Dunia Mere Aage: इस चराचर जगत में ज्ञान और विषयों की कोई थाह नहीं है। ज्ञान के अपरिमित भंडार में प्रश्नों और उत्तरों के इतने संभाव्य युग्म विद्यमान हैं कि जिनकी कल्पना कर पाना भी नितांत कठिन है। मगर क्या कभी हममें से किसी ने भी स्वयं से एक प्रश्न करने की कोशिश की है कि ‘मैं कौन हूं?’ छोटा-सा यह प्रश्न हमें भीतर तक झकझोर देने की शक्ति रखता है। संसार में कितने ऐसे लोग होंगे जो पूरे आत्मविश्वास के साथ यह कह सकते हैं कि वे स्वयं से भली-भांति परिचित हैं। निश्चित-सी बात है कि ऐसे लोगों का फीसद न के बराबर ही होगा। कारण यह है कि आत्मपरिचय कोई सरल कार्य या प्रक्रिया नहीं है। उदाहरण के तौर पर, किसी पुस्तक को समझने और कंठस्थ करने के लिए हमें उसे अनेक बार पढ़ना पड़ता है। वास्तव में पुस्तक को पढ़ना एक यात्रा के समान है।
हम खुद को जितना झकझोरेंगे, उतना ही बेहतर होते चले जाएंगे
यात्रा पूरी हो जाने पर यह आवश्यक नहीं कि हमें पथ के प्रत्येक बिंदु के बारे में ठीक वैसे ही याद रहे जैसा कि वह वास्तव में है। मगर यह भी एक सत्य है कि जब हम एक ही पथ पर यात्रा की पुनरावृत्ति अनेक बार करते हैं तो पथ और गंतव्य से अपेक्षाकृत अधिक गहराई के साथ परिचित होते चले जाते हैं। ठीक यही स्थिति स्वयं से परिचय की भी है। हम अपने अंतर्मन को जितनी बार झकझोरने का प्रयास करेंगे या दूसरे शब्दों में जितनी बार अपनी आंतरिक यात्रा पूरी करने का प्रयास करेंगे, उतना ही बेहतर ढंग से हम स्वयं से परिचित होते चले जाएंगे।
स्वयं से परिचय कोई क्षण भर का कार्य नहीं है कि इधर शुरू किया और उधर खत्म हो गया। यह एक सतत, कठिन और गहन प्रक्रिया है। यह एक ऐसी यात्रा है, जिसका कोई अंत नहीं है। यात्रा आगे बढ़ती रहती है और हम धीरे-धीरे अपने अंतर्मन की परत-दर-परत खोलते हुए आत्मज्ञान के स्तर को ऊंचा उठाते जाते हैं। आत्मपरिचय के माध्यम से हम उस चेतना के साथ जुड़ने का प्रयास करते हैं जो हमारे अस्तित्व के प्रति उत्तरदायी है। खुद से परिचय का सीधा-सा अर्थ है कि हम चेतना के स्वरूप को जानने-समझने के लिए प्रयासरत हो चुके हैं। स्वयं से परिचय कर पाना इतना सरल भी नहीं होता। इसके लिए एक नितांत शांत मन की आवश्यकता होती है।
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जरा कल्पना करें कि किसी नदी में भयंकर बाढ़ आई हुई है और हम उस नदी में नौका विहार करना चाहते हैं। क्या ऐसी यात्रा हमें तनिक भी सुख दे सकती है? शायद नहीं, क्योंकि नदी का परिवेश के अनुकूल नहीं है। प्रतिकूल परिवेश में यात्रा हमें किसी उपलब्धि की ओर नहीं ले जा सकेगी, बल्कि ऐसी यात्रा खतरे से खाली नहीं रहेगी। ठीक वैसे ही अशांत मन कभी अंतर्यात्रा में भाग नहीं ले सकता, क्योंकि वह इसके लिए अक्षम और असमर्थ होता है। जिस प्रकार अशांत नदी में बाढ़ आई होती है, ठीक उसी प्रकार अशांत मन में विचारों का एक बवंडर विद्यमान होता है।
