राकेश सिन्हा

सहार में मेघौल गांव (बेगूसराय) के इक्यासी वर्षीय शहीद कुमार अपने पिता के प्रति कृतज्ञ समाज के सम्मान से झूम उठे। अवसर था ‘मेरी माटी मेरा देश’ कार्यक्रम का। सैकड़ों लोग तिरंगा लिए ‘शहीद राधा प्रसाद सिंह अमर रहें’ का नारा लगाते हुए उनके निवास पर पहुंचे। राधा प्रसाद सिंह 1942 में साम्राज्यवादियों से संघर्ष करते हुए शहीद हुए थे।

उनकी शहादत के कुछ महीने बाद उनके पुत्र का जन्म हुआ था। लेकिन अपनी अंतिम सांस लेने से पूर्व उन्होंने अपनी संतान का नामकरण कर दिया था ‘शहीद कुमार’। खद्दर का कुर्ता और गांधी टोपी पहने शहीद कुमार के ये शब्द मायने रखते हैं, ‘‘आजीवन कांग्रेस में रहा, पर शहीदों के प्रति प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस सम्मान भाव ने मुझे अभिभूत कर दिया।’’

न जयंती न ही पुण्यतिथि

साधारणतया युद्ध काल में सोया व्यक्ति भी राष्ट्रीय चेतना से लबालब रहता है। पर शांति काल में विरासत और शहादत आंखों से ओझल हो जाती है। अंतत: यह कुछ लोगों की जिम्मेदारी के रूप में जीवित रहती है। पीढ़ियां विमुख हो जाती हैं। अमृत महोत्सव कार्यक्रम ने इस स्थिति को बदल दिया है। न जयंती न ही पुण्यतिथि।

फिर भी शहीदों के घर जाकर उनके सम्मान ने एक नई परंपरा को जन्म दिया है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि नई पीढ़ी स्वतंत्रता आंदोलन में स्थानीय लोगों की भूमिका से अवगत हो रही है। अमृत महोत्सव के अंतिम चरण में ‘मेरी माटी मेरा देश’ कार्यक्रम एक मौलिक सोच और दृष्टि का प्रतीक है।

लंबे समय से परिवार स्मारक बनवाने के लिए कर रहा जद्दोजहद

देश के छह लाख से अधिक गांवों में वहां के शहीदों, वीर पुरुषों, सामाजिक क्रांति के अग्रदूतों का सम्मान करना इस कार्यक्रम का वैशिष्ट्य है। उन गांवों से मिट्टी एकत्रित कर उससे देश की राजधानी दिल्ली में अमृत वन का निर्माण इसका लक्ष्य है। इसी क्रम में छौड़ाही गांव में शहीद नायक रामसेवक महतो के घर गए। उनकी शहादत करगिल युद्ध में हुई थी। लंबे समय से परिवार उनका स्मारक बनाने के लिए स्थानीय प्रशासन से जद्दोजहद कर रहा है।

रचनात्मकता खो देती है राजनीति

अब यह प्रश्न दिवंगत महतो के परिवार का नहीं, स्थानीय समाज का हो गया है। देश की अखंडित राष्ट्रीयता के विकेंद्रीकृत स्वरूप का उभार स्थानीय भावनाओं को समृद्ध करने में सहायक होता है। जो समाज राजनीति के प्रभाव से जाति, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्र में बंटा रहता है और संकीर्णताओं के बादल उसकी विरासत को सामने नहीं आने देते हैं, वह कभी प्रगतिगामी नहीं हो सकता है। राजनीति रचनात्मकता खो देती है।

यही कारण है कि 1920 में महात्मा गांधी ने साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के दौरान ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ को कांग्रेस की नीतियों का हिस्सा बनाया। परंतु कांग्रेस का नेतृत्व इसे मन में नहीं उतार पाया। और यह कांग्रेस के भीतर और बाहर गांधी का कार्यक्रम बनकर रह गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान जेल से छूटने के बाद जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी का पत्राचार इसका गवाह है।

गांधी को अनुभूति हुई

नेहरू के पत्र का जवाब देते हुए महात्मा गांधी ने आश्चर्य व्यक्त किया कि अपने लंबे पत्र में नेहरू ने एक बार भी रचनात्मक कार्यक्रम का जिक्र नहीं किया। फटकारते हुए उन्होंने याद दिलाया कि कांग्रेस इसे 1920 में स्वीकार कर चुकी है। गांधी को अनुभूति हुई, उनके लिए यह मन और भावना से जुड़ा है और दूसरों के लिए कर्मकांड है।

अमृत महोत्सव में ‘मेरी माटी मेरा देश’ इस न्यूनता से बचा रहा है। इसका एक कारण रहा, योजना केंद्रीय है, पर क्रियान्वयन विकेंद्रीकृत रहा। दूसरा, नेतृत्व आधारित न होकर कार्यकर्ताओं की साझा पहल से यह आगे बढ़ा।

