भुनाना हिंदी की सबसे सक्रिय क्रिया है। अमिताभ बच्चन मार्का फिल्म की तरह हर साहित्यकार इस तरह के सवाल का सामना करता है कि तुम्हारे पास राजनीति में भुनाने के लिए क्या है? यही सवाल ‘लगभग जयहिंद’ के कवि से पूछा गया था। शिल्प, भाव, शब्द को लेकर लग रहा था कि यह रचानाकार नए औजारों से लैस है। या तो इधर या उधर वाली साहित्यिक सत्ता ने पूछा कि राजनीतिक प्रतिबद्धता कहां है? विनोद कुमार शुक्ल का साहित्यिक किरदार पूछ बैठा, क्या जिंदगी जीते रहना काफी नहीं है? शुक्ल ने साहित्य में ऐसे मध्य-वर्ग को चुना, जो राजनीतिक चश्मे के हिसाब से सबसे निष्क्रिय व बेकार था। जब प्रतिबद्धताओं का प्रदर्शन न हो तो साहित्य कैसा! साहित्य में हताश इस आम आदमी की तरफ शुक्ल ने हाथ बढ़ाया। हताश आदमी जब इस धीरे बोलने, धीरे चलने वाले लेखक के साथ आगे बढ़ा तो साहित्य के शुक्ल-पक्ष में एक जादुई यथार्थ का जन्म हुआ। विनोद कुमार शुक्ल के निधन के बाद हिंदी साहित्य में शुक्ल-पक्ष की अमरता को समझने की कोशिश करता सरोकार।
बीसवीं सदी में प्रेमचंद ने साहित्य के बारे में जो कहा, उसे आगे के लिए साहित्य की शास्त्रीय परिभाषा माना गया। प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। इस खांचे के तहत मुखर राजनीतिक स्वर वाले नायक के बिना साहित्य अधूरा था। दुनिया भर के साहित्य की यही खासियत रही है कि उसने खुद को किसी एक सांचे में समाने से इनकार कर दिया। हिंदी साहित्य में भी ऐसा कई बार हुआ। इस कई में एक नाम विनोद कुमार शुक्ल का भी है। उनके पक्ष पर बात करने से पहले हिंदी फिल्म का एक गीत याद आ रहा है। तेरे गिरने में भी तेरी हार नहीं/ कि तू आदमी है अवतार नहीं…। ’ साहित्यिक अवतारों की भीड़ में विनोद कुमार शुक्ल आम आदमी की बात कर रहे थे।
विनोद कुमार शुक्ल गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित रहे थे। मोहनदास करमचंद गांधी की राजनीति की एक शैली थी। वैसी शैली, जिसमें बच्चे, युवा, औरत, मर्द सब राजनीतिक हो सकें। खादी के कपड़े पहनना भी राजनीतिक है, तो चरखा कातना भी। शुक्ल का साहित्य भी ऐसे ही खामोशी से आम आदमी को रच रहा था। इस साहित्य का किरदार आपको राजनीतिक नारे लगाते, किसी तरह की मशाल जलाते हुए नहीं दिखेगा। वह एक सामान्य जीवन जी रहा है। इतना सामान्य कि न तो कहीं पर उसका विरोध रेखांकित होगा, न तो उसकी जय या पराजय।
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साहित्य का शुक्ल-पक्ष कहता है, ‘खुश रहने के लिए बहाने ढूंढ़ने चाहिए और खुश रहना चाहिए। बाद में यही बहाने कारण बन जाते हैं।’ वे कहते हैं, ‘बहुत से लोग दुख का अभ्यास बचपन से करते हैं। उन्हें इस अभ्यास के लिए मैदान की आवश्यकता नहीं होती है।’ शुक्ल के साहित्यिक किरदार किसी तरह के प्रशिक्षण का हिस्सा नहीं रहे हैं। क्या जीवन को जीते जाना भी किसी तरह का प्रशिक्षण हो सकता है? वह जब मनुष्य को एक इकाई की तरह देखते हैं, उसके हृदय यानी अंदरूनी जेब को टटोलते हैं, तो कहते हैं-‘झुकने से जैसे जेब से/सिक्का गिर जाता है/हृदय से मनुष्यता गिर जाती है।’
