सहस्रों वर्षों से मानव जीवन ने एक अनंत लंबी यात्रा की है। आदमी कहां से चला और कहां पहुंच गया है। सहकार और समूह में सुरक्षा और विकास की कुलांचे भरते मनुष्य ने विकास के लिए अब नितांत एकाकीपन को चुना है। बस इसी यात्रा में आज आदमी एकाकी होकर जितना निरीह होकर और बेबस हुआ है, उतना यह उस दौर में भी नहीं था, जब जंगलों में जीवन बसर कर आगे बढ़ना सीख रहा था। साहचर्य और एकांत, दोनों के अपने-अपने रंग होते हैं, लेकिन नितांत अकेलेपन के बिखरे रंग बहुत गहरे और स्याह हैं जो खुद चुनने वाले आदमी को लीलने लगे हैं। कभी आदमी के कानों में साहचर्य का सुखद संगीत गूंजता था, लेकिन आज अपने चुने एकांत की गहरी चुप्पी ने मन को न केवल झकझोर दिया है, बल्कि उसे तोड़ कर रख दिया है।

भारत में एकल परिवारों की संख्या में पिछले दो दशकों में तीस फीसद की वृद्धि हुई है

यह युग कुछ ऐसा है, जहां यह एकांत अनचाहे ही मनुष्य के जीवन में दस्तक देकर डेरा बना बैठा है। मेलों की उमड़ती भीड़ में भी अकेला पड़ता आदमी आज के समाज की एक ऐसी सच्चाई बन गया है, जो न केवल व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित कर रही है, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी धीरे-धीरे छिन्न-भिन्न कर चुकी है। एक खामोश त्रासदी-सा बिखर गया है सारा परिवार। परिवार, जो पहले आश्रय था, आज बोझ लगने लगा है। संयुक्त परिवार, जो कभी हंसी-खुशी और आपसी संबल का प्रतीक थे, अब अतीत की कहानियों में सिमट गए हैं। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2021 के अनुसार, भारत में एकल परिवारों की संख्या में पिछले दो दशकों में तीस फीसद की वृद्धि हुई है। यह आंकड़ा भी काफी किंतु-परंतु में लिपटा है। यह कोई खेल नहीं, बल्कि एक ऐसे सामाजिक विघटन का द्योतक है जो हमें रोने-सिसकने और टूटने के लिए अकेला छोड़ चुका है।

आज का मनुष्य अपने ही घर में अजनबी-सा हो गया है। बच्चे अपने माता-पिता से दूर, पति-पत्नी अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में व्यस्त, और बुजुर्ग अपनी यादों के सहारे एकाकी जीवन से संत्रस्त होने को मजबूर हैं। यह मनहूसियत केवल शारीरिक दूरी की नहीं, बल्कि भावनात्मक स्तर की भी कब्र खोद रही है। अब एक बेटा अपने पिता से फोन पर औपचारिक बातें करता है। एक मां अपनी बेटी को साल में एक बार ही देख पाती है। फिर सब कुछ काल के गाल में दफन हो जाता है।

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वास्तव में सामूहिकता का संस्कार वह धागा था जो हमें अपनी जड़ों से जोड़े रखता था। मगर आधुनिकता की चकाचौंध में यह धागा गल चुका है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत में 18-35 आयु वर्ग के 62 फीसद युवा यह मानते हैं कि पारंपरिक संस्कार उनके लिए ‘प्रासंगिक नहीं’ हैं। युवा पीढ़ी ने नए के सृजन की चाह में जो खोजा, उसे खुद समझ नहीं आ रहा कि वह क्या तलाशने निकाला था और हाथ क्या लगा है। आज यह बदलाव केवल जीवनशैली तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे सोचने-समझने के तरीके को भी प्रभावित कर चुका है। अब हमारे अनुभूत संपुष्ट विचार कमजोर पड़ गए हैं। जाहिर है, अब सामूहिक संवाद भी क्षीण होंगे।

आदमी आज जिस बनावटीपन है और एकाकीपन में लिपटा है, उसका कोई समाधान नहीं है। माया आज भौतिकता के रूप में हमारे सामने है, जो हमें अपने से जोड़ने के बजाय तोड़ कर अलग कर रही। हमारा अकेलापन केवल शारीरिक एकांत नहीं है। यह मन की वह अवस्था है, जहां व्यक्ति असुरक्षित महसूस करता हुआ अभिशप्त होने को विवश है। विश्व स्वास्थ्य संगठन 2024 की एक रपट के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 40 फीसद लोग गहरे अकेलेपन का शिकार हैं, जिसका सीधा संबंध हमारे मानसिक स्वास्थ्य से है।

यह असुरक्षा केवल बाहरी दुनिया तक सीमित नहीं है, बल्कि आदमी के भीतर भी गहरी पैठी हुई है। हम हंसते मुस्कुराते पार्टी से लौटे आदमी को सीधा-प्रसारण करते हुए आत्महत्या करते देख कर हैरान हैं । परिवार के भीतर की विश्वास की डोर कमजोर हो गई है। आज एक पिता अपने बेटे की सफलता पर संदेह कर रहा है। आए दिन पति-पत्नी के बीच चारित्रिक संदेह और निष्ठा पर सवाल उठने की खबरें आ रही हैं। ऐसे में अकेलापन और गहरा होता जाएगा।

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जब मनुष्य अपने ही मन के भीतर कैद होकर रह जाता है, तो वहां उसके पास कोई साथी, संबल, सहारा नहीं होता। सुख की खोज में दुख जकड़ता जाता है। आधुनिक युग के भौतिकवाद ने मनुष्य के जीवन को इस कदर जकड़ लिया है कि वह अपने संबंधों को भी वस्तुओं की तरह तोलने लगा है। एक नई कार, एक बड़ा घर, एक महंगा फोन- ये सब आज सुख के पैमाने बन गए हैं। भले ही किस्तों के भंवर में महल खड़े हो रहे हों, लेकिन अहं आदमी का सातवें आसमान पर जा पंहुचा है। लेकिन क्या ये वस्तुएं उस खालीपन को भर सकती हैं, जो मन में बढ़ता जा रहा है?

अकेलापन किसी की सामाजिक स्थिति या उपलब्धियों से परे है। यह अनुभव हर किसी को छू रहा है। दरअसल, अकेला पड़ता आदमी आज की सबसे बड़ी चुनौती खुद है और उसे इस अंधेरी सुरंग का कोई अंत दिखाई नहीं दे रहा है। हम अपने परिवारों को फिर से जोड़ें, आपसी विश्वास को मजबूत करें और भौतिकवाद से ऊपर उठकर संतोष की खोज करें। तब शायद यह अकेलापन धीरे-धीरे छंट सकता है। फिर भी निश्चय के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता।

आज जरूरत है कि हम अपने भीतर गहराई उतरकर उजाले की तलाश करें। एक छोटा-सा प्रयास अपने पड़ोसी से मुस्कुराकर बात करना, अपने बच्चों के साथ समय बिताना या अपने माता-पिता को एक फोन करना इस अकेलेपन को दूर करने की शुरुआत हो सकती है, क्योंकि मनुष्य का असली सुख अकेले नहीं, मनुष्यों के साथ ही है।