दीपक दीक्षित

भाव शब्द के दो अर्थ होते हैं। एक तो किसी वस्तु का बाजार का भाव और दूसरा किसी इंसान के मन में भरा भाव। दोनों ही तरह के भाव समय के साथ बदलते रहते हैं। बाजार का भाव बाजार में मांग और आपूर्ति के समीकरण के कारण और मन का भाव मन में उमड़ते विचार या भावनाओं के कारण। बाजार पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। अच्छे-अच्छे विशेषज्ञ भी कई बार इसकी चाल को पढ़ने में गलती कर जाते हैं। पर बाजार शायद अपने कुछ खास संचालकों की मनमर्जी और जरूरत के मुताबिक अपने रंग बदलता है। इसी मुताबिक बाजार में भाव में उतार-चढ़ाव आता रहता है। लेकिन अपने मन पर हमारा ही अधिकार होता है। जरा-सा अनुशासित व्यवहार करने से मन एक हद तक किसी भी सांचे में ढल जा सकता है। लंबे समय तक एक स्थिति में रहने पर उसका अभ्यस्त भी हो जा सकता है।

बाहर की परिस्थिति से अधिक प्रभावित हुए बिना हम अपने मन में आनंद और प्रेम का भाव रख सकते हैं। यह काम करने में अध्यात्म और ध्यान के अनेक मार्गों में से अपनी सुविधा के मुताबिक कोई एक मार्ग चुन कर हम निरंतर साधना के पथ या अपने चुने गए काम की राह पर आगे बढ़ सकते हैं। यों तो नशे की हालत में भी किसी भी परिस्थिति में अच्छा महसूस किया जा सकता है, पर बाहर की दुनिया से कट कर ही यह संभव होता है। जबकि अध्यात्म एक ऐसी स्थिति है, जहां आनंद में डूबने के लिए बाहर की दुनिया से संबंध-विच्छेद करने की आवश्यकता नहीं होती। पर अक्सर ऐसा माना जाता रहा है कि अध्यात्म के सुख के लिए भौतिक सुख-सुविधाओं का त्याग करना होता है।

सन 1981 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए गए एक अनुसंधान के अनुसार हमारा मस्तिष्क दो हिस्सों में बंटा होता है। एक हिस्सा तर्क आधारित गणनाएं करता है तो दूसरा भावनाओं पर आधारित सुझाव देता है। दोनों हिस्से मिल कर ही पूरे शरीर को चलाते हैं। पर आज की तेजी से भागती मशीनी दुनिया में हम सिर्फ तर्क पक्ष को मान्यता देते हैं और भाव पक्ष को अक्सर उपेक्षित कर डालते हैं।

विज्ञान और गणित के आधार पर दौड़ती-भागती आधुनिक जीवनशैली के प्रभाव में भावनात्मक दृष्टिकोण से लिए गए फैसलों को भूल या कमजोर फैसला कह कर संबोधित करने की प्रवृत्ति देखने को मिलती है। हालांकि सच यह है कि जब तक इंसान का जीवन है, भावनाओं को उससे अभिन्न नहीं किया जा सकता, उसके भीतर से पूरी तरह मिटाया नहीं जा सकता। अगर ऐसा कभी संभव हुआ तो इंसान और रोबोट या मशीन में क्या अंतर रह जाएगा?

सच यह है कि भावना से शून्य व्यक्ति मृतक के समान है। तर्क के साथ-साथ भावनाओं का होना नितांत आवश्यक है, अन्यथा जीवन विकृत हो जाएगा। पर प्रश्न इतना है कि भावनाओं की मात्रा कितनी हो? जैसे खाने में नमक की मात्रा स्वाद के अनुसार डाली जाती है, न कम न ज्यादा, वरना स्वाद बिगड़ जाएगा। इसी तरह गाड़ी में ईंधन यानी पेट्रोल या डीजल आदि के साथ चिकनाई या ‘लुब्रीकेंट’ भी बिल्कुल ठीक मात्रा में डाला जाता है, न कम न ज्यादा, वरना इंजन ठीक से काम नहीं करेगा। ठीक इसी तरह गणित और तर्क की गणनाओं के साथ जीवन के फैसलों में भावनाओं की भी एक निश्चित मात्रा होती है, न कम न ज्यादा। जरा-सा संतुलन गड़बड़ हुआ नहीं कि व्यक्ति कई स्तरों पर परेशान हो जाता है।

भाव और तर्क पक्ष का बिल्कुल सही मिश्रण बनाने के लिए हमें अपने मन में बिना शर्त के प्रेमभाव से अपना काम करने की रणनीति अपनानी चाहिए। तभी हम छल-कपट से भरी दुनियां में निर्बाध अपना रास्ता तय कर सकते हैं। क्या यह कोई बहुत मुश्किल काम है? नहीं। अपने मन में उचित पैमाने पर प्रेम-भाव पैदा करना कोई मुश्किल काम नहीं है।

इसका नुस्खा दादी-नानी की बताई गई खाने-पाने के सामान की मात्राओं जैसी सरल है, जो इस देश में हजारों वर्ष तक घर-घर में अपनाई जाती रही है। जैसे कोई मां अपने बच्चे के प्रति और कोई सैनिक अपने देश के लिए प्रेमभाव से अपने आप ही भरा होता है, ऐसे ही हमें भी अपना हृदय किसी भी वस्तु या विचार के प्रति प्रेम से भर लेना चाहिए, चाहे वह वस्तु काल्पनिक ही क्यों न हो। यहां हमारा उसके प्रति लगाव का महत्त्व है, वह वस्तु अपने आप में क्या है, यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है।

यह हमारी अनूठी संस्कृति की ही विशेषता है कि हर किसी को स्वतंत्रता है कि वह अपनी किसी भी मनपसंद वस्तु को ईश्वर मान सके और अपनी पूजा-उपासना विधि भी तय कर सके। यही वजह है कि हमारे यहां अनगिनत देवी-देवताओं को पूजा जाता है। पर शायद यह बात अन्य संस्कृति के लोगों की समझ से बाहर है। अफसोस की बात यह है कि विश्व को योग और आयुर्वेद जैसी सशक्त पद्धति और तकनीक देने वाली अपनी समृद्ध संस्कृति और इसके मूल्यों से हम अब विस्मृत होते जा रहे हैं और भाव शब्द का अर्थ सिमट कर ‘बाजार भाव’ ही होता जा रहा है।