साहित्य में शुक्ल पक्ष मध्य-पक्ष है। वह मध्य व्यवस्था के खिलाफ सकल संग्रामी नहीं दिखता है। बिना किसी उत्तेजना के उसका खामोश बैठा रहना बीसवीं सदी की शास्त्रीय परंपरा में अराजनीतिक होना दिख जाता है। अस्मितावाद के चरम काल में वे अपने साथ किसी भी तरह की अस्मिता नहीं ओढ़ते। उनका आम आदमी सोना, उठना, घर के कामकाज, ‘बाजार का एक दिन’ जैसी गतिविधियां बिना किसी राजनीतिक उद्घोष के करता है। बेफरियादी साहित्यिक किरदारों को देख कर एकबारगी अचरज होता है कि लेखक ने इन्हें किसी तरह की फरियाद से वंचित क्यों रखा है? शुक्ल तो शिकायत को लेकर इतने निर्मोही हैं कि शोर मचाती उपेक्षा के बीच धीमे-धीमे कहते हैं-
जो मेरे घर कभी नहीं आएंगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊंगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी
मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊंगा।
शुक्ल-पक्ष में पाठक साहित्य की सामान्य सी दिखती चीजों के साथ इतने सामान्य तरीके से आगे बढ़ता है कि थोड़ी देर बाद उसकी आम जिंदगी भी उसमें घुल-मिल जाती है। शुक्ल के किरदार अपनी आम जिंदगी को सफल या असफल के खांचे में रखते ही नहीं हैं, तो फिर शर्मिंदा कहां से होंगे। न तो इनकी जिंदगी में प्रतिबद्धताओं के प्रदर्शन का वैसा कोई गर्वोक्ति भरा क्षण आता है कि देखो, यहां से चला था तो यहां पहुंच गया। प्रतिबद्धताओं के चरम की अनुपस्थिति की वजह से पाठक इनके शब्दों से निकल नहीं पाता है, जब निकलता है, तो उसके ऊपर भी एक खामोशी तारी होती है। पाठकों को भी वहां अपने लिए एक ओट दिखता है, कि उसे अब वहां कोई नहीं देखेगा। अपने हिस्से का एकांत पाकर वह निश्चिंत सा हो जाता है।
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शुक्ल-पक्ष के साहित्य की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जो एक बार शुक्ल का पाठक हुआ, वह उन्हें कभी छोड़ कर नहीं गया। साहित्यकार की तरह उनका पाठक भी बार-बार लौट आता व्यक्ति है। हताशा में बैठे हुए उनके किरदार पाठकों का हाथ पकड़ कर मानो कहते हैं-थोड़ा बैठ जाओ। हताश होना भी एक साहित्यिक क्रिया हो सकती है, यह शुक्ल संभव कर दिखाते हैं। वे कहते हैं-
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
