एक सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य के भीतर यह जिज्ञासा होती है कि दूसरे क्या कर रहे हैं, कैसे जी रहे हैं, किस स्थिति में हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि हम एक समाज में रहते हैं और उसका हिस्सा हैं। मगर यही जिज्ञासा जब दूसरों की सतही झलक देखकर उनकी तुलना करने या आलोचना करने में बदल जाती है, तब हमारे विकास की राह में सबसे बड़ी बाधा बन जाती है।
जैसे कोई व्यक्ति लगातार अपने पड़ोसी की नई कार, दोस्त की पदोन्नति या किसी रिश्तेदार के आलीशान घर को देखकर खुद को कमतर समझने लगे, तो उसका ध्यान अपने प्रयासों, अपनी प्रगति से हटकर निराशा और ईर्ष्या की ओर चला जाता है। यह वैसा ही है, जैसे कोई धावक अपनी दौड़ छोड़कर दूसरों की रफ्तार देखने लगे। इसके बाद न वह आगे बढ़ पाएगा, न ही मंजिल तक पहुंच पाएगा।
अक्सर हम दूसरों के जीवन में झांकने, उनके चरित्र पर टिप्पणियां करने और उनकी दिनचर्या की समीक्षा में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि भूल जाते हैं कि हमारी असली जिम्मेदारी हमारे अपने जीवन की दिशा तय करना है। एक विद्यार्थी अगर यही सोचता रहे कि उसके सहपाठी कितने नंबर लाए, किसने कौन-सी किताब पढ़ी, लेकिन खुद पढ़ाई में ध्यान न दे, तो क्या वह परीक्षा में सफल हो पाएगा?
खुद पर ध्यान देने की जगह दूसरों को सुधारना अनुचित
इसी तरह, जीवन की परीक्षा में सफलता पाने के लिए हमें खुद के अंदर झांकना होगा। आत्मविश्लेषण ही आत्मोन्नति की पहली सीढ़ी है। खुद से सवाल करना चाहिए कि मैं कौन हूं… मेरा उद्देश्य क्या है… मैं किस दिशा में बढ़ रहा हूं..! जब तक हम अपने चरित्र की गहराई, अपनी आदतों और कमजोरियों पर ध्यान नहीं देंगे, तब तक दूसरों की आलोचना करना केवल एक भ्रम होगा। जैसे धूल लगे आईने में हम दूसरे को साफ नहीं देख सकते, वैसे ही अपनी आत्मा को पहचाने बिना हम दूसरों को सुधारने की बात नहीं कर सकते।
आज का युग सोशल मीडिया का है। एक ‘क्लिक’ पर हम किसी की जिंदगी की सबसे चमकदार झलक देख लेते हैं- नई नौकरी, विदेश यात्रा, शादी, प्रचार, लेकिन कोई यह नहीं दिखाता कि उसके पीछे कितनी मेहनत, संघर्ष या त्याग छिपा है। यह वैसा ही है, जैसे कोई तस्वीर देखकर किसी फिल्म का पूरा कथानक समझने की कोशिश करे। हर मुस्कान के पीछे एक कहानी होती है, जिसे बिना जाने हम निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। तुलनात्मक जीवन जीना आत्मविश्वास को खोखला कर देता है।
अंधी दौड़ बनकर रह गया है जीवन, मानवता की आत्मा है सृजनशीलता
एक कर्मचारी जो रोज समय पर आता है, ईमानदारी से काम करता है, अगर वह सिर्फ इस बात से हताश हो जाए कि किसी दूसरे को प्रचार या प्रोत्साहन मिल गया, तो वह अपने प्रयासों को ही बेकार मानने लगेगा। लेकिन अगर वह यह समझे कि हर व्यक्ति की यात्रा अलग है और उसकी मेहनत का फल भी उसे उचित समय पर मिलेगा, तो वह अधिक शांत और आत्मनिर्भर रहेगा।
सच्चाई यह है कि हर जीवन की किताब अलग होती है। कोई पहला अध्याय संघर्ष से शुरू करता है, कोई सौभाग्य से, लेकिन किसी की किताब पढ़कर अपनी जिंदगी का मूल्यांकन करना केवल भ्रम को जन्म देता है। जो अपनी किताब के पन्नों पर ध्यान देता है, वही सच्ची कहानी लिख पाता है। जो व्यक्ति अपनी दौड़ पर ध्यान देता है, आखिर वही सफल होता है। दुनिया में जितने भी सफल लोग हुए हैं, उन्होंने दूसरों की आलोचना करने में नहीं, बल्कि खुद को सुधारने में समय लगाया। बदलाव की शुरुआत हमेशा आत्मनिरीक्षण से होती है।
सीखने की नहीं होती कोई उम्र, भाषा के मामले में लोगों के बीच फैलाई जाती है नफरत
दूसरों को गिराने की प्रवृत्ति आखिरकार खुद के लिए गड्ढा खोदने जैसी होती है। यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे कोई किसी और को अंधेरे में धकेलने की कोशिश करे, लेकिन खुद अपनी दृष्टि खो बैठे। इसके विपरीत, जब हम सहयोग और करुणा की भावना से आगे बढ़ते हैं, तो वह ऊर्जा हमारे जीवन को भी रोशन करती है। मान लिया जाए कि कोई दुकानदार अगर अपने प्रतिस्पर्धी की बुराई करके ग्राहकों को खींचने की कोशिश करता है। इससे वह थोड़े समय के लिए सफल हो सकता है, लेकिन स्थायी भरोसा उसे नहीं मिल पाएगा। वहीं, दूसरा दुकानदार अगर अच्छे व्यवहार, गुणवत्ता और सेवा के जरिए ग्राहकों का दिल जीते, तो समय के साथ उसकी प्रतिष्ठा और व्यापार दोनों बढ़ेंगे। यह आत्म-सुधार का प्रभाव है।
जब हम यह मान लेते हैं कि परिवर्तन की शुरुआत अपने भीतर से होनी चाहिए और समाज से पहले खुद को बदलने का प्रयास करते हैं, तब जीवन में संतुलन और शांति आना स्वाभाविक हो जाता है। जैसे एक दीपक खुद जलता है, तभी दूसरों को रोशनी देता है, वैसे ही आत्म परिवर्तन ही समाज में स्थायी परिवर्तन की नींव है। दूसरों को दोष देने, आलोचना करने या व्यंग्य करने के बजाय अगर हम उनकी राह आसान करें, मदद करें, तो वह सहारा हमारे लिए भी आत्मिक संतोष लेकर आता है। जो किसान सिर्फ अपनी फसल की चिंता नहीं करता, बल्कि साथ के खेतों में भी पानी देने की सोचता है, वही असल में समाज का नेतृत्व करता है।
जीवन का सार यही है कि तुलना से नहीं, आत्म-सुधार और सहयोग से ही सच्चा विकास संभव है। यह विकास केवल भौतिक नहीं, बल्कि मानसिक, आत्मिक और सामाजिक स्तर पर भी होता है। इसलिए दूसरों की रफ्तार देखने के बजाय अपनी चाल को बेहतर बनाना चाहिए। आलोचना की जगह आत्मनिरीक्षण और प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग को प्राथमिकता देना जरूरी है। यही उस शिखर पर ले जाएगा जहां आत्मसंतोष, आत्मविश्वास और सच्ची सफलता का स्वागत करते हैं।