बचपन की फिक्र में हमारा समाज और हमारी सरकारें जिस तरह की राय रखती हैं, अगर वह उसी रूप में जमीन पर उतरे तो देश के बच्चों की एक बड़ी आबादी को वंचना की मार से बचाया जा सकता है। खासतौर पर गरीब तबकों के बच्चों की जिंदगी हर समय एक नई चुनौती का सामना करती है। गांवों में जहां उन्हें अलग स्तर की समस्या का सामना करना पड़ता है, वहीं शहरों में गरीबी और अभाव की जिंदगी उन्हें आमतौर पर बेघर या बेठौर बना देती है। यों तो अमूमन सभी शहरों-महानगरों में स्थिति एक-सी होती है, लेकिन अकेले दिल्ली में ही रैन बसेरों में रहने वाले या बेघर बच्चों की स्थिति और उनके जीवन अनुभवों पर गौर किया जाए, तो आश्रय गृहों में बच्चों की जीवन परिस्थितियों, बुनियादी सुविधाओं, शिक्षा और उनके बचपन की स्थिति को समझा जा सकता है।
महानगरों में गरीब और बेघर लोगों के साथ होने वाला व्यवहार कई बार बेहद संवेदनहीन प्रतीत होता है। इन गरीबों में महिलाएं, पुरुष, वृद्ध, मानसिक या शारीरिक रूप से दिव्यांग और सबसे महत्वपूर्ण- बच्चे शामिल हैं। इन रैन बसेरों में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग आश्रय की व्यवस्था की जाती है, लेकिन उनकी बदहाली छिपी नहीं होती। बच्चों के लिए कोई विशेष सुविधा उपलब्ध नहीं होती। बुनियादी ढांचे, सेवाओं, शिक्षा और जीवन गुणवत्ता जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों को लेकर बच्चों के साथ सामूहिक चर्चा की जाए, तो उनकी समस्याओं और उनके अनुभवों को समझने की कोशिश की जा सकती है।
बेघर बच्चे इसी लगातार बदलते समाज का हिस्सा
बेघर बच्चे इसी लगातार बदलते समाज का हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें मुख्यधारा की सामाजिक व्यवस्था से सुनियोजित रूप से बाहर रखा गया है। रैन बसेरों में बच्चों को ‘आश्रय’ और ‘समान जीवन अवसरों’ के नाम पर अस्वच्छ, भीड़भाड़ और अमानवीय वातावरण में रहने के लिए बाध्य किया जाता है। ये बच्चे अत्यधिक निर्धनता का सामना कर रहे होते हैं और समाज की उपेक्षा के शिकार होते हैं। सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के अनुसार बच्चों के अनुभवों में जो अंतर होता है, वह यहां स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
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इन रैन बसेरों में रहने वाले अधिकांश बच्चे विभिन्न राज्यों से आए हुए प्रवासी होते हैं। कई बच्चे अपने गांवों और शहरों की अत्यंत दयनीय परिस्थितियों या घरेलू हिंसा से तंग आकर शहर पहुंच जाते हैं। कई बच्चे शारीरिक हिंसा, विद्यालयों में उत्पीड़न और पारिवारिक अशांति के कारण घर छोड़ने को विवश हो जाते हैं। वे अपने अत्यधिक गरीब जीवन से मुक्ति पाना चाहते थे, लेकिन दिल्ली आने के बाद उनकी स्थिति और दयनीय हो गई। रैन बसेरों में रहने के बाद ये बच्चे भीख मांगने, कबाड़ बीनने, गाड़ी खींचने, विवाह और अन्य आयोजनों में साफ-सफाई का काम करने या भोजन बनाने जैसे कार्यों में भी लग जाते हैं।
बिना वेतन केवल भोजन या अत्यंत अल्प भुगतान पर काम करते हैं अनेक बच्चे
दरअसल, ऐसे बच्चों को सस्ता श्रमिक समझा जाता है और उन्हें अक्सर शोषक नियोक्ताओं के अधीन काम करना पड़ता है। अनेक बच्चे बिना वेतन केवल भोजन या अत्यंत अल्प भुगतान पर काम करते हैं। वे अपनी मेहनत से भोजन का प्रबंध नहीं कर पाते और कभी-कभी उन्हें भूखे रहना पड़ता है। अगर काम के दौरान वे बीमार या घायल हो जाते हैं, तो उन्हें चिकित्सा सुविधा तक नहीं मिलती। कई बच्चे अपनी कमाई बचाने का प्रयास तो करते हैं, लेकिन अधिकांश इसमें विफल रहते हैं। विशेष रूप से मादक पदार्थों का सेवन और नशे की लत एक गंभीर समस्या के रूप में देखी जा सकती है। बहुस्तरीय उपेक्षा का नतीजा यह होता है कि बच्चे अपने नशेड़ी मित्रों या अन्य लोगों के जरिए इस आदत की गिरफ्त में आ जाते हैं। इस तरह के बच्चों की यह प्रतिक्रिया किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर दे सकती है कि नशे से भूख दब जाती है।
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इन बेघर बच्चों को समाज के हाशिये पर रखा गया है। विशेष आवश्यकता वाले बच्चे तो और भी अधिक उपेक्षित अवस्था में पाए जाते हैं। आश्रय गृह के कर्मियों के कठोर व्यवहार की खबरें भी आती रहती हैं। मामूली शोरगुल, खेलकूद या हल्की शरारत पर भी इन बच्चों को मारना-पीटना या उनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार मानो अधिकार माना जाता है। कई इलाकों में अगर कोई अपराध होता है तो कई बार पड़ताल के पहले ही ऐसे बच्चों को उसमें संलिप्त मान लिया जाता है। सवाल है कि किसी घटना की छानबीन से पहले गरीब बेघर बच्चों के बारे में ऐसी धारणा बना लेने या प्रवृत्ति के क्या कारण हैं। क्या हमारी सामाजिक समझ बच्चों को उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार वर्गीकृत करती है? इससे समाज में भेद उत्पन्न होता है, जो इन बच्चों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार को जन्म देता है।
आमतौर पर शिक्षा की दृष्टि से भी इन बच्चों को बहुस्तरीय उपेक्षा का शिकार पाया जाता है। रैन बसेरों में शैक्षिक सुविधाओं की तो दूर, बुनियादी सुविधाओं और साफ-सफाई की तस्वीर किस स्तर तक बदहाल है, यह किसी से छिपा नहीं है। संबंधित महकमों की ओर से रखरखाव के मामले में व्यापक लापरवाही और उदासीनता स्पष्ट देखी जा सकती है। रैन बसेरों में चिकित्सा सेवाओं का मुद्दा भी लगातार उपेक्षित रहा है। ये बच्चे बेहद वंचित, उपेक्षित और असहाय जीवन जीने को विवश हैं। उनकी स्थिति पर तत्काल ध्यान देने और व्यवस्था में सुधार की महती आवश्यकता है। मुश्किल यह है कि समाज का जो तबका उपेक्षित बच्चों के लिए कुछ कर सकने की स्थिति में है, वह वर्गीय दृष्टि की वजह से उनकी तकलीफों और जरूरतों से सरोकार नहीं रखता। वहीं सरकार के स्तर पर संबंधित महकमे ऐसे बेघर बच्चों के प्रति जरूरी संवेदनशीलता नहीं दिखा पाते। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि हमारे समाज का कोई भी हिस्सा अगर सुचिंतित उपेक्षा का शिकार है, तो उसका प्रभाव किसी न किसी रूप में सभी पर पड़ेगा।