इस तरह साथ चलने लगना ही वह शैली है, जिससे शुक्ल-पक्ष को जादुई यथार्थ का नाम मिला था। कोई उपदेशक भी किसी की हताशा वैसे, खत्म नहीं कर सकता, जैसे उसकी तरफ बढ़ा हुआ हाथ। इस बढ़े हुए हाथ में कोई नाटकीयता नहीं है, बल्कि मनुष्यता की सादगी है। आपने साथ देने के पहले हल्ला मचाया, साथ देने का आडंबर किया, इश्तहार लगाया। अगर एक हताश को अपने जैसा एक हताश हाथ नहीं मिला, तो वह वहीं पर अपनी इति मान लेगा। किसी हताश के लिए इससे बड़ी हताशा और क्या हो सकती है कि उसके आस-पास कहीं हताशा नहीं। क्योंकि आस-पास की हताशा को आडंबरों से ढक दिया गया है। शुक्ल-पक्ष सबसे अराजनीतिक शब्द हताशा को भी उत्साहित कर देता है।
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आज जब वैश्विक स्तर पर भाषाई अस्मिता को लेकर अलगाव चल रहा है, उस समय शुक्ल की कविता भाषाई झगड़े की संकीर्णता से निकलने के लिए प्रेरित करती है। कवि की इच्छा तो देखिए, वह नई भाषा को अपनी मातृभाषा बनाने के लिए बार-बार जन्म लेना चाहते हैं। भाषाई सद्भाव को लेकर यह धरती की निर्दोष अभिव्यक्तियों में से एक है-
अपनी भाषा में शपथ लेता हूं
कि मैं किसी भी भाषा का
अपमान नहीं करूंगा
और मेरी मातृ भाषा
हर जन्म में बदलती रहे
इसके लिए मैं बार-बार
जन्म लेता रहूं-
यह मैं जीव-जगत से कहता हूं
चिड़ियों, पशुओं, कीट-पतंगों से भी।
विनोद कुमार शुक्ल धीरे-धीरे बोलते थे और साहित्य की दुनिया में मध्यवर्गीय साजो-सामान के साथ धीरे-धीरे चले। अपने धीरे-धीरे चलने वाले शब्दों के जादू से उन्होंने अपना एक बड़ा पाठक-वर्ग तैयार किया। उनके शब्दों में मनुष्यता का ऐसा जादू था कि वे कविता, कहानी, उपन्यास के साथ बच्चों के लिए भी लिखने का हौसला जुटा सके।
हिंदी साहित्य में शुक्ल-पक्ष का मध्य-काल इतिहास के घोषित मध्य-कालसे अलग है। यहां घर के बर्तन, आम का पेड़, जूते, घर के बाहर की सड़क के बारे में बात हो रही है। विनोद कुमार शुक्ल के जरिए हिंदी साहित्य को ऐसा मध्य-काल मिला जिसे आम पाठक तो बहुत मिले, लेकिन वह अपने किसी भी समकालीन राजनीतिक व्यवस्था के अनुकूल नहीं रहा। इसकी कोशिश भी नहीं की। दक्षिण उन्हें मजबूरन स्नेह देने में जुट गया क्योंकि वाम की उपेक्षा का आरोप था और वाम की भृकुटि तनी रहती थी कि दक्षिण से जुड़े को क्यों रास आया। इन दोनों अतियों के बीच जो मध्य है, वह शुक्ल के साथ चुपचाप चल पड़ा। लगातार चलती हुई चुप्पी जो राजनीति को अखर रही थी, वह पाठकों का अपना हिस्सा, अपना कोना बन गई।
विनोद कुमार शुक्ल मुक्तिबोध से बहुत प्रभावित थे। शुक्ल राजनांदगांव के थे और मुक्तिबोध वहां के कालेज में पढ़ाने के लिए आए थे। अपनी बातचीत में वे मुक्तिबोध का जिक्र करते रहे हैं। शुक्ल अपनी कविताएं लेकर मुक्तिबोध से मिलने गए थे। मुक्तिबोध, ठहरे मुक्तिबोध। उन्होंने उस उत्साही युवक को समझाया कि कविता लिखना बहुत कठिन काम है। मुक्तिबोध ने उन्हें सलाह दी कि पढ़-लिख कर नौकरी करो और अपनी मां की मदद करो। लेकिन शुक्ल ने हार नहीं मानी और मुक्तिबोध के पास कविताएं लेकर जाते रहे। इन्हीं कोशिशों की बदौलत, बजरिए मुक्तिबोध शुक्ल की कविताएं श्रीकांत वर्मा तक दिल्ली पहुंच गईं और वे पाठकों के हो गए।
