खिलौनों का इतिहास खंगालना टेढ़ी खीर है। वे कब अस्तित्व में आए होंगे, कहना कठिन है। शायद इस धरती पर जबसे बचपन आया होगा तभी से। हालांकि मिट्टी और लकड़ी के खिलौनों को मानवीय सभ्यता के शुरुआती खिलौने के रूप में माना जा सकता है। लगभग पांच दशक पूर्व आम भारतीय परिवारों की व्यवस्था कुछ ऐसी थी कि घरों में पारंपरिक चूल्हे पर भोजन पकाया जाता था। लकड़ी और गोबर के उपलों से चूल्हे में आग जलाई जाती थी। फिर मिट्टी के पारंपरिक बर्तनों में खाना बनता था। मिट्टी के तवे पर गोल-गोल रोटियां सेंक कर अंगारे पर उतारी जाती थीं। अंगारों की आंच से रोटियां फूल जाती थीं। सौंधी और गरमागरम रोटियों का स्वाद लाजवाब होता था। रोटियां सेंकते हुए मांएं अपने बच्चों को एक अनोखा खिलौना गढ़ देती थीं। आटे की लोई को चिड़िया का आकार देकर उसे अंगारों पर सेंकतीं और फिर उसमें लकड़ी या तीली लगाकर बच्चों को पकड़ा देतीं। यह बच्चों के लिए ऐसा खिलौना होता था, जिससे वे खुशी-खुशी खेलते और जब मन होता उदरस्थ कर लेते थे। इसे आधुनिक युग के ‘खेलो और खाओ’ वाले चाकलेट या बिस्कुट की तरह शुरुआती भारतीय खिलौना माना जा सकता है।
बहरहाल, यों तो बच्चे खुद ही सबको प्यारे लगते हैं। उन्हें खिलाने को हर कोई लालायित रहता है, लेकिन बच्चे और खिलौनों के बीच एक अलग और खास नाता होता है। खिलौने हाथ लग जाएं तो रोता हुआ बच्चा चुप हो जाता है। रूठे हुए बच्चे मान जाते हैं। शैतान बच्चे शैतानियां भूल जाते हैं। सभी बच्चों को खिलौनों की चाहत होती है, लेकिन आर्थिक रूप से विपन्न परिवार के बच्चों को खिलौने नसीब नहीं होते। इसलिए उनका बचपन, कल्पनातीत खिलौने गढ़ लेता है। वे उनसे खेलते हुए मन बहला लेते हैं। ये बच्चे घर के बर्तनों को ही खिलौना मानकर खेलने लगते हैं। कटोरी या पतीले को डुगडुगी की तरह बजाते हैं।
मजदूरों के बच्चे घरों की निर्माण-सामग्री को खिलौने की तरह खेलकर खिलखिला उठते हैं। खुरदुरी, टूटी-फूटी और भारी-भारी ईंटों को मोटरकार की तरह सरकाते हुए आनंदित होते हैं। किसी बेकार लकड़ी को अपने दोनों पैरों के बीच फंसाकर, उसका एक सिरा दोनों हाथ में पकड़ लेते हैं। लकड़ी का दूसरा जमीन पर रहता है। वे अपने मुंह से मोटर साइकिल की आवाज निकालते हुए दूर तक दौड़ते जाते हैं। लकड़ी का जमीन की ओर वाला सिरा धूल भरी भूमि पर सरकते हुए धुआं उड़ने का अहसास देता है।
साइकिल का पहिया भी था खिलौना
कुछ बच्चे साइकिल के पुराने टायर को लकड़ी की डंडी के सहारे लुढ़काकर मजे से खेलते हैं। यह खेल अधिक पुराना नहीं है। गांवों के बच्चे इतने निर्भीक होते हैं कि वे जानवरों के बच्चों से खिलौने की तरह खेलते और खिलाते हुए बड़े होते हैं! यहां तक कि बच्चे कीड़े-मकोड़े के साथ खेलते हुए आनंदित होते हैं। सपेरों के बच्चे सांप को ही खिलौना समझ उनके साथ अठखेलियां करते हैं। बच्चों की इस तरह की अठखेलियों और नादानियों के पौराणिक उद्धरण शास्त्रों में भी मिलते हैं।
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कुल मिलाकर, खिलौनों की दुनिया ही अलग होती है। यह दुनिया पूरी चमक-दमक के साथ आबाद है। एक जमाने में फेरीवाला अपने कंधे पर मोटी-सी बांस की लकड़ी लिए निकलता था। उस लकड़ी के ऊपरी सिरे पर सूखी घास बंधी होती थी, जिसमें चकरी, ढपली और बांसुरी के खिलौने फंसे रहते थे। मिट्टी के खिलौने झूलते रहते थे। फेरीवाला कोई फिल्मी गीत गुनगुनाता जाता था- ‘आया रे खिलौने वाला खेल खिलौने लेकर आया रे’ और गांव के बच्चे शोर मचाते हुए उनके पीछे भागते थे। मिट्टी और लकड़ी के खिलौने से आरंभ हुआ खिलौनों का सफर आज रिमोट से चलने वाले स्वचालित खिलौनों तक जा पहुंचा है। छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा खिलौना अब बाजार में उपलब्ध है। ये खिलौने इतने सजीव होते हैं कि वे व्यक्ति और वास्तविक वस्तुओं से हूबहू मेल खाते हैं, बल्कि उनकी प्रतिकृति होते हैं।
अब हर तरह के खिलौने की है भरमार
अब हर उम्र के बच्चों के लिए खिलौने निर्मित किए जा रहे हैं। खिलौनों से बच्चों का तकनीकी और गणितीय ज्ञान भी परिमार्जित हो रहा है। हवा में उड़ने वाले और पानी पर तैरने वाले खिलौनों की कमी नहीं है। अक्सर शैतान बच्चे खिलौनों को तोड़-मरोड़कर कर खुश होते हैं। कुछ बच्चे जिज्ञासावश खिलौनों को तोड़ते हैं और फिर से जोड़ने का उपक्रम किया करते हैं। इसलिए बाजार में ऐसे खिलौने भी हैं जिन्हें तोड़ा और फिर से जोड़ा जा सकता है। बल्कि टूटे हुए भागों को नए तरीके से जोड़कर एक अलग तरह का नया खिलौना तैयार किया जा सकता है।
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आज बच्चे तो बच्चे, बड़े लोग भी खिलौनों के मोह में फंसे दिखाई पड़ते हैं। वित्तीय व्यवस्था में सुधार के साथ अभावों में पले-बढ़े माता-पिता अब सक्षम हो गए हैं। वे अपने बच्चों के सामने महंगे खिलौनों के ढेर लगा देते हैं। इस बहाने उनके बचपन का दबा हुआ शौक पूरा तो होता ही है, उनके बच्चों को आसानी से खिलौने उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसे बच्चे नए खिलौने की चाह के चलते किसी भी खिलौने से मन से नहीं खेलते। उनके पास खिलौनों का अंबार लगता चला जाता है। उनमें एक तरह का जिद्दी स्वभाव पनपने लगता है। वे मितव्ययिता के पाठ सीखने से वंचित रह जाते हैं, जो आज की चमक-दमक की दुनिया में अतिआवश्यक है। विडंबना यह है कि आधुनिकता के दौर में खिलौनों की दुनिया विकृत और प्रदूषित भी हो रही है। जहां खिलौने बाल सुलभ सुख देते थे, वे अब अवांछित पिपासा के तुष्टिकारक यंत्र भी साबित हो रहे हैं। खिलौनों को बाल सुलभ खिलौना ही रहने दिया जाता तो ठीक होता।