कुंदन कुमार
लोक जनजीवन में एक प्रचलित कथन है- ‘जीवन ही यात्रा है’। यानी मनुष्य के जीवन का संपूर्ण सार यात्रा में अंतर्निहित है। जीवन से मरण तक हम यात्रा में ही होते हैं। स्कूल से कालेज, फिर कालेज से विश्वविद्यालय और वहां से अपने कर्म क्षेत्र तक का सफर यात्रा ही तो है। कहीं न कहीं हम सभी अपनी-अपनी मंजिलों के भी मुसाफिर है। मंजिलें हमारा मनचाहा पर्यटन स्थल हो सकती हैं या फिर हमारा लक्ष्य हो सकती है।
दरअसल, यात्रा या घुमक्कड़ी हमारी जीवंतता का भी प्रतीक है। मुख्यतया यात्रा आध्यात्मिक और भौतिक, दो रूपों में वगीकृत है। जब कभी हम हताश, निराश और परेशान हो जाते हैं तो खुद को जानने के लिए हम अपने मन में ही यात्रा करते हैं। मन के यात्रा से स्व का बोध होता है। स्व के बोध से हम अपनी अहमियत समझ पाते हैं, हमें अपनी क्षमता का अहसास होता है।
वहीं दुनिया को जानने-समझने के लिए प्रकृति के सौंदर्य का आनंद लेने के लिए हम कभी पहाड़ की वादियों में घुमक्कड़ी करते हैं, लहरों का गर्जन सुनने के लिए समुद्री तट के किनारे अपना कीमती वक्त बिताते हैं। किले और परकोटे की यात्रा हमें उस इतिहास का बोध कराते हैं, जिनके निर्माण और उसकी रक्षा में हमारे पुरखों का खून तक बहा है। वहीं प्यार के प्रतीक के रूप में आगरा का ताजमहल सदियों से दुनिया को प्यार और मोहब्बत का पैगाम सुना रहा है।
घुमक्कड़ी ने दुनिया के एक हिस्से को दूसरे हिस्से से अवगत कराया है। इतिहास इस बात की गवाही देता है कि जिस धर्म और संप्रदाय के अनुयायियों ने घुमक्कड़ी को अपने धर्म का हिस्सा बनाया, उसका विस्तार दुनिया के अनेक हिस्सों में हुआ। महात्मा बुद्ध ने घुमक्कड़ी का सहारा लेकर अपने विचारों का प्रचार-प्रसार किया।
उनके अनुयायी अगर एक जगह ठहर जाते तो शायद बौद्ध धर्म भारतीय गणराज्यों की सीमाओं को लांघकर दूसरे देशों तक न पहुंच पाता। उनके समकालीन महावीर स्वामी और उनके अनुयायियों ने भी घुमक्कड़ी और यात्रा का सहारा लिया और जैन धर्म के विचारों और सिद्धांतों को प्रचारित-प्रसारित किया। मोहनदास करमचंद गांधी को महात्मा गांधी बनाने में भी उनकी यात्रा का अहम योगदान है। स्वतंत्रता आंदोलन को आंदोलन को शुरू करने से पहले महात्मा गांधी ने घुमक्कड़ी का सहारा लेकर उस जमीन को तैयार करने का निश्चय किया जिस पर स्वतंत्रता आंदोलन के फूल खिल सके।
हम यह सोचते हैं कि यात्रा हमेशा सुखद और आनंद से परिपूर्ण होती है। पर यह पूरा सच नहीं है। चंगेज खां और सिकंदर ने भी पूरी दुनिया की यात्रा की, पर क्या सिकंदर और चंगेज खां की यात्रा ने दुनिया को शांति का पैगाम दिया? इसका जवाब होगा बिल्कुल नहीं। चंगेज खां और सिकंदर की यात्राओं ने खून की नदियों का निर्माण किया! ये दोनों ऐसे घुमक्कड़ थे, जिन्होंने भय और दहशत से यात्रियों के प्रति लोगों के मानसिकता को बदल कर रख दिया।
दूसरी ओर ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे यात्रियों ने दूर देशों की यात्रा इसलिए कि ताकि वे दूसरे देशों के लोगों का विचार-व्यवहार औप उनकी संस्कृति और सभ्यता को आत्मसात कर सकें। दुनिया को जानने और समझने की जिज्ञासा ने ह्वेनसांग को यात्रियों का राजकुमार बना दिया। वास्कोडिगामा और कोलबंस जैसे पश्चिमी देशों के घुमक्कड़ों ने अपनी जान जोखिम में डालकर एशियाई देशों के समुद्री मार्गों को खोज निकाला।
लिहाजा, पश्चिमी देशों का व्यापार-वाणिज्य एशियाई और अफ्रीकी देशों तक फैला। पश्चिमी देशों के आगमन से नई-नई वस्तुएं भारतीय उपमहाद्वीप में पहुंचीं। नई भाषाओं और बोलियों ने पश्चिमी देशों के मुसाफिरों के साथ भारत की सरजमीन पर कदम रखा। भारत में मशीनीकरण की शुरुआत हुई, जिससे भारतीय समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। छापाखाना यूरोप से भारत घुमक्कड़ों के साथ ही पहुंचा।
हालांकि यात्रा से सिर्फ हम अपना मनोरंजन ही नहीं करते, लेकिन मनोरंजन के साथ हमारे ज्ञान में वृद्धि भी यात्राओं के माध्यम से होता है। जीवन और जवानी बार-बार नहीं मिलने वाला, इसलिए जरूरी है कि यात्राओं की अहमियत समझी जाए। घर के परिधि से बाहर निकलकर सड़क का मुसाफिर बन दुनिया नापी जाए।
मशहूर शायर गालिब ने कहा भी है कि ‘सैर कर दुनिया की गाफिल जिंदगानी फिर कहां, जिंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहां।’ आशय यह कि घुमक्कड़ी का आदर्श समय जवानी ही है और जवानी एक बार ही आती है। हालांकि यह किसी व्यक्ति की सुविधा पर भी निर्भर करता है कि उसके पास यात्रा पर कहीं निकल सकने की कितनी सुविधा है।
यों सड़क के मुसाफिरों के लिए दुनिया नापने का कोई विशेष मौसम मायने नहीं रखता, लेकिन साल में पड़ने वाली छुट्टियां सैर के लिहाज से आदर्श मौसम हैं। हालांकि यात्राएं कठिन और थकाऊ भी होती हैं, लेकिन इसकी अनुभूति बहुत प्यारी होती है। मन आनंद से भरा रहे तो अवसाद हमें स्पर्श तक नहीं कर सकेगा। इसके लिए आवश्यक है कि तकनीक की आभासी दुनिया से निकलकर घुमक्कड़ बनकर दुनिया देखा जाए।