जब आस्था और व्यवस्था के बीच हृदय मौन हो जाए, तो उसका कोई बड़ा कारण होता है। दरअसल, न्याय विहीन शक्ति को कोई भी अपने दिल से नमन यानी बंदगी नहीं कर सकता। यह स्थिति एक गहरी वेदना की उपज है। यह वेदना उस भाव की है, जो जीवन के चौराहे पर खड़ी है, दिशाहीन और भ्रमित। उसके भीतर एक गहरा अंधकार व्याप्त है, जो उसे बोलने और मौन रहने, दोनों ही स्थितियों में समान रूप से घेरता है। यह अंधकार केवल बाहरी परिस्थितियों का नहीं, बल्कि आंतरिक असमंजस का भी है। एक ऐसी स्थिति है, जहां कोई न तो पूर्ण रूप से ईश्वर के प्रति समर्पित हो पाता है और न ही सांसारिक व्यवस्था, यानी सरकार के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर पाता है। उसका हृदय एक मौन नमन करता है। एक ऐसी बंदगी जो किसी बाहरी दिखावे या दबाव से मुक्त है, बल्कि आत्मा की गहराई से उठती है।
जीवन को लेकर ऐसे प्रश्न हर उस व्यक्ति के मन में उठते हैं, जो अन्याय और विसंगतियों से जूझता है। जब सांसारिक शक्ति, यानी सरकार, न्याय और सत्य के सिद्धांतों से भटक जाती है, तो ईश्वर की अवधारणा भी धुंधली पड़ने लगती है। अगर व्यवस्था भ्रष्ट और अन्यायपूर्ण हो, तो किसी सर्वशक्तिमान पर विश्वास कैसे टिका रहे? यह एक गहरा दार्शनिक और सामाजिक प्रश्न है, जो सदियों से मानव मन को आंदोलित करता रहा है। यह पीड़ा उस आम आदमी की है जो व्यवस्था और आस्था के बीच पिस रहा है। वह देखता है कि जिन लोगों पर न्याय और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी है, वे अक्सर अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और सत्ता का दुरुपयोग आम बात हो जाती है। ऐसे में, वह किस पर भरोसा करे?
असमंजस की यह स्थिति व्यक्ति को भीतर से खोखला कर देती है। वह न तो खुलकर विरोध कर पाता है और न ही पूर्ण समर्पण कर पाता है। उसका हृदय एक अजीब-सी शून्यता से भर जाता है। वह चाहता है कि कोई मार्ग दिखाए, कोई ऐसा सत्य हो, जिस पर वह अटूट विश्वास कर सके। लेकिन चारों ओर फैला अंधकार उसे और भी निराश करता है। अपने दिल से बंदगी यानी नमन..! जब बाहरी सहारे टूट जाते हैं, जब सांसारिक और दैवीय शक्तियां भी प्रश्नों के घेरे में आ जाती हैं, तो मनुष्य के पास अपनी आत्मा की गहराई में झांकने के सिवा कोई और चारा नहीं बचता।
यह आंतरिक नमन किसी मंदिर या मस्जिद में जाकर किए जाने वाले औपचारिक पूजन से अलग है। यह हृदय की सच्ची भावना है, एक मौन स्वीकारोक्ति है उस परम शक्ति के प्रति, जो शायद इन सभी विसंगतियों के परे कहीं विराजमान है। यह एक ऐसी आस्था है जो तर्क से परे है, जो केवल अंतस के स्तर पर महसूस की जा सकती है। लेकिन यह बंदगी भी एक प्रश्नचिह्न के साथ आती है। क्या यह पर्याप्त है? क्या केवल हृदय का नमन अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध कोई बदलाव ला सकता है? या यह केवल एक असहाय आत्मा का अंतिम शरण्य है?
ऐसा लगता है कि दैवीय और सांसारिक नियम एक ही दिशा में काम कर रहे हैं। लेकिन जब शक्ति न्याय से विहीन हो जाती है, जब शासक अन्याय और अत्याचार पर उतर आते हैं, तो ईश्वर की अवधारणा विचारों के घेरे में आती है। यह प्रश्न मानव इतिहास में बार-बार उठता रहा है। धार्मिक ग्रंथों और दार्शनिकों ने इसके अलग-अलग उत्तर दिए हैं, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर यह पीड़ा प्रासंगिक है। जब कोई व्यक्ति अन्याय का शिकार होता है, जब वह देखता है कि शक्तिशाली लोग अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहे हैं और कोई उन्हें रोकने वाला नहीं है, तो उसकी आस्था डगमगा जाती है।
ऐसे में न्याय विहीन शक्ति का कोई नहीं कर सकता अपने दिल से नमन, यह कथन एक गहरी सच्चाई को व्यक्त करता है। अत्याचार और अन्याय के बल पर स्थापित शक्ति कभी भी सच्ची श्रद्धा और सम्मान प्राप्त नहीं कर सकती। भय और दबाव के कारण लोग बाहरी तौर पर सम्मान दिखा सकते हैं, लेकिन उनके हृदय में उस शक्ति के प्रति कोई सम्मान नहीं होता। सच्ची बंदगी तो प्रेम, विश्वास और न्याय पर आधारित होती है।
यह भाव हमें सोचने को मजबूर करता है कि जीवन का अर्थ क्या है। न्याय, सत्य और आस्था का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है? जब हम अन्याय और भ्रम के अंधकार से घिरे होते हैं, तो हमें किस पर भरोसा करना चाहिए? क्या हमें केवल अपनी आंतरिक आवाज पर भरोसा करना चाहिए, उस मौन नमन पर, जो हमारे हृदय की गहराई से उठता है? यह एक प्रश्न है और शायद एक उम्मीद की किरण भी। यह हमें याद दिलाती है कि भले ही बाहरी परिस्थितियां कितनी भी अंधकारमय क्यों न हों, हमारे भीतर एक ऐसी लौ जलती रहती है जो सत्य और न्याय की तलाश में कभी हार नहीं मानती।
यह मौन नमन उस लौ का ही प्रकटीकरण है, एक ऐसी प्रार्थना है जो शब्दों से परे है, जो केवल हृदय से महसूस की जा सकती है। यह हमें सिखाती है कि सच्ची शक्ति बाहरी प्रदर्शन में नहीं, बल्कि आंतरिक दृढ़ता और सत्य के प्रति अटूट निष्ठा में निहित है। शायद इसी आंतरिक बंदगी में हमें उस ईश्वर, यानी उस न्याय का कुछ अंश मिल जाए, जिसकी तलाश में हम भटक रहे हैं।