परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन हर परिवर्तन प्रगति नहीं होता। हर पीढ़ी अपने समय के अनुरूप बदलाव लाती है। अगर यह बदलाव संस्कारों की नींव पर आधारित हो, तो इसे सतत प्रगति कहा जाएगा, मगर जब परिवर्तन का यह प्रवाह मूल्यहीन और दिशाहीन होने लगता है, तो वह मात्र उच्छृंखल विद्रोह का रूप ग्रहण कर लेता है। आज की युवा पीढ़ी जिस तीव्रता से पारंपरिक सीमाओं का उल्लंघन कर रही है, वह केवल स्वतंत्रता का उत्सव न होकर एक गहन प्रश्न बनकर उभरता है कि क्या यह सीमा लांघना वास्तविक बौद्धिक मुक्ति है या फिर केवल पश्चिम प्रेरित मोहभंग?

संस्कृति केवल अनुष्ठानों और परंपराओं का संग्रह नहीं, बल्कि वह एक जीवन-दृष्टि है, जो समाज को स्थायित्व प्रदान करती है। जब युवा पीढ़ी इसे बंधन का प्रतीक मानने लगती है, तो वह इस तथ्य को विस्मृत कर देती है कि ये तथाकथित ‘बंधन’ ही सामाजिक समरसता और सह-अस्तित्व की संरचना के आधार स्तंभ हैं। पाश्चात्य समाजों में जहां अक्सर ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ का अर्थ सामाजिक, पारिवारिक और सांस्कृतिक उत्तरदायित्वों से विमुक्ति समझा जाता है, वहीं भारतीय जीवन-दृष्टि में स्वतंत्रता का मर्म आत्मनियंत्रण, कर्तव्यपरायणता और मर्यादा में निहित है।

आज समस्या वही है, समाधान भी है, बस अब समाधान ‘रिटायरमेंट होम’ कहलाता है

एक समय था जब घर के बड़े-बुजुर्ग अपनी मूंछों को ताव देते हुए कहा करते थे कि संयुक्त परिवार में सैकड़ों समस्याएं होती हैं, लेकिन समाधान भी यहीं मिलते हैं। आज समस्या वही है, समाधान भी है, बस अब समाधान ‘रिटायरमेंट होम’ कहलाता है। कभी कहे जाने वाले ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ जैसे कथन मोबाइल की किसी पुरानी तस्वीर की तरह रह गए हैं, जिसे देखकर लोग हंसते हैं और कहते हैं कि ‘ये सब अब नहीं चलता!’ संयुक्त परिवारों की वे जड़ें, जिनमें परिवार रूपी वट वृक्ष सांस लेता था, अब ‘फ्लैट संस्कृति’ में गमले के पौधे बन गई हैं। ये सजावटी तो हैं, लेकिन छाया नहीं देतीं।

स्वतंत्रता का वास्तविक स्वरूप आत्मविकास से जुड़ा होता है, अनुशासन के त्याग से नहीं। आधुनिकता के नाम पर अगर व्यक्ति नैतिक मूल्यों और सामाजिक उत्तरदायित्व से विमुख हो जाता है, तो वह न तो स्वयं को उन्नत कर सकता है और न ही समाज को। नैतिकता अब एक ‘वैकल्पिक अवधारणा’ बन गई है और संस्कार उस पाठ्यपुस्तक की तरह, जिसे परीक्षा से एक दिन पूर्व पढ़ा जाता है और फिर साल भर भुला दिया जाता है। आधुनिकता ने भारतीय मानस को एक ऐसे दोराहे पर ला खड़ा किया है, जहां ‘मर्यादा’ पुरानी पगडंडी की तरह लगती है और ‘स्वच्छंदता’ किसी तेज रफ्तार राजमार्ग की तरह, भले ही उसमें दुर्घटनाओं की भरमार हो।

जीवन में संतोष को अपनाना ही है सच्चा धन, नदियों से भी नहीं बुझती लालच की अंतहीन प्यास

