आज के समय में सांस्कृतिक उन्नति ने अनगिनत आयाम खोल दिए हैं। कलाओं को मुखरित होने के लिए अनेक मंच मिल रहे हैं। लेकिन गौर से देखा जाए तो सामान्य मनुष्य का सामाजिक जीवन जटिल और मुश्किल भी हुआ है। इसका कारण है सांस्कृतिक होने की बदलती हुई परिभाषा। समाज के एक वर्ग ने कला और संस्कृति को कीमत से जोड़कर देखना शुरू कर दिया है। यह दृष्टिकोण भी है कि संस्कृति तभी सार्थक है, जब वह पांच सितारा छवि में हो। तभी कुछ लोग उससे कोई नाता रखते हैं। हमारे आधुनिक संपन्न समाज में विलक्षण संस्कृति सहेजने का चाव इतना बढ़ गया है कि समाज के सामान्य वर्ग के दैनिक जीवन में संस्कृति के लिए जगह सिमटती जा रही है।

सही है कि बगैर मानसिक स्थिति और भावना के संस्कृति और सभ्यता का उन्नयन नहीं हो सकता। मगर उसको साकार रूप में मौलिक भी रहना चाहिए। अमीर खुसरो की मुकरियां हों या फिर कबीर की उलटबांसी, इनमें लोक संस्कृति विशुद्ध रूप से सांस लेती है। लेकिन इनकी जो परंपरा है वह आडंबर के साथ नहीं चल सकती। कुछ चीजें जैसी हैं, वैसी ही सुंदर लगती हैं। पत्तल की थाली में भोजन करने से पहले उस पर स्टील या एल्युमिनियम की कोटिंग नहीं की जा सकती।

हमारे समाज में कुछ अजीब चलन शुरू हो चुका है

मगर हमारे समाज में कुछ अजीब चलन शुरू हो चुका है। ग्रामीण मेले में दुकान या स्टालों पर जाकर सेल्फी लेना। वहां से खरीदे गए बर्तन कशीदाकारी की वस्तु को सजाकर रख देना और यह मान लेना कि संस्कृति की रक्षा हो गई, बेहद खराब स्थिति है। संस्कृति के इस पतन काल में अपनी अद्वितीय आडंबरी आदत के साथ सोशल मीडिया युग ने संस्कृति के तालाब को दिखावे के कंकर मारकर मटमैला-सा कर दिया है।

कुछ लोग अपने आप को अंग्रेजी में ‘कल्चर्ड’ कहलाने के लिए इतने अधीर हो जाते हैं कि उनकी सोच उनके वातावरण का घनत्व, गति और लय का संतुलन ही बिगड़ गया है। उसकी बार-बार चर्चा करना, मगर अपने दरवाजे पर आई सब्जीवाली छोटीबाई को ‘तू-तड़ाक, तेरा…’ आदि से संबोधित करना… उससे हरा धनिया और मिर्च के लिए उलझना, फिर भीतर आकर बैठक कक्ष में सजाए हुए किसी ‘आर्ट वर्क’ या कलाकृति पर इतराना। यहां बुद्धि और ह्रदय का कोई संयोग नहीं है। इस तरह की मानसिकता का अनुकरण करते हुए कुछ लोग तो और भी दो कदम आगे चल रहे हैं।

माटी का स्वाद, बड़ी लंबी कहानी है मिट्टी के पात्रों और पानी की

सादे चावल से बने हुए मांडने संस्कृति का सशक्त रूप हैं। उसकी जगह रसायन का प्रयोग करने को किस रूप से देखा जाएगा? उत्सव, आनंद, पकवान, पहनावा आदि सभी कुदरती और सुगम होते हैं, तभी उनका स्थायी सौंदर्य बचा रह सकता है। यह गलत नहीं है कि संस्कृति में नवाचार न हो, उसे अपने ढंग से अभिव्यक्त न किया जाए। इसके लिए नए-नए तरीके खोजना सकारात्मक है।

अनैतिक वह भाव है कि सरलता और सादगी को तिलांजलि दे दी जाए। लोक संस्कृति की सादगी के भी अपने सौंदर्य मानक होते हैं। इनको कुरूप बनाकर जादुई या कर्मकांडी करके कथित उच्च स्तरीय कलाकार संस्कृति का उपहास ही करते हैं। आज भी छत्तीसगढ, बिहार, महाराष्ट्र आदि के गांवों में हल्की-सी पकी मिट्टी और सैलखडी से दीवार पर चित्र बनाए जाते हैं। तो उनको कला और उत्सव के दृष्टिकोण से दोयम दर्जे का मान लिया जाएगा।

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एक प्रसंग है। एक चित्रकार को अपनी चित्रकला और उपलब्धि पर बेहद गुमान था। उसका मानना था कि उस जैसी कल्पनाशीलता तो किसी में नहीं है। आखिर उसके गुरु को उसकी चिंता हुई, क्योंकि वे जानते थे कि घमंड उसे बर्बाद कर देगा। गुरु ने चित्रकार को एक गांव में जाकर कुछ समय बिताने को कहा। वह गुरु की आज्ञा टाल नहीं सकता था, वह चला गया। रात को जब वह ग्रामीण के घर पर गरमागरम रोटियां खा रहा था, तो उसने माटी के चूल्हे को गौर से देखा। चित्रकार था, इसलिए वह हर चीज पर गौर करता था। उसने देखा कि मिट्टी से ही दीवार पर लेपन किया गया है और ऊपर उठते धुएं से मनमोहक आकृतियां बन रही हैं।

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वह चौंक गया। इतनी प्यारी कल्पनाशीलता। अगली सुबह उसने गौर से चारों ओर देखा। छप्पर के बाहर हरी भरी लता ऊपर की तरफ जा रही थी। पत्तियों की छाप से छप्पर की दीवार पर खुद-ब-खुद आकृति बन रही थी। कलाकार गदगद हो गया। सृष्टि महान है। माटी की दीवार और चूल्हे का धुआं इतना सृजनशील है कि इसके आगे मेरी कला तुच्छ है। वह अपने घमंड के भटकाव से वापस लौटा और पहले से अधिक विनम्र बन गया।

कला और संस्कृति के हर रूप का मानव जाति से विशिष्ट संबंध है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर हमेशा कहते थे कि हमारी छह इंद्रियां भाव और विचार की सांस्कृतिक दूत हैं। इसलिए समाज के हर लोक- जीवन की अपनी एक शानदार छवि होती है। हमारे कारीगर समाज को देखें, तो वे सोते-जागते भी कितने सांस्कृतिक होकर रहते हैं! सचमुच संस्कृति वह है जो आंतरिक सच को प्रकाशित करती हो। संस्कृति का सच्चा पैरोकार भी वही है जो समाज के हर तबके के साथ समावेशी हो।

हमें यह सोचना चाहिए कि हम जो उत्सव मना रहे हैं, उसकी यादगार तस्वीर के लिए कोई पारंपरिक वस्तु ले आ रहे हैं या उसका नियमित प्रयोग भी कर रहे हैं। क्या हममें इतना साहस है कि लाखों रुपए की कटलरी को एक तरफ कर अपने हर मेहमान को प्रतिदिन माटी के कुल्हड़ में चाय पिलाया करें? अगर हम झूठी प्रशंसा पाने, वाहवाही लूटने के लिए देहाती हाथ के सुंदर पंखे लाकर बस दीवार पर सजा दें तो हम संस्कृति के उपासक नहीं हुए।