यह विचार बाह्य जगत और विषयों की देन है। अनावश्यक और अनर्गल विचार स्वयं से परिचय की यात्रा में अवरोध का कार्य करते हैं। जीवन जितना आगे बढ़ता जाता है, इन विचारों की मात्रा उतनी ही तीव्रता से बढ़ती रहती है और परिणामस्वरूप मन में शांति का ह्रास उसी दर से होता रहता है। शांति के अभाव में स्वयं से परिचित हो पाना असंभव है।
स्वयं से परिचित होने की एक आरंभिक प्रक्रिया के रूप में हम एकांत में खाली समय निकालकर चुपचाप बैठ सकते हैं, लेकिन ऐसा करते समय हमारे भीतर यह विचार नहीं आना चाहिए कि हम कहीं न कहीं समय को व्यर्थ गंवा रहे हैं। एकांत में शांति की गोद को पाकर हम जीवन की सारी उथल-पुथल, विचारों के उद्वेग, इच्छाओं के संजाल और प्रत्येक उस बाधा से दूर होने लगते हैं जो हमारा अपने आप से परिचय नहीं होने देती। इच्छाएं और महत्त्वाकांक्षाएं ही आत्मबोध के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हैं।
इस तरह से समझा जा सकता है कि मान लीजिए हम किसी नदी में यात्रा करने के लिए नौका पर सवार हो चुके हैं, लेकिन नौका तट के साथ किसी रस्सी द्वारा बांध दी गई है। वैचारिक उथल-पथल और महत्त्वाकांक्षाएं, जो बाहरी विषयों से उत्पन्न होती हैं, बिल्कुल एक रस्सी की भूमिका अदा करती हैं, जिसने हमारी अमूल्य यात्रा को रोक रखा है। एक बार अगर यह रस्सी खुल या टूट गई तो फिर नौका यात्रा पर निकल पड़ती है।
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स्वयं से परिचित हो जाना हमें बहुआयामी रूप से लाभ पहुंचाता है। सबसे महत्त्वपूर्ण लाभ यह होता है कि हम सभी प्रकार के तनाव से हमेशा के लिए मुक्त हो जाते हैं। उपनिषदों में कहा गया है, ‘अहम ब्रह्मास्मि’, यानी मैं ही ब्रह्म हूं। कितनी कठिन साधना के बाद परिणाम को इंगित करने वाले इस कथन की खोज हुई होगी। एक अन्य महत्त्वपूर्ण लाभ जो आत्मपरिचय से प्राप्त होता है, वह यह कि हम बाह्य जगत से जुड़ी प्रत्येक वस्तु के साथ मोहभंग की अवस्था में आ जाते हैं। लाभ और हानि जैसे भाव हम पर प्रभाव डालना छोड़ देते हैं और हम निरपेक्षता के भाव से संतृप्त हो जाते हैं।
हम सभी को अपनी व्यस्त जीवनशैली एवं दिनचर्या में से कुछ अमूल्य पल चुराते हुए उन्हें पूर्णतया अपने आपको समर्पित करने का प्रयास करना चाहिए। ऐसे अमूल्य क्षणों को हमें पूर्णतया शांतिरूपी सुरक्षा कवच के अंदर रखना चाहिए, ताकि किसी भी तरह का वैचारिक तूफान और परिस्थितियों का संयोजन हमारी अंतर्यात्रा में कोई व्यवधान न डाल सके। यह निश्चित है कि जब हम एक बार स्वयं से जुड़ने का प्रयत्न आरंभ कर देंगे तो फिर बाहरी संसार की ओर हमारे अंतर्मन की यात्रा की गति नितांत धीमी पड़ जाएगी और हम तेजी से स्वयं की ओर उन्मुख होने में सक्षम हो सकेंगे।