आज भी अगर कहीं ऐसी घटना घटती है, जिसमें मानवीय भावनाओं और तकाजों के खिलाफ कुछ होता दिखता है, तो लोग सबसे पहले यही प्रतिक्रिया जाहिर करते हैं कि इसका कारण मानवता या संवेदनशीलता का अभाव है। मगर सच यह है कि अपने आसपास देखा जाए, तो बहुत सारे ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जिसमें संवेदनशीलता एक तरह से अनुपस्थित होती है। ऐसा लगता है कि लोगों ने अपने स्वार्थ में यह भी भुला दिया है कि वे मनुष्य हैं और इस नाते उनका संवेदनशील होना और किसी अन्य के प्रति सहायता का भाव रखना मानवीय तकाजा है। यह इंसान होने के लिए उनके भीतर एक अनिवार्य गुण होने की शर्त है, जिसकी अनदेखी करना और उसे त्यागने के बाद उनके मनुष्य होने पर प्रश्नचिह्न लगता है।
ऐसी घटनाएं आम हो चुकी हैं, जिनमें बुजुर्ग माता-पिता को बेसहारा छोड़कर चल देना, छोटी-छोटी बातों में मारने-मरने को तैयार रहना, बेमतलब लोगों को परेशान करना, लूटपाट, कालाबाजारी, मानव अंगों की तस्करी, नशे का व्यापार और समाज में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में होती बढ़ोतरी आदि की खबरें हमारी व्यवहारगत संवेदनशीलता की पोल खोलती नजर आती हैं। ऐसे में लगभग हर हाथ में पहुंच बना चुके स्मार्टफोन के दौर में सुर्खियां हासिल करने या प्रचारित होने की अंतहीन भूख। लड़ते, मरते, गिरते हुए का वीडियो बनाते लोग जरूर दिख जाएंगे, मगर लड़ाई को खत्म करने के लिए बीच-बचाव करने वाले लोग शायद ही कहीं मिलेंगे।
बच्चों के हाथों में स्मार्टफोन हमारी लुप्त होती संवेदना का उदाहरण
यह तथ्य है कि घरों में पति-पत्नी के बीच पनपते द्वंद्व और खटास का सीधा असर उनके बच्चों पर पड़ता है। घर को पहली पाठशाला कहा जाता है। मगर बच्चों के लिए स्कूल बनने की जगह घरों के अंदर पसरता मौन और सन्नाटा हमारे खोखले होने की निशानी बन रहा है। हम इस बात से भी अनजान हैं कि ऐसी नकारात्मक व्यस्तता से हम अपने बच्चों के भविष्य की जिंदगी को कमजोर बना रहे हैं। आभासी दुनिया में खोए रहना और अपने आप में मगन रहना आज की जिंदगी का डरावना सत्य बनता जा रहा है।
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बच्चों के हाथों में स्मार्टफोन या मोबाइल थमाकर उन्हें आनलाइन खेलों के लिए छोड़ देना हमारी लुप्त होती समझ और संवेदना का ही एक उदाहरण है। हम अपनी सुविधा में अपने बच्चों का हित भी भूल रहे हैं। ऐसे आनलाइन खेलों में लीन बच्चे हिंसा, मारधाड़, रहस्य वाले खेल ही पसंद करते हैं। स्कूलों में बच्चे अक्सर मारने-पीटने वाले खेल ही खेलते हैं। हद तो तब हो जाती है, जब किसी किशोर-किशोरी के जन्मदिन को कथित नए तरीके से मनाने के नाम पर उसके दोस्त थप्पड़ बरसाते हैं। यह किस तरह का प्यार है! बधाई और शुभकामनाओं के स्थान पर खेल के नाम पर इस तरह की गतिविधियां विचित्र लगती हैं।
दुनिया रेडीमेड की ओर बढ़ती जा रही
पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव और बदलती जीवनशैली ने हमारे धैर्य और सहनशीलता को बहुत कमजोर कर दिया है। आजकल खानपान, कपड़े, शादी के जोड़े, घर का सामान, सब कुछ रेडीमेड या तैयार मिलने लगा है। इंतजार की घड़ियां खत्म हो गई हैं! दुकान पर जाते ही मनपसंद वस्तुएं खरीद ली जाती हैं और उस वस्तु की पसंद से लेकर तैयार कराने की सारी प्रक्रिया से मिलने वाले भावनात्मक उतार-चढ़ाव और उत्सुकता के साथ किए जाने वाले इंतजार से मुक्ति मिल जाती है। यही वस्तुवाद संबंधों पर हावी होता नजर आ रहा है। संबंधों के मूल में जहां प्रेम, चिंता और देखभाल हुआ करते थे, वहां आजकल स्वार्थ, मौज-मस्ती और मौकापरस्ती पनप रही है। इसी का उदाहरण आए दिन दोस्तों के रिश्तों के टूटने के रूप में देखा जा सकता है। लिव-इन या सहजीवन के रिश्ते में महज आकर्षण, कुछ मजबूरी और वासना के कारण इसका हश्र किसी से छिपा नहीं है। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें महिला साथी को बदनामी, शोषण और जीवन तक से हाथ धोना पड़ा है।
दुनिया मेरे आगे: डिब्बाबंद खाने की सुविधा का हो रहा दुरुपयोग, जानवरों को भरना पड़ रहा खामियाजा
जागरूक और संवेदनशील नागरिक किसी देश के सबसे बड़े संसाधन माने जाते हैं। विश्व में जिन देशों ने तीव्र गति से विकास किया है, उनके नागरिक-बोध को जानना बहुत जरूरी है। फिर चाहे जापान हो या दक्षिण कोरिया या कोई अन्य विकसित देश। नागरिकों की संवेदनशीलता ही उन्नति की पराकाष्ठा में परिलक्षित हो रही है। हम अपने ही देश के इंदौर निवासियों की मिसाल देख सकते हैं। लगातार तीन वर्षों से सबसे स्वच्छ शहर का खिताब उसे मिला है। सवाल है कि बाकी शहरों के लोग कहां हैं? हालांकि देश में बहुत कुछ बढ़िया भी हो रहा है। मगर हर तरफ दिखती हैं केवल नकारात्मक खबरें। लूट, हत्या, बलात्कार, शोषण और भ्रष्टाचार की घटनाएं। इसे सुनाने-दिखाने में भी संवेदनशीलता की कमी अक्सर देखी जाती है। कैमरा सामने कर बाढ़ में डूब रहे व्यक्ति से यह पूछना कि आप कैसा महसूस कर रहे हैं, एक संवेदनहीन सवाल है।
आने वाले पीढ़ियों के लिए करना होगा काम
आवश्यकता है कि हम आने वाली पीढ़ी को घर, परिवार, रिश्तों, समाज, देश, पर्यावरण और कार्य के प्रति निष्ठावान और संवेदनशील बनाएं। हमारे पेशेवर विशेषज्ञ केवल धन-लोलुप होकर न रह जाएं, बल्कि राष्ट्र निर्माण रूपी यज्ञ में अपने श्रम-परिश्रम की समिधाएं अर्पित करने को तत्पर रहें। संवेदनशीलता सकारात्मकता के दरवाजे खोलती है। जब सब ओर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है तो सफलता और तरक्की अपने आप चलकर आ जाती है। हम ऐसे आज का निर्माण करें, जिस पर आने वाली पीढ़ियों को गर्व हो। विकास के साथ विरासत का भान रहे। प्रकृति और संस्कृति दोनों जीवित रहेंगी तो जीवन में रस बना रहेगा। अन्यथा हम सभी बाहर और भीतर के रेगिस्तान की ओर कदम बढ़ा रहे हैं।