लवली आनंद
अगर जीवन एक वृक्ष है तो संस्कार यानी बचपन में जानी-सीखी और मनोविज्ञान या चेतना में उतारी गई तमाम चीजें बीज हैं, जो जीवन रूपी वृक्ष के फल को निर्धारित करता है। हमारे जीवन की सारी संभावनाएं इसी संस्कार रूपी बीज की प्रकृति से प्रभावित होती हैं। हम अपने वास्तविक जीवन में अपने आसपास भी कई प्रकार के वृक्ष देखते हैं।
उनमें से कुछ फलविहीन होते हैं, तो कुछ के फल हमें इतने प्रिय होते हैं कि हमें पूरे वर्ष उनकी प्रतीक्षा रहती है। यानी वे हमारे लिए विशिष्ट होते हैं। जबकि कुछ ऐसे वृक्षों के फल होते हैं जो हमारे लिए सामान्य होते हैं। अपने मौसम पर पकते हैं। हम उन्हें ग्रहण करते हैं, लेकिन उसकी हमें जिज्ञासा या प्रतीक्षा नहीं रहती है। मिल जाने की स्थिति में हमें कोई विशेष रुचि नहीं जगती है और न ही नहीं मिलने पर विशेष अफसोस रहता है।
हम अपने आसपास सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करते हैं तो पाते हैं कि हमारे बीच ही कुछ जीवन अपनी विशिष्टता को छूते हैं, वे आदर्श बनते हैं। वे ज्ञान, ऊर्जा और जीवन से अन्य को सकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। वहीं कुछ जीवन ऐसे होते हैं जो औसत होते हैं और उनमें दिलचस्पी लेने वालों की संख्या नाममात्र की होती है। वहीं कुछ जीवन ऐसे होते हैं जो अपने ही जीवन को कोसते हैं।
वे फलविहीन वृक्ष की तरह होते हैं, जिनके जीवन का कोई उद्देश्य तो नहीं ही होता है, बल्कि अफसोस होता है। जब एक नया जीवन जन्म लेता है तो वह जन्म के साथ ही विकास की प्रक्रिया में शामिल हो जाता है। यह प्रकृति का नियम है। उस विकास की प्रक्रिया के साथ ही चेतना के भी बीज का जन्म होता है, जो अदृश्य होता है। हमें दिखाई नहीं देता है, लेकिन वह अदृश्य रूप से विकसित होता जाता है।
उस अदृश्य बीज के विकास की सबसे बड़ी भूमिका हमारे जीवन में माता-पिता की होती है। इसके बाद आसपास का माहौल और प्रकृति उसे प्रभावित करती है। उसे जिस सत्यता, सहजता, संयम, विश्वास, सद्भावना, सहानुभूति, करुणा, स्पष्टता, दृढ़ता, संकल्प और अनुशासन जैसे उच्च मानवीय गुणों का प्रकाश दिया जाता है, वह उतना ही परिष्कृत होता जाता है।
समय के साथ यही बीज जीवन की दिशा को निर्धारित और नियंत्रित करता है। इसे ही वह आधार कहा जा सकता है जो दो जीवन के बीच भेद करता है। उनकी संभावनाओं में अंतर पैदा करता है। यह तय करता है कि जीवन विशिष्ट होगा, औसत होगा या निम्न होगा। संस्कार के बीज की धुरी पर हमारा जीवन निर्भर करता है। इसकी गुणवत्ता और प्रकृति जितनी उत्कृष्ट होती है, जीवन उतनी ही ऊंची संभावना को छूती है। आज हमारे इस निष्कर्ष के लिए पर्याप्त उदाहरण उपलब्ध हैं, जिनके आधार पर हम तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं, लेकिन पूर्व के ऋषि-मुनि भी इस बात को भली-भांति जानते थे।
प्राचीन ऋषि आचार्य जैमिनी ने संस्कार की व्याख्या करते हुए कहा कि बचपन में हासिल चेतना ही किसी पदार्थ या व्यक्ति को कार्य को करने के योग्य बनाता है। यानी यह हमें पात्रता प्रदान करता है। यह हमारी प्रगति या सफलता के लिए सबसे आवश्यक गुण है। पात्रता नहीं होने की स्थिति में हम उस छलनी की तरह हो जाते हैं, जिसमें भले ही पूरी दुनिया का सारा पानी डाल दिया जाए, लेकिन वे सारी उससे होकर बह जाएंगी।
अंत में उसमें कुछ बूंदें ही रहेंगी, जिसे रख पाने की उसकी पात्रता है। पात्रता हमें इस योग्य बनाती है कि हम अपने अंदर विशिष्टता को थाम सकें। हमारे अंदर विशिष्ट ज्ञान, ऊर्जा या प्रकाश को अवशोषित करने की क्षमता हो। प्रगति, ज्ञान या सफलता, जिसे मानव जीवन का महत्त्वपूर्ण पहलू कहा जाता है, वह चेतना और मनोवैज्ञानिक ढांचे पर निर्भर करता है। इसके बिना जीवन शून्य या अर्थहीन है।
मानसिक चेतना और वैचारिक ढांचा संस्कार के रूप में जाने जाते हैं और यह कोई प्राचीन अवधारणा नहीं है जो केवल प्राचीन जीवनशैली या जीवन के लिए आवश्यक या प्रासंगिक था। भले ही हमारी जीवनशैली बदली हो, लेकिन हमारे जीवन की प्रकृति नहीं बदली है। हमारा भौतिक ताना-बाना नहीं बदला है। हम आज भी उन्हीं पांच तत्त्वों- क्षिति यानी भूमि, जल, पावक यानी अग्नि, गगन यानी आसमान, समीर यानी वायु से बने हैं।
यह आज भी हमारे आधुनिक जीवन का महत्त्वपूर्ण पहलू है। यह चेतना एक ऐसी शक्ति है जो हमें हमारे जीवन के सच्चे मूल्यों को समझने और उसे आत्मसात करने की क्षमता प्रदान करता है। ये किसी व्यक्ति के चरित्र को आकार देते हैं। इसके मूल में हमारे माता-पिता होते हैं। यह उनकी ही जिम्मेदारी होती है। यह एक प्रकार से एक पीढ़ी को दूसरे पीढ़ी तक प्रदान किया जाने वाला अदृश्य बीज है, जिसे जिम्मेदारी के साथ प्रदान करने और ग्रहण करने की आवश्यकता है, क्योंकि वैचारिक चेतना से फलित जीवन स्वयं तक ही सीमित नहीं होते हैं, वे पूरे समाज, राष्ट्र और व्यापक तौर पर विश्व की दिशा और दशा तय करते हैं।