राकेश सिन्हा

बिहार के बेगूसराय में गंगा तट पर एक छोटा-सा गांव है नौलागढ़। आधी शताब्दी पूर्व पाल वंश (750-1174) ने उत्तर भारत में चार सौ वर्षों तक शासन किया था, यहां उसका भरपूर अवशेष मिला। पर व्यवस्था और बुद्धिजीवी दोनों सोए रहे। अनेक बहुमूल्य चीजें नष्ट हो गईं, चोरी हो गईं या विलुप्त हो गईं। यह कहानी सिर्फ नौलागढ़ तक सीमित नहीं है। दक्षिण में तुंगभद्रा नदी के तट पर विजयनगर साम्राज्य का हंपी शहर है। उसकी धरोहर उदासीनता के कारण आधी-अधूरी ही बची रही।

औपनिवेशिक काल में भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण का गठन, 1861 में, पुरातत्त्वों को सुरक्षित रखने और धरोहरों की खोज के लिए किया गया था। इसके पास मात्र चार हजार स्मारक हैं, जबकि एक अनुमान के अनुसार देश में सात लाख से अधिक विरासत की संरचनाएं हैं। इसने स्वीकार किया है कि अपने धरोहरों के प्रति उपेक्षा के कारण पैंतीस फीसद स्मारक और अवशेष गायब हो गए। यूनेस्को की जानकारी चौंकाने वाली है। इसके अनुसार 1989 तक भारत की पचास हजार कला सामग्री का अवैध निर्यात हुआ है।

आखिर इनको सहेजना, सुरक्षित रखना और समझना क्यों आवश्यक है? इन प्राचीन धरोहरों के महत्त्व को जब तक हम नहीं समझेंगे तब तक इनको सहेजने और सुरक्षित रखने की भावना नहीं जागेगी। इनकी जानकारी विश्व की सभ्यताओं में हमारा स्थान और हमारी भूमिका बताते हुए हम कैसे और कौन थे और हमारा योगदान कला-विज्ञान, साहित्य, दर्शन, वास्तुकला में क्या था, इसका साक्षात्कार हमारी समकालिन साझी चेतना के साथ कराता है। इसी को राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने इन पंक्तियों में अभिव्यक्त किया था, ‘हम कौन थे, क्या हो गए और क्या होगें अभी/ आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्या सभी।’

दुनिया की सभ्यता में हम जो थे, उससे हम स्वयं अज्ञात बने रहे। इसने हमारी भूमिका को गौण और हमें कमजोर बना दिया। यूरोप ने जहां तक हमारी सभ्यता और संस्कृति को टटोला और उसके आधार पर जो पहचान दी, वहीं हम ठहर गए। हमारे कुलीन राजनेता और इतिहासकार उसी में जोड़-घटाव करते रहे। जो मिशन और लक्ष्य साझा प्रयास, संयुक्त उपक्रम और सम्मिलित संकल्प का था, वह वैचारिक बहस और विभाजन का कारण बन गया।

जो लोग इतिहास के उन अलिखित और लिखित पृष्ठों, धरोहरों, घटनाओं को ढूंढ़ना अपना दायित्व माना, उन्हें किनारे स्वतंत्र भारत के नेहरूवादी राज्य ने ही नहीं किया, बल्कि आधुनिकता बनाम पिछड़ेपन के विमर्श के चक्रव्यूह में अभिमन्यु की तरह घेरने की कोशिश होती रही। जो बातें अविवादित थीं, उन्हें विवादित बना दिया गया। इसने भारत के संदर्भ मे विचारों की लड़ाई का सृजन किया। औपनिवेशिक काल से नेहरू युग तक गंगा-यमुनी संस्कृति का धुंधला और कृत्रिम विचार परोसा गया। साझापन का यह विचार हमें अपने ही इतिहास को टटोलने पर पूर्णविराम लगाता रहा।

भारत को बांधने का यह उपक्रम था। जो इस लक्ष्मण रेखा को तोड़ते रहे, वे गंगा-यमुनी साझी संस्कृति के शत्रु घोषित रहे। स्वाभाविक है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पहली पंक्ति में रहा, परंतु संघेतर अनंत लोग और समूह अपनी अस्मिता की खोज में लगे रहे। विचारों के संघर्ष ने राजनीतिक चौहद्दी को अप्रसांगिक बना दिया। कांग्रेस के कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी से लेकर संपूर्णानंद सहित साहित्यकार, समाजशास्त्री, पुरातत्त्वत्ता आदि इस राह पर चलते रहे। प्रतिबद्धता के साथ परिश्रम ही परिणामकारी सिद्ध होता है।

आखिर स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय राज्य की विवशता का कारण क्या था? इसका कारण जानना कठिन नहीं है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद सिर्फ राजनीतिक सत्ता पर आधिपत्य का नाम नहीं था। यह भारत की संस्कृति, भाषा, समाज, अध्यात्म और दर्शन सब पर हमला था। इसे जानना-समझना कठिन नहीं है। ब्रिटिश राज में आठ जनगणनाएं (1892 से 1941 तक) हुर्इं। उन रिपोर्टों में धर्मांतरण में ईसाई मिशनरियों की तुलनात्मक सफलता, भारतीय समाज के विरोधाभासों के आधार पर हिंदू की नई परिभाषा गढ़ने का प्रयास अनवरत चलता रहा।