राष्ट्र की जीवतंता में विरासत का अहम स्थान

राष्ट्र की जीवतंता में विरासत का अहम स्थान होता है। प्रत्येक राष्ट्र अपनी यात्रा के महत्त्वपूर्ण पड़ावों को संजोकर रखता है, जिससे नई पीढ़ी प्रेरणा लेती है। यह राष्ट्रवाद का एक परंपरागत स्वरूप है। फ्रांस में 1789 की क्रांति को इतिहास का प्रमुख पड़ाव मानकर वहां की पीढ़ियों को परोसा जाता है। अमेरिका में उसकी स्वतंत्रता से अधिक महत्त्वपूर्ण नस्लीय समानता का निर्णायक संघर्ष बन गया है। दास प्रथा को समाप्त करने के लिए समानता की लड़ाई सिविल वार में तब्दील हो गई थी। इस युद्ध में मरे लोगों की याद में गेट्सबर्ग स्मारक का निर्माण हुआ। इसी के उद्घाटन में अमेरिकी राष्ट्रपति ने अपने 272 शब्दों के संबोधन में लोकतंत्र को परिभाषित किया था, ‘‘जनता द्वारा, जनता का और जनता के लिए।’’

लेकिन ‘मेरी माटी मेरा देश’ ने नवराष्ट्रवाद की चेतना को जन्म दिया है। शहीदों के स्मारक या इतिहास की प्रेरक घटनाओं के आगे बढ़कर राजधानी में सभी गांवों की मिट्टी से बना वन कभी भूतकाल की श्रेणी में नहीं रहेगा। यह देश की विविधता और समान देशभक्ति का एक प्रतीक होगा, जिसका संबंध इतिहास की घटनाओं से न होकर राष्ट्रवाद के प्रति कर्तव्यबोध से रहेगा।

संकीर्णताओं में जकड़े समाज को भाषणों और लेखों से नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना से जुड़े कार्यक्रमों से बाहर निकाला जाता है। आजादी के बाद का इतिहास रेगिस्तान की तरह रहा है। जिन बातों को प्रेरक प्रसंग के रूप में रहना चाहिए, उन्हें बोझ की तरह विद्यार्थियों पर थोपा गया। इसका कारण है कि वह राष्ट्रवाद की एक कृत्रिम और केंद्रीय परिभाषा गढ़ने का प्रयास था।

व्यावसायिक इतिहासकार भूल गए कि अपनी संस्कृति अपने ‘स्व’ की रक्षा करने की भावना ने ही राधा प्रसाद सिंह को शहादत के लिए प्रेरित किया। इतिहास जब विचार और खास दृष्टि का बंधक हो जाता है तब वह मरुभूमि बन जाता है। यही हाल नेहरूवादी-मार्क्सवादियों ने भारत के इतिहास का किया। राजसत्ता और इतिहासकार राजनीतिक स्वार्थ से इतिहास को परिभाषित करते रहे। आम लोगों की भागीदारी का श्रेय अपने नेतृत्व और व्यक्तित्व को देते रहे।

अमृत महोत्सव में ऐसे हजारों अनाम स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मान मिला, जिनके लिए माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘पुष्प की अभिलाषा’ लिखी थी। ऐसे ही मेघालय के ईस्ट खासी हिल्स के एक यू टिरोट सिंग हैं। कल तक अनाम, आज आम लोगों की जुबान पर हैं।
मगर भारत की राजनीति में इतिहास के साथ अन्याय करने वाले इस न्याय को इतिहास का अपहरण मान रहे हैं। इस संदर्भ में एक घटना का उल्लेख आवश्यक है। श्यामजी कृष्ण वर्मा को क्रांतिकारियों के बीच एक अनुपम स्थान प्राप्त है। वे लंदन में रहते थे।

विनायक दामोदर सावरकर, गदर पार्टी के लाला हरदयाल जैसे क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत थे। साम्राज्यवादियों द्वारा पीछा किया गया। वे पेरिस गए, फिर जेनेवा। जेनेवा में उनकी मृत्यु 1930 में हुई। मृत्यु से पूर्व उन्होंने इच्छा-पत्र में लिखा था कि उनकी अस्थि-भस्म को भारत देश की स्वतंत्रता के बाद ले जाया जाए।

देश स्वतंत्र 1947 में हुआ। पर उनकी अस्थि-भस्म जेनेवा में भारत ले जाने का इंतजार करती रही। यहां न आरएसएस, न हिंदू महासभा, न कांग्रेस, न ही कम्युनिस्ट का टकराव या विचारों का द्वंद्व था। पर वे उपेक्षित रहे। अंतत: 2003 में उनकी अस्थि-भस्म को गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी जेनेवा से लेकर आए। गुजरात में क्रांति तीर्थ की स्थापना हुई।

‘मेरी माटी मेरा देश’ सिर्फ एक कार्यक्रम नहीं, इतिहास का पुनर्लेखन और इतिहास की मरुभूमि को हरित भूमि में बदलने का अभियान है। पर, जिस देश में जिद राजनीति का केंद्रीय भाव बन जाए, उसमें साझा कार्यक्रम भी कुछ तत्त्वों को सत्तावादी नजर आता है। जिस बात की कल्पना गांधी ने की थी कि राजनीतिक कार्यकर्ता को रचनात्मक कार्यक्रम का हिस्सा बनकर रहना चाहिए, उसका स्वरूप अमृत महोत्सव में, विशेषकर 2014 के बाद की राजनीति में, उत्तरोत्तर दिखाई पड़ रहा है।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)