमतर करना चाहती है। अमेरिका में सत्ताधारी दल विपक्ष के प्रति खौफ दिखा रहा था कि वह संविधान को खत्म कर देगा। शायद दोनों जगहों की जनता अब तक इतनी जागरूक हो चुकी है, जो जानती है कि संविधान कोई आसमानी किताब नहीं है। जनता के अधिकारों का दस्तावेजीकरण ही संविधान है। संविधान न तो पक्ष, न विपक्ष बल्कि तीसरे पक्ष यानी जनता का मामला है।
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बीसवीं सदी में अमेरिका की जो युद्धक जहाज वाली छवि बनी अमेरिकी जनता उससे भी उकता चुकी है। मध्य पूर्व से लेकर यूक्रेन तक। अमेरिका में युद्ध और साम्राज्यवाद तो दोनों दलों की प्राथमिकताओं में रहे हैं। उग्र-राष्ट्रवाद की अपनी किताब में ट्रंप ने किसी नए युद्ध को ना कहा है। चुनावी वादे में ट्रंप की युद्ध को लेकर नकार को लोगों ने स्वीकार किया। जब डेमोक्रेट अमेरिका में गर्भपात पर प्रतिबंध कानून का विरोध कर रहे थे तो सवाल यह भी उठा था कि अजन्मे बच्चों का अधिकार तो ठीक है लेकिन गाजापट्टी का क्या?
वहां के युद्ध में अब तक जितने बच्चे मारे गए हैं वह एक अलग इतिहास बन चुका है। अजन्मे के बरक्स उन जन्मे बच्चों ने अमेरिकी जनता को भी विचलित किया जो कब्र में दफन होते जा रहे हैं। युद्ध के नाम पर गाजापट्टी में आम जनता के जनसंहार के आरोप से कमला हैरिस किसी भी तरह खुद को अलग नहीं कर पाईं। आखिर युद्ध के क्षेत्र से पैसे कमा और वहीं झोंक कर अमेरिका कब तक महान बने रह सकता है?
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की खासियत है कि वहां मीडिया से लेकर अति विशिष्ट लोग खुल कर राजनीतिक पक्षधरता करते हैं। मीडिया घरानों के कर्ताधर्ता किसी खास के प्रति अपने समर्थन का एलान करते हैं। इस बार कथित उदारवादी से लेकर शक्तिशाली मीडिया का बड़ा तबका खुल कर कमला हैरिस के साथ था।
अमेरिकी चुनाव में जो सबसे बड़ी पैरोकारी लेकर ट्रंप के साथ खड़ा हुआ वही बदलते वक्त की आहट है। कारोबारी एलन मस्क ने खुल कर डोनाल्ड ट्रंप की पक्षधरता की। ‘एक्स’ के जरिए उन्होंने डोनाल्ड ट्रंप को अमेरिका का भविष्य करार दिया। जहां अमेरिका का कथित लोकतांत्रिक व पारंपरिक मीडिया, पारंपरिक तरीके से कमला हैरिस को समर्थन दे रहा था, कांटे की टक्कर बता रहा था वहीं एलन मस्क नए अमेरिका का मिजाज समझ चुके थे। इसे इस तरह कहा जाए कि अमेरिका से लेकर पूरी दुनिया को ‘नया’ बनाने में मस्क और उनके ‘एक्स’ की अपनी भूमिका है।
युद्ध को नकार ट्रंप ने कारोबार और रोजगार की हुंकार भरी है। अमेरिका के चुनावी नतीजे दुनिया के ज्यादातर देशों के चुनावी नतीजों की तरह ही हैं। जनता हर तरह के तमगे को खारिज कर अपना प्रयोग कर रही है। एक धु्रवीय, दो ध्रुवीय दुनिया के बीच जनता उसके प्रति ध्रुवीकृत हो रही है जो हर तरह के पारंपरिक ध्रुवीकरण को ध्वस्त कर रहा है। रूढ़िवादिता अपना नया राजनीतिक आसमान तैयार कर रही है जहां अभी डोनाल्ड ट्रंप ध्रुवतारे की तरह चमक उठे हैं।