आजकल जिधर देखें, वहां ‘मैं’ का बोलबाला दिखता है। यह भाषा का नहीं, व्यक्ति का ‘मैं’ है। इस ‘मैं’ में ही सब कुछ है, दूसरा तुच्छ, दोयम दर्जे का हो जाता है। इसमें अहंकार परिलक्षित होता है, दंभ दिखाई देता है, स्वयं के श्रेष्ठ होने का मिथ्या अभिमान आभासित होता है! जबकि प्रत्येक मनुष्य में गुण-अवगुण का सम्मिश्रण होता है। कोई भी व्यक्ति परिपूर्ण नहीं है, लेकिन जिसमें अपने गुणों को जानने-समझने का माद्दा होगा, वह अपने अवगुणों से स्वयं ही विरत हो जाएगा। जब कोई भी अपने आप में परिपूर्ण नहीं है, तब स्वयं की श्रेष्ठता का कैसा मिथ्याभिमान! पद-हैसियत, संपन्नता किसी मनुष्य को श्रेष्ठ नहीं बनाते। अगर कोई अपने पद, अपनी हैसियत, आर्थिक संपन्नता के आधार पर श्रेष्ठता का घमंड करता है, तो यह उचित नहीं है। श्रेष्ठीजन अपनी बुद्धि के साथ विवेक से संचालित होते हैं, जिसके कारण उनमें अहंकार का भाव जागृत हो ही नहीं सकता। विवेकशून्य व्यक्ति ही अहंकार के वशीभूत होकर अपने सामने दूसरों को निकृष्ट मान बैठता है, जबकि व्यक्ति अपने गुणों और अपने अच्छे स्वभाव तथा व्यवहार के कारण ही सम्मान का अधिकारी होता है।

अपनी श्रेष्ठता का बखान करने वाले अहंकारी ही होते हैं। किसी व्यक्ति, समूह, वर्ग, विचार या फिर पंथ की श्रेष्ठता तभी मान्य हो सकती है, जब अन्य को यह महसूस हो, उनकी स्वीकृति प्राप्त हो और उन्हीं के द्वारा यह बात कही जाए। दबाव, हिंसा या अनैतिक आधार पर उच्चता साबित नहीं हो सकती है। यह अहंकार की अभिव्यक्ति ही होगी। अहंकारी मन किसी भी तरह के सत्य को सुनने की क्षमता को नष्ट कर देता है। अहंकार के साथ झूठ है, फरेब है। किसी ने कहा भी है कि ‘अहंकार में तीनों गए, बल, बुद्धि और वंश, न मानो तो देख लो, कौरव, रावण और कंस’।
कहा गया है कि अहंकार राजा रावण का भी नहीं रहा। त्याग, सहनशीलता, विनम्रता के गुणों के कारण राजा राम पूजे जाते हैं, लेकिन आज के दौर में जहां किसी को कोई पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हुई नहीं कि उसमें अहंकार का भाव उत्पन्न हो जाता है। इस स्थिति में वह अपने से नीचे वाली स्थिति के व्यक्तियों की तौहीन करने लगता है, अपमानित करने लगता है। जबकि व्यक्ति के बड़ा होने पर उससे बड़प्पन की दरकार रहती है, न कि उसके अहंकारी हो जाने की।

निस्संदेह जब व्यक्ति में अहंकार कूट-कूट कर समा जाता है, तब उसकी सोचने-समझने की क्षमता का भी ह्रास हो जाता है। यानी अहंकारी व्यक्ति अच्छे-बुरे में भेद करने की क्षमता खो देता है। उसे लगता है कि जो वह कह रहा है या जो वह कर रहा है, वही सत्य है, बाकी सब मिथ्या।
अहंकारी व्यक्ति सदैव श्रेष्ठता के मद में रहता है, दूसरे उसे तुच्छ और हीन ही दिखाई देते हैं। उसे लगता है कि जो भी है, वह स्वयं है। उस पर ‘मैं’ का मिथ्या भाव हावी होने लगता है। जहां मैं है, वहां अहंकार है, दुख है, पीड़ा और पराभव है। अहंकारी मन अंतर्मन से उद्वेलित रहता है, समुद्र की लहरों की तरह अशांत। जो भी सामने आ जाए, उसे बहा ले जाने को उद्धत या फिर अपने में समा लेने की चाहत। अपने प्रति विरोध का स्वर कुचल देने की धृष्टता। जबकि इसके विपरीत जहां ‘हम’ का भाव समाहित हो जाता है, वहां सहयोग है, सद्भाव है। सुख है, मन झील के ठहरे हुए जल-सा शांत और निर्मल भाव में रहता है। कहीं कोई उद्वेग नहीं, कहीं कोई ईर्ष्या-द्वेष नहीं, सभी के प्रति समभाव, सद्भाव। दूसरों के अस्तित्व का सम्मान, उनके विचारों के प्रति कोई राग-द्वेष नहीं। सह-अस्तित्व की आकांक्षा यहीं आकर बलवती होती है।

अहंकार सत्य को स्वीकार नहीं करता और सत्य को स्वीकार करने वाला कभी अहंकार नहीं करता। एक अकेला कुछ नहीं कर सकता। एक और एक ग्यारह होते हैं। उस एक को भी मान्यता समवेत होकर ही मिल सकती है। एक अकेला कभी भारी नहीं हो सकता। सेनापति भी अपनी सेना के बल पर ही आगे बढ़ सकता है और लड़ सकता है। सेनापति की विजय में भी सेना का ही बल होता है। विश्व विजेता कहे जाने वाले सिकंदर ने भी अपने विश्व विजय के अभियान में सेना का ही साथ लिया था। यानी सहयोग और सदाचार से ही जीवन रथ आगे बढ़ सकता है। फिर अहंकार किस बात का!

यहां एक उद्धरण जोड़ना भी प्रासंगिक होगा, जिसके अनुसार सिकंदर ने अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त की थी कि जब उसका जनाजा निकाला जाए, तब उसकी दोनों हथेली बाहर की ओर लटकाई जाए, ताकि लोगों को पता चले कि इंसान धरती पर खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है। ऐसी स्थिति में क्या व्यक्ति को अहंकारी, अभिमानी, घमंडी होना चाहिए? नहीं। जीवन बहुत छोटा है, बहुत सुंदर है। मिलजुल कर, सामंजस्य के साथ रहना सीखना चाहिए। त्याग, सहनशीलता, सहानुभूति, दया, ममता, वात्सल्य के गुणों से लबरेज रहकर लोगों के दिलों को जीतें, न कि घमंड, अहंकार में चूर रहकर अपनों से भी दूर हो जाएं। जीवन तभी संवरेगा और खुशहाल होगा, जब हम अपना अहंकार छोड़कर ‘मैं’ के स्थान पर ‘हम’ की भावना से संचालित होकर कर्म करेंगे। किसी ने क्या खूब कहा है- ‘बूंद-सा जीवन है इंसान का, लेकिन अहंकार सागर से भी बड़ा है। यहां न बादशाह चलता है, न इक्का चलता है। ये खेल है अपने अपने कर्मों का/ यहां सिर्फ कर्मों का सिक्का चलता है।’