नई पीढ़ी को चाहिए ‘मुक्ति’, पर वह यह तय करने में असमर्थ है कि मुक्त किससे होना है- समाज की अपेक्षाओं से या फिर स्वयं की जिम्मेदारियों से? स्वतंत्रता का अर्थ अब इतना विस्तार पा चुका है कि अनुशासन उसमें डूबने लगा है। विवाह, जो एक पवित्र बंधन बन जाता है, अब केवल सुविधाजन्य अनुबंध के रूप में देखा जाने लगा है।

ऐसे संबंधों का प्रचलन बढ़ रहा है, जिनमें विवाह को व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर नियंत्रण मानते हुए अस्वीकार किया जाता है। यह विचारणीय है कि क्या यह वास्तव में स्वतंत्रता है या फिर उत्तरदायित्वों से पलायन का एक सुसज्जित माध्यम! जब विवाह में समर्पण और सह-अस्तित्व की भावना क्षीण होती है, तब समाज का संतुलन भी डगमगाने लगता है।

एक समय था जब लोग परिश्रम से कमाते थे और संतोष से जीते थे। अब तो प्रचार यह बताते हैं कि हमारी खुशियां ‘महंगी और सजावटी’ होनी चाहिए। वैश्वीकरण ने समाज को एक ऐसे बहुराष्ट्रीय उपभोक्तावादी मंच में परिवर्तित कर दिया है, जहां पारंपरिक मूल्यों पर भारी छूट है और पाश्चात्य विचारधाराएं महंगी अलमारियों में सजी हुई हैं, जहां नई पीढ़ी चमक के आधार पर खरीदारी कर रही है।

बदलाव के दौर में गांवों के अस्तित्व का संकट, शहरी संस्कृति की तरफ बेतहाशा दौड़ रहे लोग

वे लोग खुद को ग्राहक समझते हैं। जबकि असली उत्पाद तो वे खुद ही हैं, जिनके समय, विचार और भावनाओं का व्यापार किया जा रहा है।
प्रश्न यह नहीं है कि नई पीढ़ी प्रभावित हो रही है, प्रश्न यह है कि वह किस प्रकार और क्यों प्रभावित हो रही है। क्या यह प्रभाव आत्मसात करने योग्य है? पाश्चात्य समाज में ‘स्वतंत्रता’ को सर्वोपरि माना जाता है जो भारतीय समाज की सामूहिक चेतना और व्यवस्था से कोसों दूर तक मेल नहीं खाता। वहीं भारतीय समाज में ‘कर्तव्य’ को उस स्वतंत्रता का आधार स्तंभ माना गया है।

स्वामी विवेकानंद का यह कथन अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है- ‘संस्कृति किसी भी राष्ट्र की आत्मा होती है, और यदि आत्मा ही मर जाए, तो शरीर का कोई मूल्य नहीं रह जाता।’ स्वामी विवेकानंद ने भी समाज की परंपरागत रूढ़ियों को चुनौती दी थी, पर वे भारतीयता के मूल तत्त्वों से विमुख नहीं हुए। वे मानवता के पुनरुत्थान के संवाहक बने, विनाश के नहीं।

आज जब युवा ‘स्वतंत्रता’ के नाम पर परंपराओं का निस्तारण कर रहे हैं, तो यह आत्मावलोकन किया जाना चाहिए कि क्या वे मुक्त हो रहे हैं या केवल आत्महीनता के नए संजाल में फंस रहे हैं! क्या यह विद्रोह आत्मचिंतन से जन्मा है, या केवल पश्चिमी प्रभाव का अंधानुकरण है? सीमाओं का उल्लंघन तब सार्थक होता है, जब वह आत्मविकास और सामाजिक उत्थान का मार्ग प्रशस्त करे, न कि मूल पहचान के विखंडन का। प्रश्न यह नहीं कि सीमाएं लांघी जाएं या नहीं, बल्कि यह है कि उन्हें लांघने का उद्देश्य क्या है- विनाश या विवेकपूर्ण पुनर्निर्माण?