जीवन का प्रथम सोपान बचपन स्नेह, प्यार, ममता और नटखटपन में कब निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। घर-परिवार में बच्चों की आमद, किलकारी और शरारतें घर के बड़ों को आह्लादित और आनंदित करती हैं। उनके साथ बिताए हुए पलों की अल्बम को जब भी खोला जाए, एक विशेष प्रकार की ऊर्जा और उमंग से तन-मन भर उठता है। मगर जैसे ही बच्चे किशोरावस्था की दहलीज पर कदम बढ़ाता है, माता-पिता के अरमान मचलने लगते हैं।

भविष्य को लेकर तरह-तरह के रंगीन ख्वाब उनकी पलकों पर तैरने लगते हैं और बहुत से अभिभावकों को चिंता सताने लगती है। ऐसे में बच्चे को जानने-समझने की कोशिश कोई नहीं करता। उसे कहा जाता है कि तुम चुप रहो… हमने जमाना देखा है… हम दुश्मन नहीं हैं… मां-बाप हैं तुम्हारे। यही बातें अक्सर हर किशोर-किशोरी को सुनने के लिए मिलते हैं।

किशोरावस्था को मनोवैज्ञानिक कहते हैं आंधी-तूफान का काल

किशोरावस्था अपने आप में उम्र का सबसे कठिन मोड़ कहा जाता है। मनोवैज्ञानिक इसको आंधी-तूफान का काल भी कहते हैं। ‘टीन एजर्स’ के नाम से मशहूर बच्चे कब और कहां, क्या कर बैठें, किसी को पता नहीं होता है। शरीर में होने वाले बदलाव, भावनाओं का सैलाब और परिवार की आकांक्षाओं का दबाव इन किशोरों को मायूसी के दलदल में धकेल देता है। वे खुलकर अपने विचार नहीं रख पाते हैं। कभी अभिभावक कहते हैं कि अभी तक बच्चे बने हुए हो और अगले पल बोलते हैं कि कम बोला करो… इतनी छोटी उम्र में इतना ज्ञान देना ठीक नहीं है।

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अब इस स्थिति में बेचारे किशोर जाए तो कहां? बच्चा वह रहा नहीं, बड़ा अभी हुआ नहीं। उसकी समझ में नहीं आता कि घर के लोग उसे समझते क्या हैं। बच्चे के नौवीं कक्षा में पहुंचते ही माता-पिता को उसके भविष्य का भय सताने लगता है। जबकि हमें तेरह-चौदह वर्ष के बच्चे के चतुर्दिक विकास के बारे में सोचना चाहिए। उसकी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, सामाजिक, रचनात्मक और संवेदनात्मक उन्नति की चिंता करनी चाहिए।

सबसे अधिक बच्चे के संवेगों पर ध्यान देने की जरूरत होती है। हमारा बच्चा अंतर्मुखी तो नहीं है? वह संकोची, डरपोक, जिद्दी या गुस्सैल तो नहीं है? उसके चिड़चिड़ेपन पर भी नजर रखने की जरूरत होती है। वह झूठ, फरेब, लालच का शिकार तो नहीं हो रहा है? आजकल हवाबाजी करने वाले किशोर भी बहुतायत में मिल जाएंगे। इन सभी संवेदनात्मक विषयों पर काम करने की जरूरत होती है। माता-पिता को अपने बढ़ते किशोर के नजरिए को जानना और समझना बहुत जरूरी है। उसकी संगत-सोहबत का भी पता होना चाहिए। यहां यह भी ध्यान देना होगा कि हमारे घर का माहौल कैसा है। पत्नी-पत्नी में आए दिन कोई लड़ाई-झगड़ा और तकरार तो नहीं होती है।

किशोरावस्था के लिए खेलकूद जरूरी

खुशनुमा माहौल और माता-पिता का सहयोग बच्चों को हमेशा चाहिए। खेलकूद इस उम्र में बहुत जरूरी है। शरीर की मांसपेशियां मजबूत होती हैं। एकाग्रता बढ़ती है और समायोजन की समझ का विकास होता है। मगर अभिभावक बच्चों को स्कूल और कोचिंग के मकड़जाल में फंसाकर उसे एक अच्छा इंसान बनने के रास्ते से बहुत दूर ले जाते हैं। दरअसल, हम एक कमाऊ इंसान की परिकल्पना पर काम कर रहे हैं। मानवीय सरोकार से बहुत दूर होते जा रहे हैं। यही कारण है कि आगे चलकर ये ऊंची तनख्वाह वाले कुछ युवक कई बार परिवार और समाज की उपेक्षा करते नजर आते हैं। मां को हवाईअड्डे पर अकेली छोड़कर विदेश के लिए उड़ जाते हैं।

हर पल विचारों के घेरे में ही रहते हैं हम, माहौल से अलग हटकर व्यावहारिक बुद्धि का करना चाहिए इस्तेमाल

एक किशोर-किशोरी हर पल अपने जीवन के सपनों को बुनते हैं। उनके सपने विविध रंगी और बहुआयामी होते हैं। माता-पिता अक्सर वहां तक नहीं पहुंच पाते हैं। आमतौर पर मध्यम वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को इंजीनियरिंग और चिकित्सा पाठ्यक्रमों के पीछे लगाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान बैठते हैं। बच्चों को दिल्ली, कोटा, लखनऊ या अन्य शहरों में भेजकर उनके अरमानों का गला घोंट रहे हैं। कितने किशोर पंखे पर लटक जाते हैं। उनके कौशल और हुनर बुनने के दौर में रट्टू तोते बना दिए जाते हैं। बहुत से लोग इसे ‘भावनात्मक अत्याचार’ भी कहते हैं। उन बच्चों से उनके मन की बात जरूर पूछनी चाहिए। हर हाल में कामयाबी के डंडे को एक ओर रखकर ठंडे दिमाग से सोचने की जरूरत है कि जब बच्चा ही नहीं रहेगा तो हम ऐसी सफलता का क्या अचार डालेंगे?

बच्चे की प्रतिभा और अभिरुचि को ठीक से पहचानना कठिन

किशोरावस्था की उलझनों को समझना इतना भी आसान नहीं होता है। प्रत्येक माता-पिता को अपने बच्चे की प्रतिभा और अभिरुचि को ठीक से पहचान कर उसे आगे बढ़ाना चाहिए। इस बारे में काउंसलर की मदद ली जा सकती है। आज के दौर में भविष्य के अवसरों के कितने विकल्प खुल गए हैं। बच्चा पढ़ाई में कैसा है, कितनी रुचि ले रहा है और किन विषयों में उसकी प्रस्तुति कैसी है और वह चाहता क्या है? इन सबको मिलाकर उसकी दिलचस्पी के विषय में पढ़ाई का फैसला होना चाहिए। अगर वह अच्छा प्रदर्शन न कर पाए तो अन्य विकल्पों पर विचार करना आवश्यक है।

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आजकल नवाचार का जमाना आ गया है। फिर क्यों बच्चों पर मानसिक दबाव बढ़ाया जाए? दिखावे की चकाचौंध से प्रभावित होने के बजाय हमें अपने बच्चों के भीतर सद्गुणों का विकास करने पर जोर देना चाहिए। उन्हें छल, फरेब, कपट और कदाचार से बचाकर चलना चाहिए। उन्हें क्या करना है और क्या नहीं करना, यह बात स्पष्ट होनी चाहिए। अपने विद्यार्थियों को यह कहा जा सकता है कि ‘विद्वान बनो गुणवान बनो, निज घर की पहचान बनो। मनचाही सब खुशियां पाओ, एक सच्चा इंसान बनो।’