हमारी विविधता को प्रतिद्वंद्विता में ढाला जाता रहा। पर साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन का नेतृत्व सिर्फ राजनीतिक लड़ाई लड़ता रहा। संस्कृति, समाज भाषा पर हमले का प्रतिकार नहीं हुआ। जिन्होंने साम्राज्यवाद विरोध के फलक को बढ़ाने कोशिश की, वे शीर्ष नेतृत्व का हिस्सा नहीं बन पाए। बिपिनचंद्र पाल, अरविंद घोष और लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ऐसे ही कुछ प्रतिनिधि नाम हैं। इसीलिए स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय नेतृत्व यूरोप की मानसिकता से जकड़ा रहा।

इसके विरोध में खड़े लोग इस बात के लिए सचेत थे कि वे वही गलती न करें जो कांग्रेस अंग्रेजों से लड़ने में करती रही। विरोध की संस्कृति रचनात्मक विकल्प पर खड़ी होनी चाहिए, अन्यथा हार-जीत दोनों स्थिति में बड़ी बौद्धिक खाई पैदा हो जाती है। यह नारेबाजी, अवसरवाद और अनेक विसंगतियों की मां होती है। अल्प बुद्धि के आरामभोगी लोग बौद्धिकता का नेतृत्व करने लगते हैं। इस न्यूनता ने दुनिया के अनेक राष्ट्रों को संस्कृति और विरासत से दूर कर दिया है।

भारत के सामने चुनौती अधूरेपन से निकलने की है। यह अधूरापन अपनी ऐतिहासिक विरासत से विमुख रहने के कारण है। सभी आक्रांताओं द्वारा निरंतर हमारी बौद्धिक और सांस्कृतिक संपदा पर हमले के बावजूद हमारे पास दुनिया के सभी देशों से अधिक पांडुलिपियां है। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के पास पंचानबे हजार पांडुलिपियां हैं, तो गवर्नमेंट मैनुस्क्रिप्ट लाइब्रेरी (चेन्नई) के पास ताड़ पत्रों पर लिखी पचास हजार पांडुलिपियां हैं।

मैसूर के ओरियंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट के पास ताड़पत्रों एवं कागजों पर लिखी पचहत्तर हजार पांडुलिपियां हैं। अब तक की खोज के आधार पर देश में पचास लाख पांडुलिपियां हैं। ब्रिटेन के बोडलीयन पुस्तकालय और अमेरिका के पेनसिलवानिया विश्वविद्यालय में संस्कृत के क्रमश: 8700 और 3500 पांडुलिपियां हैं।

अभी हम इसे सहेजने में ही लगे हैं, इनका अध्ययन और शोध सांकेतिक है। अपनी धरोहर से जो ध्वनि निकलती है, उसे समझने के लिए सामर्थ्य विकसित करनी होती है। यह एक लंबी प्रक्रिया है। इसी दौर में बौद्धिक संस्कृति का निर्माण होता है। किसी सांस्कृतिक परंपरा की निरंतरता में सभ्यता का मूल चरित्र छिपा होता है। बिहार के अहरौली का पंचकोशी मेला और राजस्थान का पुष्कर मेला यूरोप के अधिकांश देशों की आयु से प्राचीन हैं।

रचनात्मक अध्यात्म उसे जीवित रखे हुए है। उसे समझने के लिए उसका अंग बनना पड़ता है। अन्यथा कुंभ मेले में 1894 में दस लाख, 1930 में तीस लाख, 1954 में पचास लाख, 2013 में एक करोड़ बीस लाख लोगों का आना भीड़ दिखेगा। तभी तो कुंभ को 1942 में देखने पहुंचे लार्ड गवर्नर जनरल लिनलिथगो ने मदन मोहन मालवीय से पूछा था कि इसके प्रचार में कितना पैसा लगा, तो मालवीय जी का उत्तर था- दो पैसा, जो पंचाग की कीमत थी।

नए भारत में पुनरुत्थान का वायुमंडल भारत को अधूरेपन से पूर्णता की ओर बढ़ने का रास्ता खोलता है। हमारी अस्मिता हमारे अस्तित्व की बुनियाद है। तभी तो विरासत का दायरा भारत के भूगोल से और इतिहास का फलक सभ्यता की चौहद्दी से वृहत्तर साबित हो रहा है। भारत का शेष भूगोल और इसके लोग ही इन दोनों के संरक्षक और संवाहक हैं। जो बात डब्लूबी यीट्स ने रवींद्रनाथ टैगोर के लिए कही थी उसे इस राह के सभी राहियों पर उतारने की जरूरत है- ‘‘हम लड़ते हैं और धनोपार्जन करते हैं और अपने मस्तिष्क को राजनीति से भर देते हैं। भारत की सभ्यता की तरह टैगोर इसकी आत्मा को ढूंढ़ कर संतुष्ट रहते हैं और इसकी क्षमता के प्रति आत्मसमर्पण कर देते हैं।’’
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)