दुनिया में कई तरह के लोग रहते हैं, लेकिन गौर से समझा जाए तो यहां तरह-तरह के नहीं, बल्कि दो तरह के लोग रहते हैं। पहली तरह के लोगों को दुनिया में रहने लायक लोगों के रूप में पेश किया जाता है, यानी उपयुक्त लोग। इसके बाद दूसरी तरह के लोगों को दुनिया में न रहने लायक और अनुपयुक्त के तौर पर देखा जाता है। प्रचलित अर्थों के मुताबिक इन्हें भौतिक संसार के लिए सही या गलत लोग भी कह सकते हैं।
रासायनिक आधार पर दूध को भी मांसाहार माना जाता है
सब जानते हैं और ज्यादातर लोग मानते हैं कि मानव जन्म एक बार ही मिला है, जो अपने आप में बहुत मुश्किल से मिली सुविधा है। इंसान जैसे माहौल में पैदा होता है, उसे वैसे ही विचार और व्यवहार मिलते हैं। उसके भीतर खानपान, पहनावे और वैसी ही अन्य आदतें विकसित होती हैं। अनेक अभिभावक अंडे को मांसाहार मानते हैं और नहीं खाते, इसलिए उनके बच्चे भी जिंदगी भर ऐसा करते हुए शाकाहारी बने रहते हैं। यह दिलचस्प है कि रासायनिक आधार पर दूध को भी मांसाहार माना जाता है। कुछ लोग वक्त गुजरने और उम्र के साथ मनचाहा खाने-पीने लगते हैं। यानी उन्हें मांसाहार से कोई परहेज नहीं रहता। इन मामलों में दिल की ज्यादा मानी जाती है, दिमाग की नहीं।
मद्यपान को आम जीवनशैली का हिस्सा बताया जाने लगा है
अभिभावक सिगरेट या शराब का सेवन करते हैं तो संतान में भी ये आदतें परिवार के रास्ते से सहज ही आ सकती हैं। अगर खाने-पीने की आदतों के कारण, शरीर और जीवन पर बुरे असर को लेकर एक समझ पैदा हो जाए तो इनसे दूरी बना कर रखा जा सकता है। हालांकि मद्यपान करने वाले अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे शुरू न करें, लेकिन अधिकार जताते हुए उन्हें रोक नहीं पाते, क्योंकि माहौल तेजी से खुल रहा है और मद्यपान को आम जीवनशैली का हिस्सा बताया जाने लगा है। फिर सिर्फ एक बार मिलने वाली जिंदगी का सवाल भी जवाब मांगने लगता है। मगर इस तर्क पर एक बार की जिंदगी में क्या-क्या करने की सुविधा हासिल करने की अपेक्षा की जाएगी?
लोग अपनी जरूरत के मुताबिक अपने से नई मान्यताएं गढ़ ले रहे हैं
यों पूर्वजन्म-पुनर्जन्म की अवधारणा वाले समाज में ‘एक बार मिलने वाली जिंदगी’ के विचार का प्रसार भी अपने आप में दिलचस्प है। इसलिए कई बार लगता है कि कहीं इस दर्शन का उपयोग सुविधा के हिसाब तो नहीं किया जाता है! दूसरी ओर, जिन परिवारों में शराब का सेवन नहीं किया जाता, उनके अभिभावक बच्चों से चाहते हैं कि वे भी उन्हीं संस्कारों का पालन करें। मगर वयस्क होते बच्चे व्यावसायिक पढ़ाई, नौकरी या व्यवसाय में आते हैं तो उन्हें कहीं लगने लगता है कि वे दूसरों से पीछे हैं।
उनके यार-दोस्तों का व्यवहार उन्हें बताता है कि दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है… और तुम दो पैग लगाते हुए भी खिसियाते हो और मांस की जगह संस्कारों का खंभा नोचते रहते हो! उसी तरह शाकाहारियों को लगता है कि वे एक सीमा में कैद हैं। खाने में उनके पास कम विकल्प हैं। वास्तव में है भी ऐसा। खासकर विदेश में रहने वालों के लिए यह परेशानी आती है। देखा जाए तो मांसाहारियों के लिए ज्यादा विकल्प होते हैं. जिनमें से चुनना आसान होता है।
यह तर्क भी दिया जाता है कि मानवीय शरीर मांस खाने के लिए बना ही नहीं है। कुछ प्रसिद्ध लोग इस बारे विज्ञापनों के जरिए कहते हैं कि उन्होंने मांसाहार छोड़कर शाकाहार अपना लिया है, इसलिए उन्हें बहुत अच्छा लग रहा है, लेकिन शराब के बारे कोई ऐसा नहीं करता। क्या मानवीय शरीर शराब के लिए बना है? हो सकता है कि इसका कोई आधार हो। हालांकि मांसाहार के विरुद्ध कई सामाजिक, धार्मिक संस्थाएं भी बात करती हैं, लेकिन शराब के बारे नहीं। ऐसा कहा जाता है कि शराब लोगों को जोड़ती है, उन्हें सहयोगी बनाती है और काम करवाती है। इसका सेवन करने वाले लोग साथ बैठकर आनंद उठाते हैं तो मन के गुबार भी निकाल लेते हैं। न पीने वाले अक्सर ऐसा नहीं कर पाते। मदिरा पार्टी का आयोजन कुछ लोगों के बीच सामाजिक प्रवृत्ति रही है।
कई लोग पार्टी नहीं करते, मगर कई मामलों में तो उन्हें भी उपहार की औपचारिकता में शामिल होना पड़ता है। कुछ लोग यह भी कहते सुने जा सकते है कि उन्हें लगता है कि उन्होंने शराब नहीं ली या स्वादिष्ट मांसाहारी व्यंजन नहीं खा सके, यानी उपलब्ध स्वादिष्ट विकल्पों का मजा नहीं ले पाए। यानी शराब नहीं पीने, मांसाहार नहीं करने वालों की जिंदगी में कई बार हीन भावना अपना घर बसा लेती है। दूसरी ओर, शाकाहार किसी के गर्व का विषय है। जो जैसा खानपान करता है, उस पर उसे संतोष करना चाहिए।
व्यावसायिक बंधन या लुत्फ उठाने के लिए मदिरा सेवन करने वाले सभी लोग तो नहीं, मगर कुछ लोग न पीने वालों को अपने से कमतर मानते हैं। सवाल यह है कि क्या वे उन्हें दूसरे दर्जे का समझते हैं और खुद को समाज और वक्त के साथ चलने वाला प्रगतिवादी, आधुनिक और विकसित मानते हैं? इसकी तय परिभाषा क्या है? जो लोग किसी भी तरह ज्यादा पैसा कमाते हैं, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक और सार्वजनिक गुस्ताखियां करते हैं, सब कुछ खाते-पीते हैं, मन चाहे काम कर सकते हैं, वे सफल और संसार के लायक माने जाते हैं।
इस तरह की शैली में जीने वाले लोग वैसे लोगों को अपने बराबर नहीं समझते, जो उनकी तरह नहीं कर पाते। उनकी तरह नहीं जीते। दूसरों को पिछड़ा हुआ, छोटा, संकीर्ण, अप्रगतिवादी, समय के साथ न चलने वाला, काफी हद तक दुनिया के लायक नहीं समझते हैं। यह भेद और भाव जारी है, जबकि खानपान और जीवनशैली अपने-अपने सांस्कृतिक और सामाजिक दायरे से आती है।