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विनोद कुमार शुक्ल अब नहीं हैं, तो उनके घर के बाहर की खिड़की के पास बहुत भीड़ है। शुक्ल ने भीड़ की परवाह कब की थी? वे तो खिड़की के बाहर भी अकेले हताश बैठे आदमी को ही पसंद करते थे।
शुक्ल पक्ष की साहित्यिक दीवार की खिड़की के पास शोर बढ़ रहा है। उनके चुप्पा पाठक भी बोलने के लिए निकल पड़े हैं। अब शुक्ल-पक्ष का नया जीवन शुरू हुआ है। देह के पार का जीवन। शब्दों का जीवन। उनके मध्य में फंसा पाठक यह नहीं कह पा रहा-शुक्ल ‘कहते थे’, वे अभी भी ‘कहते हैं’, का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेखक का जीवन तो पाठक तय करते हैं-अभी उनके साहित्य को समझने के लिए उम्र पड़ी है। शुक्ल का मूल्यांकन अभी जवां होगा। नई पीढ़ी उनके बारे में नए शब्दों में बात करेगी, जैसे अपने समय में उन्होंने नए शब्द गढ़े थे। भाषा की लड़ाई दो मुल्कों, दो बिरादरियों की ही नहीं, दो पीढ़ियों की भी होती है। शास्त्रीय संगीत सुनने वालों ने सुगम संगीत सुनने वालों को कोसा और अभी उस भाषा को कोसा जा रहा जो नई पीढ़ी के शब्दों से लैस है। इन नए शब्दों पर भी पुरानी दुनिया उसी तरह अचरज करेगी, जैसे शुक्ल के शब्दों पर किया था। इन सबके बीच शुक्ल की आवाज गूंजती रहेगी-
मैं यहीं रहूंगा
लड़ता भिड़ता
मैं अब तक ठगा रहा हूं…
जिस लेखक से उम्मीद की जाती रही थी कि उसका लेखन सत्ता के प्रतिरोध से जरा भी इधर-उधर नहीं होना चाहिए, अगर वह प्रकाशकों के खिलाफ अपना मुखर प्रतिरोध दर्ज कराए तब? ऐसा साहसी कदम वह लेखक उठाए, जिन पर आरोप रहा है कि उनका साहित्य शोषण को लेकर खामोश रहा है। हिंदी साहित्य में यह संभव किया था विनोद कुमार शुक्ल ने।
साहित्य का यह कड़वा सच तब सामने आया जब अभिनेता व रचनाकार मानव कौल विनोद कुमार शुक्ल से मिलने पहुंचे, और उनके साथ हुई बातचीत साझा की। मानव कौल ने अपनी इंस्टाग्राम की पोस्ट में लिखा था कि पिछले एक साल में छपी तीन किताबों के लिए विनोद कुमार शुक्ल को दो प्रकाशकों की ओर से 6000 और 8000 रुपए मिले। मतलब देश का सबसे बड़ा लेखक साल के 14000 रुपए ही कमा रहा है। कौल का आरोप था कि शुक्ल के पत्र-व्यवहार का प्रकाशक महीनों तक जवाब नहीं देते हैं।
मार्च 2022 में विनोद कुमार शुक्ल ने एक वीडियो में गरिमाहीन रायल्टी को लेकर अपनी व्यथा कही। शुक्ल के इस आरोप से हिंदी साहित्य का बड़ा तबका असहज हो उठा। खासकर हिंदी साहित्य की केंद्रीय परिधि का वह तबका जो इन दोनों प्रकाशन संस्थानों से छपता रहा है, और जो अन्य कारणों से इतना संपन्न है कि रायल्टी के सवाल उठाने को अशोभनीय मानता है।
