अमिताभ स.

बुढ़ापे तक बालमन की भावना हर किसी में बरकरार रहनी चाहिए, ताकि जिंदगी की भागमभाग में भी सुकून बना रहे। हर उम्र के हर इंसान में एक मासूम बच्चा छिपा रहता है, जो मदमस्त रहना चाहता है। लेकिन हमारी बुद्धिमत्ता, तजुर्बा और विवेक भीतर के बच्चे को दबाए रखते हैं। ज्यों-ज्यों हम युवा होते हैं, त्यों-त्यों संस्कार-सलाहों से लदने लगते हैं और इन पर ज्यादा तवज्जो देने लगते हैं। नतीजतन, अपने अंदर के बच्चे को नजरअंदाज करते जाते हैं। दिल से बच्चा कहीं गुम हो जाता है।

दिल से बच्चा बने रहने के लिए किसी भी नियंत्रण से बाहर निकलना होता है, किसी टीका-टिप्पणी की परवाह किए बगैर। ऐसा बने रहने के लिए ऐसे लोगों की संगत में रहना होगा। जो जैसे हैं, वैसे ही रहने के लिए प्रोत्साहित करते रहें। जाहिर है कि हर वयस्क में तनावरहित और खुशहाल बचपन हरदम छिपा रहता है।

इसे नोबेल विजेता साहित्यकार जार्ज बर्नार्ड शा से यों समझ सकते हैं कि हम खेलकूद बंद नहीं करते, क्योंकि बूढ़े हो रहे हैं, बल्कि हम बूढ़े होने लगते हैं, क्योंकि खेलना बंद कर देते हैं। इसीलिए कम से कम जब-तब जिंदगी तनाव और चिंताओं से घिरने लगे, तब-तब तो जरूर ही बालमन में लौटने में ही भलाई है। अपने भीतर के बच्चे को पालने-पोसने का केवल एक ही तरीका है। अकेला एक ही शख्स परवरिश और देखभाल कर सकता है इस बच्चे की। यानी हर व्यक्ति स्वयं का सर्वश्रेष्ठ अभिभावक और मित्र बन सकता है। इसलिए अपने भीतर पलते बच्चे को स्रेह, हिफाजत और तवज्जो से ताउम्र सींचते रहना जरूरी भी है।

बालमन की इस भावना के संग जीने के बड़े-बड़े फायदे हैं। उम्र ढलने के बावजूद इंसान छोटी उम्र के तमाम बड़े काम तक आसानी से कर जाता है। हालांकि कहते तो हैं कि देर न हो जाए, लेकिन जीवन की राह पर बाल भाव से जुटे रहा जाए, तो देर खलेगी नहीं, उत्साह कायम रहेगा। इसकी मिसालें कई हैं।

अभिनेता बोमन ईरानी चौवालीस साल की उम्र में होटल के बैरा से आगे बढ़ कर बड़े पर्दे पर छाए, तो लीला होटल ग्रुप के संस्थापक सीपी कृष्णन नायर ने पैंसठ साल की आयु में मुंबई में अपना पहला होटल चालू किया। उधर महात्मा गांधी भी पैंतीस साल की उम्र के बाद ही स्वतंत्रता आंदोलन में कूदे और अगुआई भी की। कह सकते हैं कि इन्हें अपनी बढ़ती उम्र अखरी नहीं, इसलिए मोर्चे से डिगे नहीं।

यों भी, बाल मन इस कदर नादान और अबोध होता है कि सबसे मित्रता का भाव ही रखता है। किसी से बैर नहीं करता। बिना लाग-लपेट के मिल बांट कर खाना-पीना तो कोई वाकई बच्चों से सीखे। एक अफ्रीकी बोधकथा है कि एक शिक्षक अफ्रीका के एक पिछड़े इलाके के आदिवासी बच्चों को कुछ पढ़ाने-सिखाने गया। पहले दिन उसने बच्चों के एक खेल से शुरुआत की।

उसने एक पेड़ के पास मीठे-रसीले फलों से भरी टोकरी रख दी। फिर बच्चों को सौ मीटर की दूरी पर खड़ा कर दिया। इसके बाद ऊंची आवाज और इशारों के साथ घोषणा की कि जो बच्चा सबसे पहले पेड़ तक पहुंचेगा, फलों भरी टोकरी उसकी हो जाएगी। सुनते-समझते ही सभी बच्चों ने कस कर एक-दूसरे के हाथ थाम लिए और एक साथ पेड़ की तरफ दौड़ पड़े। नतीजा रहा कि सभी एक साथ पहुंचे!

उन्होंने झट से टोकरी उठा ली और देखते ही देखते सारे फल आपस में बराबर बांट लिए। फिर मिलजुल कर खाए और बराबर मजे किए। अनूठा नजारा देख कर शिक्षक को अचरज हुआ। ऐसा करने का कारण पूछा, तो बच्चों ने इशारों में आगे बताया कि कोई अकेला कैसे खुश रह सकता है, जब बाकी सब उदास हों। वाकई मिलजुल कर रहने और मिल- बांट कर खाने- पीने की भावना फैलाने से बढ़ कर कुछ नहीं। मगर स्कूली शिक्षा प्रतिस्पर्धा सिखाती है, जिसके चलते बच्चे एक-दूसरे से आगे बढ़ने की होड़ में अपना बाल भाव भूलते और छोड़ते जाते हैं। यह सिलसिला सारी उम्र चलता और बढ़ता रहता है।

प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ के नन्हे हामिद की तरह हर किसी को बन जाना चाहिए। बेशक बाजार जाइए और ढेर सारी चीजें देखिए, लेकिन खरीदिए वही, जिनकी बहुत जरूरत है। गली-मुहल्लों के खेलों में बच्चे बेशक हारते जाते हैं, फिर भी खेलते जाते हैं। कोई कितना हारे, उसे मौके मिलते जाते हैं। जिंदगी जीने की जो सीख बच्चों के खेल-कूद से है, वह किसी से नहीं। बच्चों के खेल हारना सिखाते हैं।

जबकि बाल स्वभाव के बगैर वाला कोई हारना नहीं चाहता, न ही किसी को हारना आता है। खेलों की तरह जीवन में भी तमाम चुनौतियां आती हैं। कुछ जीतते हैं, कुछ हारते हैं। सयाने बताते हैं कि कोई सौ में से सौ दांव नहीं जीतता है। अपनी हार को भी सामान्य तौर पर लेना चाहिए। हार के लिए खुद को सजा न दिया जाए।

हार मान कर हम अपने हिस्से की समस्या से सीखें और आगे बढ़ें। फिर खेल-खेल में हार से सीखते जाना कभी थकाता या परेशान नहीं करता। बच्चों- सी मासूमियत, कोमलता और सत्यता हर इंसान में ताउम्र रहने से नीयत साफ रहती है। साफ नीयत के अंग-संग रहने से इंसान कभी मात नहीं खाता। वह हार कर भी दिल जीत लेता है।