विनोद कुमार शुक्ल ने वीडियो में रायल्टी को लेकर जो सवाल उठाए, उसमें उनके शब्द थे-मुझे अब तक मालूम नहीं हुआ था कि मैं ठगा रहा हूं। अनुबंधपत्र कानून की भाषा में होते हैं। एकतरफा शर्तें होती हैं, और किताबों को बंधक बना लेती हैं। इस बात का अहसास मुझे बहुत बाद में हुआ, अभी-अभी हुआ। हम तो विश्वास में काम करते हैं। नौकर की कमीज और दीवार में एक खिड़की रहती थी के समय तो ई-बुक और किंडल जैसी चीजें नहीं थीं। पर ये दोनों किताबें ई-बुक, किंडल में हैं। ‘कभी के बाद अभी’ मेरा कविता संग्रह है। रायल्टी का जो ये जो स्टेटमेंट भेजते हैं तो इस किताब का उस स्टेटमेंट में पिछले कुछ वर्षों सेउल्लेख ही नहीं करते हैं। अब चूंकि मैं एक ऐसी उम्र में पहुंच गया हूं, जहां मैं अशक्त हूं और बहुत सी चीजों पर ध्यान नहीं दे पाता, कुछ कर भी नहीं पाता। तो, ये रह जाती हैं और मैं ठगाता रहता हूं।’
रायल्टी पर वीडियो सामने आने के बाद विनोद कुमार शुक्ल के पुत्र शाश्वत शुक्ल ने समाचार एजंसी पीटीआइ से कहा था कि उनके पिता काभरोसा पूरी तरह टूट चुका था, इसलिए उन्होंने वीडियो में ये बातें कहीं जिसे एक स्थानीय मंच ने प्रसारित किया। हालांकि प्रकाशकों ने उनके इस आरोप को खारिज किया था, और इस तरह के ‘मीडिया ट्रायल’ पर सवाल भी उठाए थे। रायल्टी को लेकर शुक्ल का लगाया आरोप हर उस वक्त सामने आता रहेगा जब-जब लेखक और प्रकाशक के संबंधों पर बात होगी।
हाथी अचानक एक दिन नहीं जा सकता
विनोद कुमार शुक्ल पाठकों के लेखक हैं। यह भी एक विरोधाभास है कि गरिमाहीन रायल्टी को लेकर जिस लेखक ने बहस छेड़ी, उसी लेखक पर इस बात को लेकर बहस छिड़ गई कि भला तीस लाख की रायल्टी कैसे मिल सकती है? भला इतने कम समय के अंतराल में इतनी किताब कैसे बिक सकती है।यह संभव किया ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ ने। साधारण जीवन को असाधारण तरीके से बरतने के कथा-शिल्प ने रघुवर प्रसाद और सोनसी जैसे आम किरदारों को इतना खास बना दिया कि यह ‘जेन जी’ की भी पहली पसंद बन गई। रघुवर प्रसाद का हाथी पर कालेज जाना, यथार्थ और कल्पना के बीच का वह पुल है, जिससे पाठक इस पार और उस पार होते रहते हैं। दावा किया गया कि महज 2025 में इस पुस्तक की 87,000 से ज्यादा प्रतियां बिकीं और लेखक को तीस लाख की रायल्टी दी गई।
‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, को पाठकों ने एक जादुई किताब का दर्जा दे डाला है। इस खिड़की से सूरज, चांद, तालाब, हाथी दिखता है। कठोर यथार्थ के प्रतीक में खिड़की वह कोमल कोना है जो उस पार हर तरह की उम्मीदों को खास रूप-रंग दे जाता है। मध्यवर्गीय अभाव के बीच यह खिड़की वह भाव है जो प्रेम को खोजने का हौसला बनाए रखता है। शुक्ल कहते हैं, ‘हाथी अचानक एक दिन नहीं जा सकता, वह जिस दिन जाएगा, रोज की तरह जाएगा।’ शुक्ल जी अचानक नहीं गए हैं। वे अपने लिए हाथी जैसी विशालकाय जगह छोड़ गए हैं। पाठकों पर यह जादू तारी रहेगा कि वह जगह कभी खाली नहीं दिखेगी।
